मुस्लिम निजी क़ानून में संशोधन का सवाल

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nand kishor aacharya

— नंदकिशोर आचार्य —

भारत के विभिन्न धर्मावलम्बी नागरिकों के लिए एक समान सिविल कोड की माँग लम्बे अरसे से की जा रही है। एक आधुनिक और स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले राज्य से यह माँग अनुचित भी नहीं है। लेकिन, दूसरी ओर, इस माँग में अल्पसंख्यक वर्ग अपनी विशिष्ट अस्मिता के लिए ख़तरा महसूस करता है और उस के इस एहसास को भी पूरी तरह आधारहीन नहीं कहा जा सकता। भारत की विधायिका में अन्ततः एक विशेष धर्म के अनुयायियों के प्रतिनिधियों का बहुमत रहना स्वाभाविक है और इस लिए कोई भी अल्पसंख्यक वर्ग अपने सामाजिक मामलों को पूरी तरह उन पर छोड़ना मुनासिब नहीं समझेगा। इस्लाम अपने को एक मजहब ही नहीं एक समाज व्यवस्था भी मानता है और इस लिए अपने सामाजिक मामलों में राज्य का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करना चाहता तो इस में दूसरों को एतराज क्यों हो?

कहा जा सकता है कि हिन्दू समाज भी केवल उपासना पद्धति नहीं बल्कि एक समाज-व्यवस्था है और समाज-व्यवस्था होने के नाते ही वह धर्म है तो उस के आन्तरिक मामलों में राज्य का हस्तक्षेप क्यों हो ? सैद्धान्तिक रूप से कुछ लोग शायद इस मामले में भी अहस्तक्षेप को स्वीकार करना चाहें- यद्यपि हम जानते हैं कि इस हस्तक्षेप के बिना इस समाज की बहुत-सी कुरीतियों के खिलाफ़ लड़ना अधिक मुश्किल होता।

हक़ीक़त तो यह है कि क़ानूनी हस्तक्षेप के बावजूद बहुत-सी कुरीतियों पूरी तरह नहीं मिटायी जा सकी हैं और उन के औचित्य को प्रतिपादित करने वाला एक प्रभावशाली वर्ग अभी भी हिन्दू समाज में मिल जाता है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की विधायिका द्वारा हिन्दू समाज के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप को लेकर कोई यह नहीं कह सकता कि यह किसी इतर धर्म के प्रतिनिधियों का हिन्दुओं के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप है। यह ठीक है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, पर अधिकांश संसद सदस्य किसी-न-किसी धर्म के अनुयायी हैं और उन का बहुमत हिन्दू समाज से जुड़ा है। इस लिए इस बहुमत के हस्तक्षेप को इतर सम्प्रदाय या धर्म को मानने वालों का हस्तक्षेप नहीं कहा जा सकता। भारत एक बहुलवादी समाज है और राज्य का भी इसीलिए यह कर्तव्य है कि वह इस बहुलवादी अस्मिता की हिफाजत करे। लेकिन क्या इस बहुलवादिता की हिफाजत और विभिन्न जाति, समाजों और सम्प्रदायों की अस्मिता को बचाने के नाम पर उन के सदस्यों को सामान्य नागरिक अधिकारों और मानवीय व्यवहार से वंचित किया जाना उचित होगा ? मुस्लिम निजी क़ानून को ले कर हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा जो विरोध किया जा रहा है, उस में तो शायद कहीं हस्तक्षेप की मंशा ध्वनित होती भी है लेकिन स्वयं मुस्लिम समाज के सदस्यों-ख़ासतौर पर महिलाओं द्वारा अपनी गरिमा और जीवन निर्वाह के लिए अदालतों की शरण लेना क्या यह सिद्ध नहीं करता कि वर्तमान समाज-व्यवस्था उन के हितों की पूरी तरह रक्षा नहीं कर पा रही है? मुस्लिम निजी क़ानून का सम्बन्ध मुख्य तौर पर उत्तराधिकार और विवाह, तलाक्न और तलाक़ के बाद निर्वाह-व्यय सम्बन्धी अलग क़ानूनों से है और यही वे क्षेत्र हैं जहाँ स्त्रियों की स्थिति द्वितीय श्रेणी के नागरिकों जैसी हो जाती है। इस लिए मुस्लिम निजी क्रानून में संशोधन की माँग बहुत-से मुसलमान बुद्धिजीवियों द्वारा भी की जाती रही है। शाहबानो के मामले के बाद यह मुद्दा बहुत तेज़ी से उभरा है।

इस सम्बन्ध में इस बात की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि मुस्लिम समाज का कोई भी सदस्य अपने समाज का एक सदस्य होने के साथ-साथ एक भारतीय नागरिक भी है और इस नाते उसे वे सभी संवैधानिक अधिकार और सुरक्षाए प्राप्त होनी चाहिए जो भारत के अन्य नागरिकों को हैं। इस लिए एक निश्चित सीमा तक समाज के आन्तरिक मामलों में भी राज्य का हस्तक्षेप अनिवार्य हो जायेगा, यदि वह समाज अपने स्तर पर एक न्यायपूर्ण व्यवस्था कायम नहीं कर पाता हो। दूसरे, यह भी विचारणीय है कि अपने विशिष्ट चरित्र को बनाये रखते हुए भी एक समाज अपने सभी स्त्री-पुरुष सदस्यों के अधिकारों की रक्षा की व्यवस्था कर सकता है। समान सिविल कोड के बिना भी मुस्लिम निजी क़ानून में ही कुछ संशोधन कर के, जो इस्लाम के बुनियादी मन्तव्यों के अनुकूल ही होंगे, स्त्रियों के अधिकारों और गरिमा की रक्षा की जा सकती है। आख़िर वर्तमान मुस्लिम क़ानून के अन्तर्गत भी मुसलमान होने के लिए किन्हीं विशेष संस्कारों या कार्य-कलापों की आवश्यकता नहीं है, बस इतना पर्याप्त समझा गया है कि वह यह स्वीकार करता हो कि खुदा एक है और मुहम्मद साहब उस के पैग़म्बर हैं। उस के लिए किसी ख़ास रस्म को अदा करना या रीति-रिवाजों को मानना ज़रूरी नहीं है। यहाँ तक कि यदि कोई मुसलमान उपासना की किसी हिन्दू रीति को मानने लगता है, तब भी वह मुसलमान ही रहेगा यदि वह एक खुदा में और मुहम्मद साहब की पैग़म्बरी में यकीन रखता रहे।

इस लिए केवल राज्य को ही नहीं, स्वयं मुस्लिम समाज को भी इस पर विचार करना चाहिए कि निजी क़ानून में किस सीमा तक संशोधन किया जा सकता है। प्रत्येक संशोधन को राज्य का हस्तक्षेप कह कर टालना मुनासिब नहीं कहा जा सकता। इस लिए संशोधन के स्वभाव और सीमा और राज्य के हस्तक्षेप की सीमा के बारे में स्पष्ट चिन्तन किया जाना चाहिए। आख़िर शाहबानो मामले के बाद मुस्लिम समाज के धार्मिक नेताओं की अपनी माँग पर किया गया निर्वाह भत्ते सम्बन्धी मुस्लिम निजी कानून में संशोधन का सवाल संशोधन भी प्रकारान्तर से राज्य के हस्तक्षेप की स्वीकृति ही तो है। लेकिन इस हस्तक्षेप की प्रवृत्ति और सीमा के बारे में विचार आवश्यक है।

दरअस्ल, किसी भी धार्मिक सम्प्रदाय में कुछ बुनियादी कर्तव्य और कुछ बुनियादी निषेध होते हैं और वे ही उस सम्प्रदाय के विशिष्ट चरित्र के निर्धारक तत्त्व होते हैं। जाहिर है कि कोई भी संस्था यदि इन बुनियादी कर्तव्यों और निषेधों में कोई हस्तक्षेप करती हो तो उसे अनुचित माना जायेगा और किसी भी सम्प्रदाय द्वारा राज्य के ऐसे हस्तक्षेप का विरोध उचित माना जायेगा। इस्लाम शरीयत के अनुसार चलना चाहता है। शरीयत के अनुसार एक मुसलमान के कर्मों को पाँच भागों में बाँटा गया है। ये हैं फ़र्ज़, मुस्तहब्ब, जायज़, मकरूह और हराम। फ़र्ज़ वे बुनियादी कर्तव्य हैं जिन की अवहेलना दण्डनीय मानी जाती है। इसी तरह कुछ बुनियादी निषेध हैं जिन की अवहेलना को हराम कहा गया है और वे भी दण्डनीय हैं। मुस्तहब्ब ऐसे कामों को कहा गया है जो शुभतो हैं पर उन की अवहेलना दण्डनीय नहीं है। इसी तरह उन कामों को मकरूह कहा गया है जो अनुचित होते हुए भी दण्डनीय नहीं हैं। पाँचवीं कोटि जायज़ कामों की है अर्थात् वे काम जो दण्डनीय अदण्डनीय या पुरस्करणीय-अपुरस्करणीय नहीं हैं अर्थात् वे काम जिन का कोई धार्मिक महत्त्व नहीं है।

इस दृष्टि से देखा जाय तो मुस्लिम निजी क़ानून के अन्तर्गत आने वाली अधिकांश बातें ऐसी हैं जो जायज़ तो हो सकती है क्योंकि शरीयत में उन की छूट है पर उन का कोई धार्मिक महत्त्व नहीं है। उदाहरण के लिए हम एक साथ चार बीवियाँ रखने की अनुमति को ले सकते हैं। शरीयत कुछ विशेष शर्तों के साथ इस की छूट तो देती है, लेकिन यह कहीं नहीं कहा गया है कि ऐसा करना आवश्यक या शुभ है या कि ऐसा करने से सबाब हासिल होगा। दूसरे शब्दों में, यदि मुस्लिम निजी क़ानून में इस से सम्बन्धित कोई संशोधन किया जाए तो एक ओर मुस्लिम स्त्रियों के साथ अधिक समानतापूर्ण व्यवहार होगा, जिस की इच्छा स्वय मुहम्मद साहब ने बार-बार प्रकट की है, वहीं इस संशोधन से किसी भी प्रकार की धार्मिक हानि भी नहीं होगी क्योंकि एक साथ चार बीवियों रखना न तो फर्ज है और न हा मुस्तहव्य। यह एक छूट है और यदि स्वय मास्लम समाज अपनी ओर से इस छूट का लाभ न लेने का निर्णय करता है तो इसे धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं कहा जा सकता। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि मुस्लिम कानून के अन्तर्गत आज तो चार से अधिक बीवियाँ भी रखी जा सकती हैं, फर्क सिर्फ यह है कि चार के बाद रखी जाने वाली बीवी को अपने पति से वे अधिकार नहीं मिलेंगे जो पहली चार बीवियों को मिलते हैं, यद्यपि उस की सन्तान को अन्य बीवियों से हुई सन्तान के बराबर सभी अधिकार प्राप्त होंगे। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि मुस्लिम विधि में विवाह को कोई धार्मिक संस्कार नहीं बल्कि एक समझौता माना जाता है, इस लिए यदि मुस्लिम समाज स्वेच्छापूर्वक इस समझौते में कुछ संशोधन करता है तो उस से किसी प्रकार की धार्मिक हानि होने की सम्भावना नहीं है।

इसी प्रकार का मामला तलाकशुदा महिलाओं के निर्वाह-भत्ते का भी है। यह ठीक है कि शरीयत के अनुसार तलाक़ के बाद निर्वाह-भत्ता केवल इद्दत की अवधि में ही देय है, लेकिन यदि मानवीय आधारों पर कोई अपनी तलाक़ याफ्ता औरत को इद्दत की अवधि के बाद उस का दूसरा विवाह होने तक निर्वाह भत्ता देता रहता है तो इसे न तो हराम कहा जा सकता है और न नाजायज, बल्कि यह एक तरह का शुभ कर्म ही है जिस से कुछ-न-कुछ सबाब ही हासिल होगा। इस का तात्पर्य यह है कि यदि मुस्लिम समाज स्वेच्छापूर्वक यह क़ानून बनाने के लिए तैयार होता है कि इद्दत की अवधि के बाद भी तलाकशुदा महिला को गुजारा मिलना चाहिए तो इसे धार्मिक दृष्टि से हानिप्रद नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा करना न तो किसी फ़र्ज़ में बाधा है और न ही हराम। यह केवल एक छूट को स्वेच्छापूर्वक छोड़ देना है, वह भी अपने ही समाज की महिलाओं की बेहतरी की खातिर।

संशोधन भी प्रकारान्तर से राज्य के हस्तक्षेप की स्वीकृति ही तो है। लेकिन इस हस्तक्षेप की प्रवृत्ति और सीमा के बारे में विचार आवश्यक है। दरअस्ल, किसी भी धार्मिक सम्प्रदाय में कुछ बुनियादी कर्तव्य और कुछ बुनियादी निषेध होते हैं और वे ही उस सम्प्रदाय के विशिष्ट चरित्र के निर्धारक तत्त्व होते हैं। जाहिर है कि कोई भी संस्था यदि इन बुनियादी कर्तव्यों और निषेधों में कोई हस्तक्षेप करती हो तो उसे अनुचित माना जायेगा और किसी भी सम्प्रदाय द्वारा राज्य के ऐसे हस्तक्षेप का विरोध उचित माना जायेगा। इस्लाम शरीयत के अनुसार चलना चाहता है। शरीयत के अनुसार एक मुसलमान के कर्मों को पाँच भागों में बाँटा गया है। ये हैं फ़र्ज़, मुस्तहब्ब, जायज़, मकरूह और हराम। फ़र्ज़ वे बुनियादी कर्तव्य हैं जिन की अवहेलना दण्डनीय मानी जाती है। इसी तरह कुछ बुनियादी निषेध हैं जिन की अवहेलना को हराम कहा गया है और वे भी दण्डनीय हैं। मुस्तहब्ब ऐसे कामों को कहा गया है जो शुभतो हैं पर उन की अवहेलना दण्डनीय नहीं है। इसी तरह उन कामों को मकरूह कहा गया है जो अनुचित होते हुए भी दण्डनीय नहीं हैं। पाँचवीं कोटि जायज़ कामों की है अर्थात् वे काम जो दण्डनीय अदण्डनीय या पुरस्करणीय-अपुरस्करणीय नहीं हैं अर्थात् वे काम जिन का कोई धार्मिक महत्त्व नहीं है।

इस दृष्टि से देखा जाय तो मुस्लिम निजी क़ानून के अन्तर्गत आने वाली अधिकांश बातें ऐसी हैं जो जायज़ तो हो सकती है क्योंकि शरीयत में उन की छूट है पर उन का कोई धार्मिक महत्त्व नहीं है। उदाहरण के लिए हम एक साथ चार बीवियाँ रखने की अनुमति को ले सकते हैं। शरीयत कुछ विशेष शर्तों के साथ इस की छूट तो देती है, लेकिन यह कहीं नहीं कहा गया है कि ऐसा करना आवश्यक या शुभ है या कि ऐसा करने से सबाब हासिल होगा। दूसरे शब्दों में, यदि मुस्लिम निजी क़ानून में इस से सम्बन्धित कोई संशोधन किया जाए तो एक ओर मुस्लिम स्त्रियों के साथ अधिक समानतापूर्ण व्यवहार होगा, जिस की इच्छा स्वय मुहम्मद साहब ने बार-बार प्रकट की है, वहीं इस संशोधन से किसी भी प्रकार की धार्मिक हानि भी नहीं होगी क्योंकि एक साथ चार बीवियों रखना न तो फर्ज है और न हा मुस्तहव्य। यह एक छूट है और यदि स्वय मास्लम समाज अपनी ओर से इस छूट का लाभ न लेने का निर्णय करता है तो इसे धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं कहा जा सकता। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि मुस्लिम कानून के अन्तर्गत आज तो चार से अधिक बीवियाँ भी रखी जा सकती हैं, फर्क सिर्फ यह है कि चार के बाद रखी जाने वाली बीवी को अपने पति से वे अधिकार नहीं मिलेंगे जो पहली चार बीवियों को मिलते हैं, यद्यपि उस की सन्तान को अन्य बीवियों से हुई सन्तान के बराबर सभी अधिकार प्राप्त होंगे। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि मुस्लिम विधि में विवाह को कोई धार्मिक संस्कार नहीं बल्कि एक समझौता माना जाता है, इस लिए यदि मुस्लिम समाज स्वेच्छापूर्वक इस समझौते में कुछ संशोधन करता है तो उस से किसी प्रकार की धार्मिक हानि होने की सम्भावना नहीं है।

इसी प्रकार का मामला तलाकशुदा महिलाओं के निर्वाह-भत्ते का भी है। यह ठीक है कि शरीयत के अनुसार तलाक़ के बाद निर्वाह-भत्ता केवल इद्दत की अवधि में ही देय है, लेकिन यदि मानवीय आधारों पर कोई अपनी तलाक़ याफ्ता औरत को इद्दत की अवधि के बाद उस का दूसरा विवाह होने तक निर्वाह भत्ता देता रहता है तो इसे न तो हराम कहा जा सकता है और न नाजायज, बल्कि यह एक तरह का शुभ कर्म ही है जिस से कुछ-न-कुछ सबाब ही हासिल होगा। इस का तात्पर्य यह है कि यदि मुस्लिम समाज स्वेच्छापूर्वक यह क़ानून बनाने के लिए तैयार होता है कि इद्दत की अवधि के बाद भी तलाकशुदा महिला को गुजारा मिलना चाहिए तो इसे धार्मिक दृष्टि से हानिप्रद नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा करना न तो किसी फ़र्ज़ में बाधा है और न ही हराम। यह केवल एक छूट को स्वेच्छापूर्वक छोड़ देना है, वह भी अपने ही समाज की महिलाओं की बेहतरी की खातिर !

इस का तात्पर्य यह है कि मुस्लिम समाज अपनी विशिष्ट स्मिता को बनाये रखते हुए और अपने धार्मिक मामलों में किसी अन्य सस्था द्वारा हस्तक्षेप को दूर रखते हुए भी अपने निजी क़ानून में ऐसा संशोधन कर सकता है जो किसी भी प्रकार से उन की धर्म-हानि नहीं करता, बल्कि कुछ मामलों में वह उन के बुनियादी धार्मिक सिद्धान्तों के अधिक अनुकूल होगा। इस प्रकार के संशोधन की प्रकृति और सीमा व राज्य द्वारा उस में सक्रियता दिखाने की सीमा का भी निर्धारण इस आधार पर हो सकता है कि सम्बन्धित संशोधन कहीं किसी फ़र्ज़ में बाधा या किसी हराम की बाध्यता तो नहीं पैदा करता। इन दोनों तरह के मामलों में सावधानी रखते हुए यदि ऐसे संशोधन किये जाते हैं, जिन से दया, करुणा, न्याय आदि इन्सानी जज्बों को ताक़त मिलती हो तो उन्हें एक प्रकार से शुभ अर्थात् मुस्तहब्ब ही मानना चाहिए।

कुछ लोग यह आपत्ति कर सकते हैं कि इस प्रकार के संशोधन करने का अधिकार किसी को नहीं है क्योंकि यह शरीयत का मामला है। लेकिन तब हमें यह स्मरण रखना होगा कि आज जो मुस्लिम निजी क़ानून हमारे सामने है, वह इसी प्रकार के कई संशोधनों का ही परिणाम है। आख़िर कोई भी मुस्लिम संस्था या नेता यह माँग नहीं करता है कि भारत के मुसलमानों पर मुस्लिम साक्ष्य विधि या मुस्लिम दण्ड विधि को लागू किया जाय। यह तो ठीक है कि एक मुस्लिम और गैरमुस्लिम के बीच विवाद होने पर उस का निर्णय सामान्य विधि के अन्तर्गत किया जाय, लेकिन यदि वादी प्रतिवादी दोनों ही मुस्लिम हों तब तो दोनों पर मुस्लिम दण्ड विधि लागू की ही जा सकती है। साफ़ है कि चिन्ता मुस्लिम विधि की नहीं है क्योंकि यह कहीं नहीं कहा गया है कि दण्ड-विधि उपेक्षणीय है। सिविल क़ानून में भी ऐसी बहुत-सी बातें आ गयी हैं जिन की मनाही की गयी थी। उदाहरण के लिए, दलांली की बात को ले सकते हैं। इसी तरह मुहम्मद साहब की राय के अनुसार जो खुद नहीं जोत सकता हो, उसे अपनी ज़मीन बिना कोई किराया या लगान लिए दूसरे को जोतने के लिए दे देनी चाहिए। लेकिन हम जानते हैं कि वर्तमान मुस्लिम क़ानून इन बातों की अनदेखी करता है और इन के लिए सामान्य विधि के अन्तर्गत ही कार्रवाई होती है।

इस के अतिरिक्त, यह भी स्मरणीय है कि स्वयं मुस्लिम सिविल क़ानून में भी समय-समय पर संशोधन और परिवर्तन होते रहे हैं। मुस्लिम विधि के अनुसार इस्लाम को त्यागने वाला मुसलमान किसी अन्य मुसलमान का उत्तराधिकारी नहीं हो सकता था। लेकिन 1860 के धर्म स्वातन्त्र्य अधिनियम के लागू हो जाने के बाद यह क़ानून मान्य नहीं रह गया। इसी प्रकार पूर्व क़ानून के अनुसार धर्म-त्याग कर देने पर किसी मुस्लिम महिला का विवाह रद्द समझा जाता था, लेकिन 1939 के मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम के अन्तर्गत अब किसी मुस्लिम महिला द्वारा धर्म-त्याग कर देने पर भी उस का विवाह स्वयमेव रद्द नहीं समझा जा सकता। तात्पर्य यह कि समय-समय पर मुस्लिम निजी क़ानून में भी संशोधन-परिवर्तन होते रहे हैं। इस लिए यदि इस्लाम के मूल फ़र्ज़ी और निषेधों को ध्यान में रखते हुए ऐसे संशोधन प्रस्तावित किये जायें जिन से मुस्लिम महिलाओं को एक गरिमापूर्ण हैसियत और समान अधिकार क़ानूनी तौर पर मिल जाते हों तो यह एक प्रकार से पैग़म्बर की मूल भावना के अनुरूप ही होगा। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए बहुत-से मुस्लिम देशों के सिविल कोड में परिवर्तन किये गये हैं और इस से वे देश कम मुस्लिम नहीं हो गये हैं। लेकिन यह तभी सम्भव है जब मुस्लिम समाज इस के लिए अपना मानस तैयार करे और यह दायित्व मुख्य रूप से उस समाज के बुद्धिजीवियों और युवा वर्ग का है।

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