— परिचय दास —
यह प्रसंग रामायण के उस क्षण का है जब सीता, मारीच की रामस्वरूपी पुकार सुन, भयाकुल हो उठती हैं और लक्ष्मण से कहती हैं कि वे राम की सहायता को जाएँ। लक्ष्मण, जो राम की आज्ञा से सीता की रक्षा हेतु ठहरे हैं, इनकार करते हैं। पर सीता का मन आशंकित है—वह उस स्त्री का मन है जो अपने प्रिय की एक आवाज़ सुनकर भी विवेक खो सकती है।
यह वह पल है जब प्रेम भय से भीग उठता है, जब विश्वास की सतह पर एक क्षणिक संशय की लहर आती है, और जब सीता—जो मर्यादा की प्रतिमूर्ति कही जाती हैं—लक्ष्मण पर एक ऐसा आरोप कर देती हैं जो उनके व्यक्तित्व से बड़ा प्रतीत होता है। पर वह आरोप नहीं, डर का विलाप है; वह संदेह नहीं, एक स्त्री की चुपचाप टूटती हुई करुण पुकार है।
इस क्षण में सीता, एक पत्नी के प्रेम और एक स्त्री की व्यथा के बीच झूलती हैं। लक्ष्मण मौन हैं और राम बहुत दूर। यही उस क्षण की त्रासदी है। यह केवल वन का संवाद नहीं, यह मानव-मन का शाश्वत संघर्ष है—जहाँ प्रेम, भय और शब्द—तीनों एक ही तलवार की धार पर चलते हैं।
यही वह क्षण है जहाँ सीता इतिहास से बाहर निकलकर हमारे भीतर प्रवेश करती हैं—हमारी माँओं, बहनों, प्रेमिकाओं और आत्माओं के रूप में—हर बार जब हम प्रेम में भयभीत होते हैं और भय में आरोपित।
रामायण का वह प्रसंग जब मारीच राम की आवाज़ में आर्तनाद करता है— “हा लक्ष्मण! हा सीते!”— केवल कथा का एक नाटकीय क्षण नहीं है, बल्कि यह एक नारी मन के अत्यधिक संवेदनशील क्षण की कलात्मक पुनर्रचना है। सीता उस आवाज़ में राम के प्राण संकट की कल्पना करती हैं। वह कल्पना एकदम आवेगमयी है, धधकती हुई। सीता के लिए राम का स्वर ही जीवन है, और उस स्वर में पीड़ा, भय और मृत्यु की आशंका समाई हो तो वह विवेक की जगह चिंता और करुणा से भर जाती हैं।
सीता उस क्षण केवल एक पत्नी नहीं रह जातीं—वह एक ऐसा भाव बन जाती हैं, जो प्रेम के विरह और भय के सम्मिलन से जन्म लेता है। उन्हें लगता है कि राम संकट में हैं और लक्ष्मण कुछ न कुछ छिपा रहे हैं। लक्ष्मण की शांति उन्हें चुभने लगती है। उन्हें प्रतीत होता है कि लक्ष्मण राम को संकट में छोड़कर स्वयं उनके प्रति आसक्त हैं। यह विचार वस्तुतः भयजन्य है, लेकिन उस भय में जो कटुता जन्म लेती है, वह सीता की वाणी को उग्र और कटाक्षपूर्ण बना देती है। यह वही वाणी है जो वाल्मीकि और तुलसीदास दोनों ने दर्ज की है।
वाल्मीकि ने यहाँ सीता की बातों को सीधा, तीव्र और असहनीय बना दिया—जहाँ सीता, लक्ष्मण पर यह तक कह देती हैं कि तुम राम के न रहने की कामना करते हो ताकि तुम मुझे पा सको। यह एक स्त्री की बौखलाई हुई वाणी है, लेकिन उसमें आत्मग्लानि का बीज भी छिपा है, जो आगे चलकर रामकथा की करुण गाथा को गहरा करता है।
लक्ष्मण यहाँ एक संयमी पात्र हैं। वह जानते हैं कि यह माया है, छल है। लेकिन सीता का प्रबल आग्रह और उनका कटाक्ष सुनकर वह विवश हो जाते हैं। यहाँ लक्ष्मण की पीड़ा मौन में है, और सीता की पीड़ा शब्दों में। मूक नैतिकता और मुखर प्रेम के बीच यह एक टकराहट है।
तुलसीदास इस प्रसंग को और अधिक भावुक बना देते हैं। उन्होंने सीता की वाणी को इतना तेज़ और कठोर दिखाया है कि पाठक के मन में क्षण भर को सीता के प्रति रोष भी उपज सकता है, परन्तु फिर तुलसीदास स्वयं उस वाणी की पीड़ा का रहस्य खोलते हैं—वह वाणी भयजनित है, प्रेमजन्य है, और प्रेम जब त्रस्त होता है तो वह विवेक से वंचित हो जाता है।
मारीच इस पूरे प्रसंग का नियोजक है—उसका उद्देश्य राम को दूर ले जाकर सीता को असहाय बनाना और फिर रावण को उनका हरण करने देना है। उसकी माया, राम की पुकार की नकल, सीता के अंतर को तोड़ देती है। यह पराजय नहीं, एक मानवीय असमर्थता का क्षण है।
सीता के आरोप में कोई यथार्थ नहीं है, पर वह एक गहरे प्रेम की विकृति है, जो असुरक्षा और मोह से जन्म लेती है। यह क्षण रामायण को केवल पौराणिक आख्यान नहीं रहने देता, बल्कि उसे गहन मनोवैज्ञानिक और काव्यात्मक महाकाव्य में बदल देता है—जहाँ देवत्व के बीच मानवीय दुर्बलताएँ भी सजीव रहती हैं। यही कारण है कि यह प्रसंग आज भी हमें विचलित करता है, और भीतर तक छू जाता है।
सीता और लक्ष्मण के बीच उस संवाद का सौंदर्य, जो मारीच की छाया बनकर उड़ते हुए एक ध्वनि के रूप में आता है, एक ऐसा ललित बिन्दु है, जहाँ से हम स्त्री की चेतना के रहस्यों में प्रवेश करते हैं। इस प्रसंग में सीता की जो भाषा है, वह केवल आरोप की भाषा नहीं है—वह भय और प्रेम के द्वंद्व से उपजी भाषा है, जो आत्मरक्षा के साथ-साथ अपने पुरुष को उसकी सीमा में रखने का एक प्रयत्न भी है। यह भाषा, केवल संवाद नहीं है, वह अपने भीतर स्त्री के आत्मसंकट की चुप चीख भी है।
रामायण की यह घड़ी स्त्री की आत्मा में घटित वह क्षण है, जहाँ प्रेम संदेह में बदलता है, और संदेह की भाषा—आक्रोश के रूप में बाहर आती है। इस क्षण को केवल मारीच के छल से समझना एक सीमित दृष्टि है; यह वह क्षण है जहाँ एक स्त्री अपने सबसे प्रिय व्यक्ति की अनुपस्थिति में, अकेलेपन के चरम पर खड़ी होती है—एक अरण्य में, एक असह्य प्रतीक्षा में। राम की पुकार से अधिक सीता को उस गूंज में अपना भय सुनाई देता है। वह भय कि वह अकेली पड़ गई है।
लक्ष्मण के प्रति उसका आक्रोश, उसकी व्यथा का वह स्वर है, जो सामाजिक मर्यादाओं के भीतर अब तक दबा रहा। लक्ष्मण वह व्यक्ति है जो मर्यादा पुरुषोत्तम राम का प्रतिबिम्ब है—पर उसी राम के प्रेम की मर्यादा पर सीता को सन्देह होता है। यह संदेह नहीं, यह पुकार है—एक पुकार जो पुरुष के भीतर की स्त्री को स्पर्श करती है, और जो यह चाहती है कि पुरुष उसे सम्पूर्ण प्रेम से घेर ले। सीता का वाक्य—”तुम राम के बिना जीवन की कल्पना करते हो”—एक प्रश्न नहीं, एक चुनौती है। यह वह क्षण है जहाँ स्त्री अपने प्रेम की परिपूर्णता की कसौटी पर अपने संबंधों को कसती है।
इस सन्दर्भ में हम भारतीय दर्शन के उस स्त्री-विमर्श की ओर भी बढ़ सकते हैं जहाँ ‘सीमा का उल्लंघन’ स्त्री के आत्मनिर्णय का पहला चरण होता है। अरण्य में सीता का आरोप एक परंपरागत नारी की सीमाओं से बाहर जाकर, लक्ष्मण जैसे पुरुष को चुनौती देता है कि वह उसे एक निर्भर स्त्री न माने। लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण उसी चुनौती का प्रतिफल है।
तुलसीदास ने इस प्रसंग को ‘भक्ति’ के आलोक में रखा, जबकि वाल्मीकि के यहाँ यह ‘करुणा’ का क्षण है। लेकिन तमिल कवि कम्बन इस क्षण को एक करुण-शृंगारिक त्रासदी के रूप में देखते हैं। उनके यहाँ सीता की भाषा में प्रेयसी की सिसकी है। वह राम से वियोग में क्षुब्ध नहीं, सशंकित है। वह नहीं जानती कि राम जीवित हैं या नहीं। उसे आहटें आती हैं, परन्तु वह आहटें उसके अपने अंतर्मन की प्रतिध्वनि हैं।
इस द्वंद्वात्मक क्षण को ‘कालिदासीय नायिका’ की तरह भी देखा जा सकता है, जहाँ आशंका और संकोच एक दूसरे में उलझते हैं। यह क्षण स्त्री के हृदय की गहराइयों से उपजा वह क्षण है जहाँ वह खुद को केवल ‘पत्नी’ के रूप में नहीं देखती, बल्कि वह ‘स्वामिनी’ भी बनती है—अपनी रक्षा की अपेक्षा में, अपने भावनात्मक एकत्व की माँग में।
सीता के शब्द किसी साधारण स्त्री के शब्द नहीं हैं—वे पवित्र प्रेम की पीड़ा से भरे हुए हैं। वह जानती है कि लक्ष्मण अपने भ्रातृधर्म में अडिग हैं, पर वह यह भी जानती है कि किसी प्रेम की परीक्षा में भावुकता का क्षण निर्णायक होता है। इसलिए वह जानबूझकर कठोर शब्दों का प्रयोग करती है—“तुम राम के बिना सुखी हो सकते हो”—यह वाक्य प्रेम का नहीं, भय का प्रतिरूप है। वह जानती है कि लक्ष्मण को यही शब्द चलायमान करेंगे। और यही होता है।
यह दृश्य ‘नायिका’ की उस मनोभूमि को चित्रित करता है जहाँ वह प्रेम, भय, संदेह, पीड़ा और सृजन—all at once—एक साथ जीती है। सीता का यह संवाद किसी युद्ध से कम नहीं। यह एक स्त्री की आत्मा के भीतर लड़ा गया युद्ध है, जहाँ वह अपनी भावनाओं को वाणी देती है—इस भय से कि शायद यह प्रेम हमेशा के लिए समाप्त हो रहा है।
रामायण की परंपरा में सीता का यह अंश, एक ‘क्राइसिस ऑफ फेथ’ का अंश है। वह अपने आराध्य के प्रति, अपने जीवन की संपूर्ण साधना के प्रति आशंकित है। वह स्वयं को परीक्षा की कसौटी पर नहीं, बल्कि अपने पुरुष को परीक्षा की अग्नि में फेंकती है। यह नायिका की सर्वोच्च सत्ता है—जो पुरुष को भी पुनर्परिभाषित करती है।
रामकथा को जब हम जापानी ‘नो’ थिएटर या यूनानी त्रासदी की रोशनी में देखते हैं, तब यह दृश्य ‘Medea’ या ‘Antigone’ जैसी स्त्रियों की स्मृति में उतरता है—जो अपने प्रेम के लिए अपने भय और विश्वासघात के बीच फटी हुई हैं। सीता, उस क्षण, Medea की तरह उग्र नहीं, पर उतनी ही अकेली हैं। वह ‘यक्षिणी’ की तरह प्रतीक्षारत हैं, पर वह प्रतीक्षा—लज्जा नहीं, ललकार है।
यह प्रसंग हमें यह भी बताता है कि स्त्री की व्यथा को केवल ‘वियोग’ नहीं कहा जा सकता। यह एक मानसिक युद्ध है, जो अरण्य में, एक झोपड़ी के भीतर, प्रेम की अग्नि में जल रहा है। सीता का वह संवाद लक्ष्मण से नहीं, अपने भय से है, अपने खालीपन से है। वह चाहती हैं कि वह भय टूटे। और भय तब ही टूटेगा जब लक्ष्मण रेखा टूटे।
इस प्रकार यह संवाद न केवल कथात्मक है, बल्कि एक गहन नाटकीयता का उदाहरण भी है। यह रामायण की सबसे गूढ़ और सबसे करुण स्थापनाओं में से एक है, जहाँ संवाद और मौन, लज्जा और रोष, प्रेम और भय, सभी एक ही क्षण में जीवित हैं। इस द्वंद्व का सौंदर्य ही इस प्रसंग की ललितता है।
सीता का यह क्षण—जिसे सामान्यत: एक भावनात्मक द्वंद्व का क्षण मान लिया जाता है—दरअसल स्त्री-चेतना के एक अत्यंत गहरे आयाम को खोलता है। वह केवल राम की चिंता नहीं कर रहीं, वह स्वयं के अस्तित्व की रक्षा कर रही हैं—उस अस्तित्व की, जो राम के प्रेम में पूरी तरह घुल गया है। राम अब केवल व्यक्ति नहीं, उनकी आत्मा का पर्याय हैं। राम की अनुपस्थिति, उनके जीवन में एक पूर्ण रिक्तता उत्पन्न कर देती है। मारीच की पुकार उस रिक्तता की आशंका को एक प्रत्यक्ष यथार्थ में बदल देती है।
लक्ष्मण इस स्थिति में धर्मसंकट में हैं। एक ओर राम की आज्ञा है, जो उन्हें सीता की सेवा में रहने का निर्देश देती है; दूसरी ओर एक स्त्री का विलाप, जो प्रेम की भाषा में नहीं, संदेह और चुनौती की भाषा में बोला जा रहा है। यह चुनौती उस मर्यादा को भी भंग करती है, जिसे लक्ष्मण ने स्वयं ओढ़ रखा है—रामभक्त, निःस्वार्थ सेवक, और एक आदर्श अनुज। किंतु जब सीता उस सीमारेखा को लांघकर कहती हैं, “तुम राम के बिना सुखी हो सकते हो,” तो वह मर्यादा की नींव में गूंजता हुआ एक प्रश्न बन जाता है—क्या तुम्हारा प्रेम भी स्वार्थरहित है?
यहाँ यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि सीता कोई अबला नहीं हैं। वह मिथिला की पुत्री हैं, जनक की संतति—जिसके भीतर तत्वज्ञान और कर्म दोनों का संगम है। वह जानती हैं कि संकट में वाणी भी अस्त्र बन सकती है। वह लक्ष्मण को भीतर से हिलाना चाहती हैं। क्योंकि पुरुष की चेतना केवल तर्क से नहीं, भावना से भी उद्वेलित होती है। वह जानती हैं कि सीधे कहेंगी—“जाओ”—तो लक्ष्मण नहीं जाएंगे। वह लक्ष्मण को इस स्तर पर लाना चाहती हैं जहाँ वह भीतर से विवश हों, जहाँ उनका स्वयं का विवेक उन्हें यह निर्णय लेने के लिए बाध्य करे कि अब रुकना अनुचित है।
और लक्ष्मण, जो कि तप और त्याग की मूर्ति हैं, उस क्षण भीतर से कांप उठते हैं। वह जानते हैं कि सीता के शब्दों में आरोप नहीं, असहायता है; क्रोध नहीं, भय है; अविश्वास नहीं, आत्मिक हाहाकार है। यही कारण है कि वह राम की चिंता में नहीं, सीता की पीड़ा के कारण वन में प्रवेश करते हैं। वह यह नहीं सोचते कि सीता क्या कह रही हैं; वह यह समझते हैं कि सीता क्यों कह रही हैं।
इस पूरे संवाद को यदि काव्यात्मक दृष्टिकोण से देखें, तो यह रामायण का एक अत्यंत नाटकीय और गहन बिंदु है। यह दृश्य केवल कथा की गति नहीं बदलता, बल्कि पाठक या श्रोता को भीतर से हिला देता है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि रामकथा का श्रोतागण केवल भक्त नहीं हैं, वे मनुष्य भी हैं—जिनके भीतर प्रेम, भय, असुरक्षा, और निष्ठा के सारे भाव विद्यमान हैं। यह दृश्य उन्हें उनके ही भीतर का आईना दिखाता है।
यहाँ एक सांस्कृतिक विमर्श भी जन्म लेता है—क्या स्त्री का प्रेम पुरुष की अपेक्षा अधिक तीव्र और पूर्ण होता है? क्या स्त्री संकट के क्षण में पुरुष की तुलना में अधिक साहसी होती है? सीता का यह संवाद, जहाँ वह लक्ष्मण को चुनौती देती हैं, उस परंपरा को चुनौती देता है जहाँ स्त्री को केवल आश्रिता माना गया है। सीता उस क्षण निर्णय लेती हैं, और उस निर्णय का परिणाम चाहे जो भी हो—वह स्वयं उस उत्तरदायित्व को ग्रहण करने को तैयार हैं।
राम के विलाप की वह छाया—जो मारीच की कंठ से निकलती है—सीता के अंतःकरण में सीधे उतरती है। उस क्षण को समझने के लिए मनोविज्ञान के किसी गूढ़ ग्रंथ की आवश्यकता नहीं, बस उस स्त्री की आंखों में उतरना होगा, जो ग्रीष्म में किसी सूखते हुए नीम के नीचे बैठी है, और दूर आकाश से गरजती हुई बिजली को देखती है। वह जानती है कि बिजली आसमान में ही चमकती है, ज़मीन पर शायद कभी न गिरे—परंतु भीतर कहीं कुछ डर जाता है।
सीता इसी आशंका में हैं। वह जानती हैं—राम कोई साधारण पुरुष नहीं, वह शौर्य और करुणा की पराकाष्ठा हैं। पर मारीच की वह पुकार किसी शब्द की तरह नहीं, किसी भविष्य की तरह आती है—जैसे कोई दरवाज़ा खटखटा रहा हो उस भाग्य का, जिसे वह अपने संकल्प से रोकती रही हैं।
और अब वह क्षण है—सीता अकेली हैं, लक्ष्मण के साथ होते हुए भी। क्योंकि भय कभी साझा नहीं होता, वह केवल अपना होता है।
सीता कहती हैं, “तुम राम के बिना सुखी हो सकते हो।”
यह केवल एक आरोप नहीं, यह स्त्री के भीतर का विस्फोट है—वह विस्फोट, जो प्रेम की गहराई में दबे हुए असंतुलन से पैदा होता है। वह ऐसा कुछ नहीं कहना चाहतीं। परंतु जो प्रेम संपूर्ण होता है, वह अपूर्णता को बर्दाश्त नहीं कर पाता। राम की अनुपस्थिति उस अपूर्णता का द्वार खोल देती है।
सीता का भय, राम की अनुपस्थिति नहीं है; बल्कि यह कि वह चिरप्रतीक्षित स्त्री, जिसे युगों-युगों तक पुरुष की छाया में परिभाषित किया गया, अब उस क्षण में पूरी तरह अकेली है। और जब स्त्री अकेली होती है, वह केवल रोती नहीं—वह शब्दों को तलवार बना देती है।
लक्ष्मण इस संवाद में किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। उनके भीतर दो व्यक्तित्व हैं—एक वह जो आज्ञाकारी अनुज है, और दूसरा वह जो एक स्त्री के आँसू से हिल जाता है। उन्होंने सीता को माँ माना है, पर वह माँ अब एक ऐसे रूप में सामने है जो रो नहीं रही, चुप नहीं है—बल्कि बोल रही है। और स्त्री जब अपने सारे आवरण उतार कर बोलती है, तो वह केवल श्रोतव्य नहीं रहती—वह उपस्थित हो जाती है।
लक्ष्मण इस उपस्थिति से चकित हैं। वह पहली बार सीता को केवल सीता के रूप में देख रहे हैं—ना राम की पत्नी, ना जनक की पुत्री—बल्कि एक समूची स्त्री, जो अपने भय में भी स्पष्ट है, अपने शब्दों में भी तेजस्विनी।
इस दृश्य को यदि समकालीन परिप्रेक्ष्य में पढ़ें, तो यह किसी महान साहित्यिक स्त्री पात्र की तरह नहीं, किसी आज की स्त्री की तरह सामने आता है—जो प्रेम में है, परंतु उस प्रेम की सीमा को चुनौती देती है। जो पुरुष की निष्क्रियता को ‘मर्यादा’ नहीं, ‘मौन’ समझती है। जो पुरुष से सहारा नहीं, भागीदारी मांगती है।
यह वह सीता है, जो मीरा से अधिक द्रौपदी है।
मीरा की तरह वह राम में विलीन नहीं होतीं, द्रौपदी की तरह वह प्रश्न उठाती हैं।
उनका यह आरोप, दरअसल एक emotional displacement है। वह राम को पुकारना चाहती हैं, पर वहाँ केवल लक्ष्मण हैं। वह राम को झकझोरना चाहती हैं, पर वह दूर हैं। इसीलिए वह लक्ष्मण पर उँगली उठाती हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक projection है—जहाँ भीतर के संत्रास को किसी निकटतम पर फेंका जाता है।
पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि सीता इस संवाद के बाद लक्ष्मण को रोकती नहीं हैं। जैसे ही वह चलते हैं, सीता निश्चल हो जाती हैं—क्योंकि जो कहना था, कह चुकी हैं। जैसे किसी काव्य की अंतिम पंक्ति कहने के बाद कवि मौन हो जाता है।
सीता का यह आरोप दरअसल केवल लक्ष्मण के लिए नहीं, समूचे पुरुषलोक के लिए है—जो स्त्री के प्रेम को तो स्वीकार करता है, पर उसकी आकुलता को ‘भावुकता’ कहकर टाल देता है।
यह वह क्षण है जहाँ स्त्री की भाषा, पुरुष के मौन से टकराती है। और यह टकराहट न केवल कथा को आगे बढ़ाती है, बल्कि मनुष्य की चेतना को झकझोरती है।
उपसंहार :
वन के उस निर्जन क्षण में जो घटा, वह केवल एक स्त्री-पुरुष संवाद नहीं था। वह आत्मा और भय के बीच एक द्रवित संघर्ष था। सीता, जो आज भी हर युग में एक प्रतीक बनकर हमारे भीतर विचरण करती हैं, वहाँ मात्र राम की पत्नी नहीं थीं—वे एक ऐसी स्त्री थीं, जो प्रेम में पूर्ण समर्पित होने के बाद भी अकेली थीं।
लक्ष्मण, जिनकी निष्ठा अभेद्य थी, उस निष्ठा की परिणति ही उनके मौन में थी—एक ऐसा मौन जो शब्दों से नहीं, त्याग की आहटों से गूँजता था। लेकिन सीता उस क्षण उसे नहीं सुन सकीं। शायद क्योंकि जब हृदय आशंकित होता है, तो वह दूसरों की निष्ठा नहीं—केवल अपने प्रिय की पुकार सुन पाता है।
और राम? वह तो उन दोनों के बीच कहीं नहीं थे। वह केवल एक प्रतिध्वनि थे—किसी ऐसे प्रेम की, जो युद्धों में, निर्वासनों में, वनवासों में बँटा रहता है।
यह प्रसंग हमें यह भी बताता है कि प्रेम के सबसे पारदर्शी रिश्ते भी कभी-कभी अपारदर्शी हो जाते हैं, और संवेदना की सबसे निर्मल धाराएँ भी चुपचाप अपने भीतर संशय की काई उगा लेती हैं।
इसलिए यह केवल एक पुराकथा नहीं, एक नित्यकथा है—जो हर समय, हर संबंध, हर संवाद में घट सकती है। यह सीता का आरोप नहीं, एक आंतरिक पुकार थी—एक स्त्री की जो अकेले में अपने प्रेम को बचाना चाहती है, चाहे उसके लिए उसे अपने ही अपनों पर कटाक्ष क्यों न करना पड़े।
इस प्रसंग को हम बार-बार पढ़ते हैं, सुनते हैं, लिखते हैं : हर बार थोड़ा और सीता हो जाते हैं, थोड़ा और लक्ष्मण हो जाते हैं और बहुत थोड़े से राम, जो कहीं दूर… किसी युद्ध से लौट रहे होते हैं।