— परिचय दास —
रामजी लाल सुमन के राणा सांगा के बयान के पीछे के राजनीतिक मनोविज्ञान को समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि ऐतिहासिक आख्यानों को राजनीतिक संदर्भों में कैसे इस्तेमाल किया जाता है। आमतौर पर, इस तरह के बयानों के पीछे कुछ प्रमुख मनोवैज्ञानिक और रणनीतिक उद्देश्य होते हैं:
1. ऐतिहासिक पुनर्व्याख्या (Reinterpretation of History)
राजनीति में अक्सर ऐतिहासिक घटनाओं की पुनर्व्याख्या की जाती है ताकि वे किसी विशेष नैरेटिव को सूट करें।
राणा सांगा को बाबर को बुलाने वाले के रूप में दिखाना राजपूतों और मुगलों के बीच ऐतिहासिक संबंधों को धुंधला करने का प्रयास हो सकता है।
इससे एक नया नैरेटिव गढ़ने का प्रयास किया जाता है, जिसमें यह दिखाया जाए कि मुगलों का आना किसी साज़िश का परिणाम था, न कि केवल एक विदेशी आक्रमण।
2. वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण (Polarization & Identity Politics)
आज के भारत में मुस्लिम शासकों को लेकर जो ध्रुवीकरण है, उसमें बाबर को एक बाहरी आक्रमणकारी और राणा सांगा को एक राष्ट्रवादी नायक के रूप में देखा जाता है।
यदि यह नैरेटिव स्थापित कर दिया जाए कि राणा सांगा ने ही बाबर को बुलाया था, तो इससे हिंदू-मुस्लिम इतिहास का एक नया पाठ गढ़ा जा सकता है।
यह एक तरह से “गुलामी” या “साजिश” की अवधारणा को जन्म देता है, जिसका इस्तेमाल वर्तमान राजनीति में किया जा सकता है।
3. राजपूत और पिछड़ी जातियों के राजनीतिक समीकरण (Caste-Based Political Strategy)
भारतीय राजनीति में जातीय समीकरण बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।
यदि राजपूतों की ऐतिहासिक भूमिका को इस प्रकार से प्रस्तुत किया जाए कि वे मुस्लिम शासकों के सहायक थे, तो इससे दलित, पिछड़ी जातियों और अन्य समुदायों के वोट बैंक पर प्रभाव डाला जा सकता है।
यह बयान “राजपूत अभिजात वर्ग बनाम बहुजन समाज” की राजनीति को बल देने के लिए भी दिया जा सकता है।
4. ऐतिहासिक अपराधबोध (Guilt Complex) और जवाबदेही स्थानांतरण (Blame Shift Strategy)
यदि यह प्रचारित कर दिया जाए कि बाबर को बाहरी हमलावर की तरह नहीं, बल्कि आंतरिक राजनीति की साजिश के तहत बुलाया गया था, तो यह कई तरह की ऐतिहासिक बहसों को पलट सकता है।
इससे यह नैरेटिव दिया जा सकता है कि भारत की गुलामी के लिए केवल बाहरी लोग जिम्मेदार नहीं थे, बल्कि आंतरिक गद्दारी भी उतनी ही दोषी थी।
इस तरह की रणनीति आमतौर पर “जिम्मेदारी स्थानांतरण” (Blame Shift) का एक उदाहरण होती है।
5. समकालीन राजनीतिक संदर्भ में उपयोग
यदि किसी दल या नेता को यह साबित करना हो कि भारत में बाहरी शक्तियों का समर्थन करने वाले हमेशा अंदरूनी लोग ही रहे हैं, तो इस तरह के बयान दिए जाते हैं।
यह बयान मौजूदा राजनीतिक घटनाओं से भी जोड़ा जा सकता है, जैसे कि किसी दल या समुदाय को “देश-विरोधी” या “बाहरी शक्तियों का समर्थक” बताने की कोशिश।
रामजी लाल सुमन का यह बयान इतिहास से अधिक राजनीति प्रेरित प्रतीत होता है।
यह राजपूतों की ऐतिहासिक छवि को कमजोर करने, मुस्लिम शासकों के आगमन को आंतरिक कारणों से जोड़ने, और जातीय तथा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने के लिए दिया गया हो सकता है।
ऐतिहासिक रूप से यह गलत है, लेकिन ऐसे बयान राजनीतिक प्रभाव पैदा करने के लिए दिए जाते हैं, न कि ऐतिहासिक सत्यता स्थापित करने के लिए।
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बाबर और राणा सांगा संघर्ष की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक व्याख्या
1527 में खानवा का युद्ध, भारतीय इतिहास के उन महत्त्वपूर्ण टकरावों में से एक था जिसने भारत में मुगल शासन की नींव को मजबूत किया। यह युद्ध सिर्फ दो शासकों – बाबर और राणा सांगा – के बीच का सैन्य संघर्ष नहीं था, बल्कि इसके पीछे गहरे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आयाम भी जुड़े थे।
Ⅰ. ऐतिहासिक व्याख्या
1. संघर्ष की पृष्ठभूमि
बाबर ने 1526 में पानीपत के युद्ध में इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली और आगरा पर कब्जा कर लिया।
राणा सांगा, जो पहले लोदी वंश के कमजोर होने से लाभ उठाने की उम्मीद कर रहे थे, ने सोचा था कि बाबर केवल एक आक्रमणकारी है और जीतने के बाद वापस चला जाएगा।
लेकिन बाबर ने भारत में स्थायी शासन की मंशा जाहिर की, जिससे राणा सांगा के लिए खतरा उत्पन्न हो गया।
2. युद्ध के कारण
उत्तर भारत पर नियंत्रण की लड़ाई – राणा सांगा, राजपूत संघ (संघटन) के माध्यम से उत्तरी भारत को संगठित करना चाहते थे, जबकि बाबर इसे अपनी सल्तनत का हिस्सा बनाना चाहता था।
इस्लामी और हिंदू राजनीतिक शक्तियों की टकराहट – बाबर एक विदेशी तुर्क-मंगोल आक्रांता था, जबकि राणा सांगा भारतीय राजाओं की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे।
क्षेत्रीय प्रभुत्व की होड़ – मालवा, गुजरात, और दिल्ली के अफगान शासकों के खिलाफ संघर्ष में राणा सांगा पहले ही सफल हो चुके थे, लेकिन बाबर की बढ़ती ताकत उनके लिए नई चुनौती थी।
3. युद्ध और परिणाम
बाबर ने पहली बार भारत में ‘जिहाद’ और ‘गाजी’ (धार्मिक योद्धा) की अवधारणा को अपने सैनिकों में बढ़ावा दिया।
बाबर की सेना में तुर्की तोपखाना और तोपें थीं, जबकि राणा सांगा की सेना पारंपरिक तलवारबाजी और घुड़सवार सेना पर निर्भर थी।
बाबर ने युद्ध में अपने सैनिकों को प्रेरित करने के लिए मदिरापान (शराब पीना) त्याग दिया और इस संघर्ष को “इस्लाम की रक्षा” से जोड़कर देखा।
राणा सांगा पराजित हुए, लेकिन उनकी हार राजपूत वीरता और संघर्ष का प्रतीक बनी।
Ⅱ. सांस्कृतिक व्याख्या
1. बाबर बनाम राणा सांगा – दो सांस्कृतिक दृष्टिकोण
बाबर मध्य एशियाई तुर्क-मंगोल संस्कृति से आया था, जिसकी प्रशासनिक शैली इस्लामी और फ़ारसी प्रभावों से प्रभावित थी।
राणा सांगा भारतीय हिन्दू राजपूत ( क्षत्रिय ) संस्कृति के प्रतिनिधि थे, जहाँ वीरता, बलिदान और स्वतंत्रता सर्वोपरि थे।
2. ‘गाजी बनाम क्षत्रिय धर्म’ की लड़ाई
बाबर ने अपने संस्मरणों (बाबरनामा) में लिखा कि उसने इस युद्ध को “गाजी” (धर्म-योद्धा) बनकर लड़ा।
दूसरी ओर, राणा सांगा ने इसे राजपूत परंपरा के अनुसार एक ‘धर्म युद्ध’ के रूप में लड़ा, जिसमें राजपूत वीरता, आत्मसम्मान और मातृभूमि की रक्षा प्रमुख तत्व थे।
3. युद्ध के बाद सांस्कृतिक प्रभाव
मुगल संस्कृति की जड़ें गहरी हुईं – बाबर की जीत ने भारत में मुगल स्थापत्य, फारसी साहित्य, और इस्लामी प्रशासन को स्थायित्व प्रदान किया।
राजपूत स्वाभिमान और संघर्ष की परंपरा – इस युद्ध ने भविष्य में महाराणा प्रताप जैसे राजपूत योद्धाओं को प्रेरित किया।
“वीरगति” का आदर्श – राणा सांगा के संघर्ष को राजस्थान और उत्तर भारत में एक सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में देखा गया।
4. खानवा युद्ध का ऐतिहासिक आख्यान
मुगलों के इतिहासकारों ने इसे “इस्लाम बनाम काफिर” के रूप में दर्शाया।
राजपूत साहित्य और लोकगीतों में इसे “स्वतंत्रता बनाम विदेशी आक्रमण” के रूप में प्रस्तुत किया गया।
खानवा का युद्ध केवल एक सैनिक संघर्ष नहीं था, बल्कि यह भारतीय और विदेशी शक्तियों के बीच सांस्कृतिक टकराव भी था।
बाबर की जीत ने मुगल शासन की नींव रखी, लेकिन राणा सांगा की हार ने हिन्दू राजपूत स्वाभिमान और प्रतिरोध की परंपरा को और अधिक प्रबल किया।
यह युद्ध भारत के सांस्कृतिक संघर्षों का एक ऐसा उदाहरण है, जो आज भी ऐतिहासिक बहसों और विचारधाराओं में जीवित है।