— रमाशंकर सिंह —
निष्पक्ष लेकिन जनपक्षधर सरोकारी पत्रकारिता व मीडिया का अवसान हो चुका है , सीधे शब्दों में इसकी मौत हो चुकी है। छोटे अपवाद भी बड़ी मुश्किल से ढूंढे मिल रहे हैं। जो दिखतें हैं वे भी कहीं न कहीं लिपे सने मिलते हैं बाद में गोदी मीडिया मुहावरा जरूर इन छ: सात बरसों में गढ़ा गया है पर यदि बहुत पीछे देखते जायें तो यह हमेशा से रहा है और कोई राजनीतिक सत्ता इसे पोषित करने से अछूती नहीं रही। प्राचीन राज दरबारों से लेकर आज तक चाहे यही काम पहले चारण भाट करते थे अपने राजाओं में झूठा जोश भरने के लिये या उन्हें उकसाने के लिये । गोदी पत्रकारिता की मात्रा और संख्या अब जरूर ऐसीहो चुकी है कि वह मीडिया की मुख्यधारा बन चुकी है।
पं० नेहरू अब तक के सबसे सहनशील प्रधानमंत्री माने जाते थे लेकिन मैं उनसे भी ज्यादा डा० मनमोहन सिंह को मानता हूँ जो कैसा भी अनुराग किसी भी ब्रांड के पत्रकार के लिये न रखते थे और न ही कभी दिखा। अपने पीआरओ को भी कोई निर्देश नहीं देना और एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक मौक़े पर अमेरिकी राष्ट्रपति को यह हिदायत तक दे देना कि भारतीय पत्रकारों को न्यूक्लियर डील पर संभावित विरोध को शांत करने के लिये अमरीका अपने तौर तरीक़ा न अपनाये और उसे भारत का आंतरिक मामला बना रहने दे। यदि ये सख़्त हिदायत वे नहीं देते तो उसी के बाद से अमरीका परोक्ष नहीं प्रत्यक्ष ढंग से आज भारतीय मीडिया में पूरा नियंत्रण कर रहा होता कि उतना पैसा देखकर पुरी, सुभाषचंद्र, सरकार , गुप्ता , अग्रवाल और अन्य मीडिया ख़ानदान अमरीका के चरणों में लोट रहे होते और फिर यह रुकता ही नहीं। अमरीकी सत्ता प्रतिष्ठान फिर निजी रूप से पत्रकारों को उपकृत करता और स्थिति भारत राष्ट्र के लिये बेहद असम्मानजनक हो चुकी होती।
नेहरू काल में बड़ी तादाद में जयजयकार गुणगान करने वाले पत्रकारों की पूछपरख होती थी और यही लोग तत्कालीन विपक्ष के नेताओं की ख़बरें नहीं देने से लेकर उन्हें पागल तक घोषित करता रहता था। डा० लोहिया ने यह ख़ास दंश झेला था। १९६२ में कुछ परिवर्तन आया जब हिंदी पत्रकारिता में ख्यात साहित्यकारों का प्रवेश हुआ। अज्ञेय धर्मवीर भारती रघुवीर सहाय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना श्रीकांत वर्मा आदि आदि ने मुद्दों पर प्रतिरोध की पत्रकारिता शुरु की जो इंदिरागांधी के आपातकाल तक आते आते कई कारणों से दम तोड़ चुकी थी। इंदिरागांधी ने खुलकर गोदी मीडिया बनाई और पोषित की जिसमें बहुत सेकम्युनिस्ट बैकग्राउंड के लोग थे जो पहले से ही रूस की यात्राओं से उपकृत किये जाते थे। १९७७ मे इसके बाद संघ समर्थक पत्रकार बड़ी संख्या में मुख्यधारा की पत्रकारिता में रोपे गये जिन्हें संघ पृष्ठभूमि का मलाल कभी नहीं हुआ। आज इनमें से अधिकांश सीधे सीधे सरकार या भाजपा में महत्वपूर्ण पद पा चुके हैं। राजीव गांधी नरसिंहराव सबने पुरानी परम्परा का खूब पालन किया और गोदी मीडिया फली फूली।
२०१४ के बाद धनपशुओं ने बची खुची मीडिया पर कंट्रोल कर लिया और पत्रकार वाक़ई पत्तलकार बन गये। यह याद रहे कि इन नये टीवी पत्रकारों का कोई दीन ईमान नहीं है ये सत्ता की भडैंती करते हैं और ढोल बजा बजा कर । जब जिसकी सत्ता ये जोकर उसी के साथ रहेंगें। यह आश्चर्य और खोज का विषय है कि मात्र तनख्वाहों से कोई पत्रकार ६० करोड़ का घर या फ्लैट कैसे पांच दस साल में ख़रीद लेता है और अपनी तनख़्वाह से ज़्यादा टैक्स अदा कैसे कर लेता है। अब नेता की दिखाऊ विलासी जीवनशैली पत्रकारों के लिए आलोचना नहीं रश्क का विषय है । कई संपादकों ने सरकार की खुली मदद से बडी व्यावसायिक कंपनियों का अधिग्रहण भी कर लिया है और उनकी योजना ऐसे कई अधिग्रहण करने की पाइप लाइन में है । बगैर सरकार की गोद में बैठे यह सब कैसे संभव हो सकता था ? यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि विभिन्न पार्टियों की सरकारें इस मामले में एक जैसी रुख़ अपनाती हैं।
एकाध बिंदु को छोडकर सत्तारूढ़ पक्ष का प्रतिरूप ही जब विपक्ष में दिखने लगे तो पत्रकारिता कैसे अछूती रह सकती थी? एक नये धनाढ्य और सत्ताशक्ति से सम्पन्न वर्ग का उदय हुआ है जिसमें कुछ पत्रकार भी शामिल हो चुके हैं और बचे हुये लालायित हैं।
अपवाद हैं पर जब बहुत कुरेदिये तो कहीं दिख सकते हैं। पॉवरफुल भ्रष्ट राजनीति ने सब का ग्रास बना लिया है।
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