— कनक तिवारी —
यह कवि मेरे लिए कभी फ़कत कवि नहीं रहा। लिखने पढ़ने की दुनिया में शायद मैं अकेला शेष हूं जिसका इससे सबसे सुदीर्घ परिचय है। मेरा शहर राजनांदगांव मुझे 1940 से जानता है। लेकिन उसके साढे़ तीन बरस पहले 1937से वह इनको जानता रहा हूं। मेरे घर के सामने से यह अग्रज ज़्यादातर खाकी हाफ पैन्ट पहने सिर झुकाकर जमीन में कुछ खोजते हुए धीरे धीरे सधे कदमों से स्कूल जाते आते चलता रहा है। केवल समय जानता था कि वह अपने कदमों से जीवन और जगत माप रहा है। केवल लोकल भूगोल नहीं। हम दोनों का दो पीढ़ी पहले समृद्ध जैसा परिवार रहा है। स्वजातीय और बहुत अंतरंग भी। धीरे धीरे लक्ष्मी छिटकती गई। इसका और मेरा शुरुआती जीवन किफायती नस्ल का रहा। आकांक्षा कुलबुलाती तो थी। लेकिन ज़रूरतें पूरी मुश्किल से होतीं।
मैं विनोद कुमार शुक्ल को अपने बडे़े भाई के रूप में ज्या़दा देख पाता हूं। विनोद भैया मुझे अपने सबसे प्रिय छोटे भाई होने का प्रमाण पत्र दे चुके हैं। मैं नहीं कहता मैंने उनकी सभी रचनाएं पढ़ी हैं भी। उनकी अधिकांश कृतियां मेरे पास हैं। मैंने नहीं पढ़ी हैं यह कहना भी ग़लत होगा। उनकी कुछ कृतियां पढ़ने से ही मुझे लगने लगता है कि उनकी सारी कविताएं मैंने पढ़ी हैं। वे भी जो वे लिखने वाले हैं। लगता रहता है भैया ऐसा कुछ लिखेंगे जिसकी कल्पना मैं अपने मन के तहखाने में एकांतिक होकर गुनगुना रहा हूं।
कभी मैंने स्वप्न देखा था। उसमें विनोद कुमार शुक्ल ने उनके परिवार सहित अपनी, मेरी पत्नी को भी एक चौकोर टेबल पर कुछ पत्थर रखकर कविता का तिलिस्म एलोरा गुफाओं की तरह भाषायी चमत्कार के जरिए बूझने कहा था। वह पूरा सच मैंने एक निबंध के रूप में उकेरा था। वैसा स्वप्न इस तरह फिर नहीं आया। उनकी काव्य कविता की पंक्तिया मुझे आकाश में उड़ने प्रेरित करती रही हैं। इस कारण मैं उनके कहे से छिटककर अपनी अभिव्यक्ति की धौंकनी भी चलाने लगता रहा होऊंगा।
राजनांदगांव विनोद जी के मन जेहन में गड़ गया है। इसके बावजूद हम दोनों को रोजी़ रोटी के चक्कर में उस कस्बे से बेदखल होना पड़ा। उन्हें सरस्वती ने सहारा दिया। मुझे सरस्वती से ज्यादा लक्ष्मी ने कुछ कम सही लेकिन सहारा दिया। उनके औपन्यासिक लेखन और कविता में राजनांदगांव मैं अपनी ज्ञानेन्द्रियों में बूझता रहता हूं। उनके बचपन के एक दो किस्से मसलन भिखारी बइहा राजा की कथा और उनके बाल सखा भीडू का उनसे ज़्यादा स्मरण मुझे रहा है। मुझसे अपने बचपन की ऐसी छिटकती यादों के कोलाहल में डूबते हुए कहते हैं। ‘भाई कनक तुम अक्सर आया करो। तुम्हारे कारण मैं राजनांदगांव को बार बार पाता हूं। जो छूट जाता है। उसे तुम ढूंढ़ लाते हो।‘
विनोद जी को देर से सही जायज़ ही ज्ञानपीठ सम्मान मिला है। अखबारों, फेसबुक और सोशल मीडिया में सैकड़ों बधाइयां आ रही हैं। आत्मश्लाघा के कारण (जो कि स्वाभाविक और जायज है।) विनोद जी की कविता से कहीं ज़्यादा उनकी निजता के अंतरग होने के इशारे भी होते रहे हैं। जो लोग उनसे नहीं मिले हैं। उन्हें समझ पाने में मुश्किल होगी। बात यह है कि यह कवि इतना सीधा तथा सरल लगता है कि विलोम साध्य में उसकी कविता का अक्स ठीक ठीक अंतस्थ करने में दिमागी वर्जिश भी करनी पड़ती है। मनुष्य विनोद कुमार शुक्ल को किसी को भी अपने स्नेह पाश में जकड़ लेना, सब्जी बेचने वाली हो या घर में काम करने वाली या पाखाना साफ करने आई किसी महिला कर्मी के लिए भी उनका मन इतना आसान होता है कि क्या कहें। खुर्दबीन लगाकर देखता हूं दुर्ग से रायपुर। इनकी कविता की आंतरिकता मनुष्यता के उद्वेलन में जज़्ब होकर डूब जाती है। अमूमन लेखक अपने लेखकीय व्यक्तित्व से मुक्त नहीं हो पाते। विनोद कुमार शुक्ल हैं जो अपने अंतर में कविता को महफूज़ छोड़कर निर्विकार बाहर आते हैं। जिससे मिलते हैं। उसे यही लगता है कि मुझे पूरे विनोद कुमार शुक्ल मिले हैं। इन्होंने कोई भी अंश अंदर या दूसरे के लिए छुपाकर नहीं रखा है। ये पुनः अपनी खोह में लौट जाते हैं। वहां कविता से कहते हैं सुनो मैं अमुक मनुष्य से मिलने गया था। अब बताओ तुम्हारी बची खुची आकांक्षाओं को कौन सी जुबान दूं। कोई भाषायी तिलिस्म बचा है? मैं तो छूछा मन लिए बाहर गया था। लौटकर तुम्हारे साथ हूं। भारती उन्हें दुलराती है।
कहता रहा हूं विनोद जी कविता में शब्दों की गांठ बांध देते हैं। उसे खोलो तो शब्दार्थ और भावार्थ की फुलझड़ियां छूटती हैं। अपनी नादानी में कहता रहा हूं भैया मैं तुम्हारी कविताओं का तुम्हारी तरह वाचन तो नहीं कर सकता। लेकिन साहित्य की किसी भी कक्षा में मैं छात्रों को इतने तरह के अर्थ उसमें से निकालकर बता दूंगा कि आप भी भौंचक हो जाएंगे। वे मेरी नादान शैतानी पर मुस्कराते हैं। अपना मोहक मन लेकर अपनी आंखों से मुझ पर स्नेह की बरसात कर देते हैं।
विनोद भैया और भाभी तथा मेरा परिवार उनके साथ दक्षिण की लंबी यात्रा पर भी गया था। उन्होंने कहा था। ‘कनक! मैं केवल तुम्हारे साथ चल सकता हूं। तब मैं पूरा सुरक्षित महसूस करता हूं। मैं उन्हें नहीं कह पाया केवल आप हैं जिनके साथ चलने से हमारा पूरा परिवार उस तरह उदात्त महसूस करता है जिसे LONGINUS ने कविता का SUBLIME कहा था। केरल और रामेश्वरम् वगैरह जैसी यात्रा कई कारणों से दुबारा हो नहीं पाई। मेरी जीवन यात्रा में विनोद जी साढ़े तीन बरस आगे चलते अपने पीछे आने का इशारा तो करते ही रहे हैं।
उनके मित्र जीवन चंद कोठारी कहते थे विनोद बहुत जहीन लगता नहीं था। अब कहते हैं उनकी आंखों में पता नहीं क्या था जिस अज्ञात को हम कच्ची उम्र में कैसे समझ पाते। उनके सबसे छोटे चाचा किशोरीलाल शुक्ल की याद करूंगा। उन्होंने विनोद की पढ़ाई का खर्च उठा रक्खा था। उन्होंने ही अपने गुरु बख्शी जी को आजन्म महाविद्यालय का प्राध्यापक बनाए रखने का एक मेवो द्वितीयो नास्ति आदेश सागर विश्वविद्यालय के कुलपति द्वारिका प्रसाद मिश्र से पारित कराया था। उन्होंने ही छत्तीसगढ़ में कई तरफ से ठुकराए गए मुक्तिबोध को प्राध्यापक नियुक्त किया था। मुझे भी कहा था एम ए पास करते ही तुम कहीं नहीं जाओगे। सीधे दिग्विजय महाविद्यालय के प्राध्यापक बनोगे। आज याद करता हूं पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, गजानन माधव मुक्तिबोध और विनोद कुमार शुक्ल भी मेरे जीवन में उनके ही कारण तो आए थे।
बहरहाल ज्ञानपीठ का जो भी यश और महत्व हो। वह इस कवि के सम्मान से ज़्यादा ज्ञानपीठ का सम्मान है। रामभद्राचार्य के बाद मिला। यह तो मन में गड़ता है।
भैया मेरी ओर उन आंखों से देखते हैं। वैसी स्नेहिल अभिभावक आंखें इस संसार में किसी की भी नहीं हैं। कोई मुझसे प्यार करे। यह मेरे लिए इसलिए ज़्यादा करुणामय होता है क्योंकि मैं साढ़े तीन बरस की उम्र में मातृविहीन हो गया था। जिन्हें भ्रम है कि विनोद जी की कविता में अदिवासियों के बारे में क्या है। वे पढे़ें और समझ लें। मैंने उनके बेटे शाश्वत से भी कहा है कि मैं तो चाहकर भी नहीं कर सकूंगा। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल आदिवासी बोधमयता के एक महान कवि हैं। उस अनुभूति को निरंतर हवा छत्तीगढ़ का भूगोल और जलवायु देते रहते हैं। काश कोई उस पर कुछ लिख दे। मेरा हाथ टूट गया है। सुधर रहा है। मेरे मन में अपने अग्रज के लिए भावनाएं आसमान से टूटते हुए तारों की तरह गिर गायब हो रही हैं। (शायद फिर कभी।)