— अनिल जैन —
आज महावीर जयंती है। तीर्थंकर वर्धमान महावीर ने कहा है- सत्य के अनेक कोण होते हैं। इसलिए किसी भी कोण पर विश्वास करने से पहले उस पर अपने समय के आलोक में सोचो, शंका और प्रश्न करो, फिर उसे स्वीकार करो। यही अवधि ज्ञान है। यह जरूरी नहीं है कि जो कभी किसी ने लिख दिया था, वही शाश्वत सत्य है। कोई भी सत्य अंतिम नहीं होता है, इसलिए लगातार शोध और परिशोध जरूरी है। यही परिशोधन विज्ञान का आधार है। इसलिए हर बात में ‘शायद’ (स्यात्) का ध्यान रखा जाना चाहिए। यही ‘स्यादवाद और अनेकांत’ का सिद्धांत है जो विश्व को महावीर की अनुपम और महान देन है।
अनेकांत के माध्यम से महावीर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतिपादन करते हैं और विचार वैभिन्न्य से सहमति जताते हैं। कहा जा सकता है कि वर्धमान महावीर भारतीय दर्शन परंपरा के पहले मनीषी हैं, जिन्होंने असहमति के अधिकार का प्रतिपादन किया और उसे गरिमा प्रदान की। महात्मा गांधी ने भी जीवन भर महावीर के अनेकांतवाद का अनुसरण किया और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करते रहे।
आचार्य महाप्रज्ञ ने अपनी एक पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है, ”यह बहुत दुखद है कि पिछले 400 सालों में जैन धर्म में शोध की परंपरा खत्म हो गई है।’’ कोई भी धर्म या समाज तभी तक प्रगति के पथ पर चलता रहता है जब तक वह शोध करता रहता है। शोध न करने पर जड़ हो जाता है और धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है। जैन धर्म के साथ यही हो रहा है। बाकी धर्मों की स्थिति भी अलग नहीं है।
जैन दर्शन के मूल जीवन मूल्य हैं- अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य और ब्रह्मचर्य। जैन धर्मावलंबी शाब्दिक रूप में इन जीवन मूल्यों को जानते-समझते हैं लेकिन व्यवहार में नहीं अपनाते। श्रावकों की बात तो दूर, जैन साधु-साध्वियों मे भी ज्यादातर का इन उदात्त जीवन मूल्यों से बहुत स्थूल नाता है। श्रावकों को ही नहीं, बल्कि ज्यादातर जैन साधुओं को भी इस समय नफरत पर आधारित हिंदुत्व का नशा चढ़ा हुआ है। वे शुद्ध रूप से एक राजनीतिक दल विशेष के प्रचारक/दलाल बने हुए हैं। अपने प्रवचनों में जैन दर्शन की चर्चा के बजाय उन्हें व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी पर आधारित ‘ज्ञान’ का प्रचार करते देखा और सुना जा सकते हैं (इस बात की पुष्टि के लिए कमेंट बॉक्स में कुछ वीडियो देखे जा सकते हैं)।
हकीकत तो यह है कि ऐसे धंधेबाज जैन साधुओं का जैन दर्शन का ज्ञान ही शून्य है। साधु वेशधारी ऐसे ढोंगियों और मक्कारों की वजह से जनमानस में न सिर्फ जैन धर्म के बारे में गलत संदेश जाता है बल्कि उन साधु-साध्वियों की छवि भी अकारण मलिन होती है, जो कठोर तप-साधना करते हुए जैन दर्शन और महावीर की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने में लगे हैं।
महावीर के अनेकांत का यह अर्थ कदापि नहीं है कि व्यक्ति अपने मूल्यों, मान्यताओं और सिद्धांतों को त्याग दे और विभिन्न विचारधाराओं के अभाव में दुनिया एक नीरस और उबाऊ स्थान बन जाए। जैसे कि आज भारत में कई साहित्यकार, लेखक और कथित बुद्धिजीवी तटस्थ होने का ढोंग करते हुए विचारधाराओं से परहेज करते हैं। हालांकि उनका यह परहेज भी उनके निहित स्वार्थों के चलते एक तरह का पाखंड होता है।
दुनिया के तमाम कट्टरवादी यदि ‘मेरा रास्ता ही सही रास्ता है’ का अड़ियल रवैया छोड़कर अनेकांत की अवधारणा को आत्मसात कर ले तो सारे मारक हथियार अप्रसांगिक हो सकते हैं।
महावीर स्वामी का अमर संदेश- जियो और जीने दो!