— रणधीर गौतम —
” The Hindus wanted the Vedas, and they sent for Veda Vyasa who was not a caste Hindu. The Hindus wanted an epic, and they sent for Valmiki who was an untouchable. The Hindus wanted a Constitution and they sent for me”. – Ambedkar
सबसे पहले, डॉ. भीमराव अंबेडकर को भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका के लिए सभी जानते हैं। उन्होंने कहा था, ‘India will have a society in which there will be togetherness of liberty,’ अर्थात, एक ऐसा समाज होगा जिसमें स्वतंत्रता के साथ-साथ न्याय भी होगा — और यह न्याय केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक भी होगा। समान अवसरों की स्थिति में समानता होगी, आपसी बंधुत्व होगा, जिसमें इतिहास को भूलकर निकट संबंध (ferternity) बनाने की प्रवृत्ति विकसित होगी।अम्बेडकर इसी वैचारिक दिशा में सोचते थे।
यह देश के तमाम स्वतंत्रता सेनानियों और नेताओं की तरह डॉ. भीमराव अंबेडकर का भी एक महान स्वप्न था। यह स्वप्न किस हद तक साकार हो सका है, यह एक अलग विचार का विषय है। बाबा साहब ने दुनिया भर के संविधानों का अध्ययन किया। उन्होंने तीन देशों में पढ़ाई की थी — अमेरिका में, इंग्लैंड में, और कुछ समय के लिए जर्मनी में, और भारत में तो उन्होंने पढ़ाई की ही थी। कहा जाता है कि उस समय उनके पास दुनिया के सबसे बड़े निजी पुस्तकालयों में से एक था। अपने समय के सर्वोत्तम विद्यार्थियों में से एक होने के नाते, उन्होंने अध्ययन में गहरी साधना की। वे इतने उत्कृष्ट विद्यार्थी थे कि महाराज बड़ौदा ने उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए फेलोशिप दी, ताकि वे लौटकर उनके शासन में मदद कर सकें।
डॉ. अंबेडकर जिस सीट से जीते थे, वह सीट पाकिस्तान चली गई। इसके बावजूद, महात्मा गांधी जी के आग्रह पर उन्हें भारतीय संविधान को बनाने के लिए संविधान सभा का सदस्य बनाया गया और ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। जब उनकी सदस्यता समाप्त हो गई, तो डॉ. राजेंद्र प्रसाद, जो संविधान सभा के अध्यक्ष थे, ने मुंबई के तत्कालीन मुख्यमंत्री को एक चिट्ठी लिखी। चिट्ठी में उन्होंने लिखा कि बाबा साहब बहुत ही महत्वपूर्ण सदस्य हैं, और उनकी सदस्यता समाप्त हो गई है। अगला सत्र शुरू होने से पहले बाबा साहब की सदस्यता को पुनः निर्धारित किया जाए। इस तरह, महाराष्ट्र, जो कि बाबा साहब की साधना भूमि रही है, वहां से वे फिर से संविधान सभा के लिए चुने गए। जब हम डॉ. भीमराव अंबेडकर जी की विरासत को देखते हैं, तो संविधान निर्माता के रूप में उनकी विरासत सबसे अधिक आकर्षित करती है।
उनकी दूसरी महत्वपूर्ण विरासत सामाजिक न्याय के सिद्धांतकार के रूप में है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने उस समय के सबसे बड़े नेता महात्मा गांधी से इस सवाल पर टक्कर ली कि दलित समाज के भविष्य के लिए यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि उन्हें नेतृत्व में अवसर मिले और आरक्षण का प्रावधान हो। राणनीतिक मत भिन्नता के वावजूद गांधी और अंबेडकर एक दूसरे के नजदीक आये और प्रसिद्ध पूना पैक्ट (1932) हुआ । दोनों में वैचारिक साम्य यह था कि दलितों को भारतीय समाज में उचित स्थान मिले, और दोनों में से कोई भी छुआछूत के पक्ष में नहीं था। रणनीतिक भिन्नता यह थी कि बाबा साहब राज्य का सीधा हस्तक्षेप चाहते थे, जबकि गांधीजी राज्य और समाज दोनों का हस्तक्षेप चाहते थे।
उस समय मुसलमानों के चुनाव में मुस्लिम वोटर ही वोट करते थे, हिंदू वोटर नहीं। अंबेडकर के अनुसार, इसी तरह दलितों के लिए एक अलग इलेक्टरेट होना चाहिए था। पूना पैक्ट में, जैसा कि आप सभी जानते हैं, दो इलेक्टोरेट को लेकर विवाद हुआ था। महात्मा गांधी का मानना था कि इससे समाज में कड़वाहट पैदा होगी और समाज बंट जाएगा। उस समय समाज में गैर जातीय और खासकर दलितों के साथ रोटी–बेटी का रिश्ता न के बराबर था, दलितों को मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं थी, और वे तमाम सामाजिक शोषणों के शिकार थे।गांधीजी का मानना था कि यह निर्णय समाज में दरार बढ़ाने का काम करेगा और आग में घी का काम करेगा।
खैर, बाबा साहब ने उस बातचीत को संवाद के रूप में आगे बढ़ाया, और इसी से पुणे पैक्ट जैसा ऐतिहासिक समझौता हुआ। उसी की प्रेरणा से, आज सामाजिक न्याय की दिशा में दलित परिवारों में जन्मे लोगों को भारतीय समाज में 15% आरक्षण का लाभ मिल रहा है। दलित समाज वह समाज है, जिसे जन्म के आधार पर सामाजिक शोषण, दुर्व्यवहार और उपेक्षा का सामना करना पड़ा है।इस दृष्टि से बाबासाहब की विरासत को एक सामाजिक क्रांति के रूप में भी देखा जा सकता है।
बाबा साहब का एक तीसरा योगदान उनके निजी जीवन से आता है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जाति व्यवस्था और भारतीय समाज की संकीर्ण प्रवृत्तियों का बहुत गहन अध्ययन किया। पश्चिमी समाजशास्त्रियों और मानवविज्ञानियों ने भारत को मुख्य रूप से एक जाति–प्रवृत्त समाज के रूप में देखा है, जिसमें सामाजिक पदानुक्रम को जैविक, और इसलिए सांस्कृतिक, रूप में व्यक्त किया गया था। उदाहरण के लिए, लुइस डुमोंट (1911-1998) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Homo Hierarchicus (1966) में इस सांस्कृतिक अवधारणा को सामने लाते हुए जाति व्यवस्था का संरचनात्मक दृष्टिकोण से विश्लेषण किया। दूसरी ओर, डुमोंट के आलोचक, इंटरएक्शनिस्ट विद्वान जैसे मैककीम मैरियट ने जाति के पदानुक्रम में स्थानीय और क्षेत्रीय विविधताओं पर अधिक जोर दिया, और एम.एन. श्रीनिवास ने जाति व्यवस्था के भीतर सामाजिक गतिशीलता की एक सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसे उन्होंने “संस्कृतिकरण” (Sanskritization) कहा। मार्क्सवादी विद्वान जाति व्यवस्था को एक प्रकार के वर्ग गठन के रूप में देखते थे।
लेकिन इन सभी विमर्शों में सबसे दिलचस्प यह था कि भारत में जाति व्यवस्था पर विचार करने वाले सबसे मौलिक चिंतक, डॉ. बी.आर. अंबेडकर (1891-1956), जिनकी न केवल एक विद्वान के रूप में, बल्कि स्वतंत्र भारत के महानतम क़ानून निर्माता और नीति निर्धारकों में से एक के रूप में भी पहचान थी, का योगदान नदारद था।
हालांकि समाजशास्त्रियों ने उनके कामों की उपेक्षा की है, लेकिन समाजिक बदलाव के पैरोकारों को बाबा साहब का चिंतन समाज के आंतरिक विरोधाभासों को समझने में मदद करता रहा है। इसीलिए उनकी किताब ‘Annihilation of Caste’ न केवल समाजशास्त्रियों के लिए बल्कि समाज वैज्ञानिकों के लिए भी एक महत्वपूर्ण ग्रंथ मानी जाती है। इसका हिंदी अनुवाद ‘जाति व्यवस्था का विनाश’ के नाम से है। यह पुस्तक केवल बाबा साहब की यह रचना केवल जाति व्यवस्था के शोषण का अध्ययन प्रस्तुत नहीं करती, बल्कि सामाजिक क्रांति और सामाजिक रूपांतरण की दृष्टि भी देती है। इसके लिए उन्होंने केवल सामाजिक व निजी अनुभवों पर नहीं, बल्कि भारतीय शास्त्रों और ज्ञान परंपरा का भी गहन अध्ययन किया।
उन्होंने जाति व्यवस्था की उत्पत्ति पर अपनी दृष्टि प्रस्तुत की और भारत को इस छुआछूत के कष्ट से मुक्त करने का सपना देखा। उनके लिए जाति व्यवस्था एक अमानवीय और पंगु बनाने वाली व्यवस्था थी। जाति व्यवस्था के पीछे पुरुष सत्ता भी काम करती है। इसीलिए भारतीय समाज के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया शुरू करने के लिए महिलाओं और दलितों दोनों के शोषण को समाप्त करना आवश्यक है। इसी कारण, शास्त्रीय परंपरा में जाति व्यवस्था को बनाए रखने के लिए महिलाओं के विवाह को सजातीय बनाए रखने का नियम स्थापित किया गया। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस सामाजिक संरचना के समाजशास्त्र को समझा और समझाया।
डॉ. भीमराव अंबेडकर एक कानूनी विद्वान या संविधान विशेषज्ञ के रूप में भी हैं। कुछ लोग उन्हें एक महान अर्थशास्त्री के रूप में भी मानते हैं। उनकी पीएचडी थीसिस का विषय ‘Problems of the Rupee in India’ था।
मेरे जैसे लोगों के लिए डॉ. भीमराव अंबेडकर सामाजिक क्रांति की धारा को संरक्षण, संवर्धन, और संबोधित करने वाले एक महापुरुष के रूप में दिखाई देते हैं। बाबा साहब अंबेडकर ने भारतीय समाज की मूलभूत संरचना में जाति को एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में देखा। इसीलिए उन्होंने एक नए समाज की अवधारणा की बात की, जहां बंधुत्व और समानता हो, और इसके लिए जाति का उन्मूलन आवश्यक है। मेरे लिए उनकी तीसरी महत्वपूर्ण दृष्टि उन्हें एक सामाजिक सुधारक और एक मूलभूत भारतीय चिंतक के रूप में देखना है।
चौथी और सबसे बड़ी बात यह है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय शास्त्रों के गहरे अध्येता थे। उन्होंने भारत के लगभग सभी धर्मों का अध्ययन किया था। विशेष रूप से, उन्होंने बौद्ध धर्म की परंपरा को अपने सामाजिक नवनिर्माण के लिए महत्वपूर्ण माना। उनके इस चिंतन से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय ज्ञान परंपरा में ‘तुलनात्मक धर्म’ का अध्ययन करने की विधि हमें बाबा साहब भीमराव अंबेडकर से सीखनी चाहिए।
अंबेडकर अपने दौर में उन बहुत कम लोगों में से थे जिन्होंने अपने धर्म के अलावा भी अन्य धर्मों का भी मनन चिंतन और अध्ययन किया था। इस धारा में बाबा साहब अंबेडकर, गांधी और स्वामी विवेकानंद की परंपरा के बौद्धिक हैं जिन्होंने तमाम धर्मों का अध्ययन कर उनके विचारों को समाज के नवजागरण के लिए प्रयुक्त किया।
डॉ. बाबासाहेब का भारत और विश्व के लिए एक और महत्वपूर्ण योगदान, बौद्ध धर्म की स्थापना सामयिक पुन: का है। जब बाबा साहब अंबेडकर ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया, तो उनके साथ कई लाख लोगों ने भी इसे अपनाया। यह भारतीय परंपरा को आत्मसात करने का एक बड़ा आग्रह के रूप में है। अंबेडकर ने दुनिया की कई परंपराओं का अध्ययन किया और उन्हें समझा, लेकिन अंततः भारतीय ज्ञान परंपरा के विभिन्न आयामों में बौद्ध धर्म की स्वीकार्यता को एक प्रकार से भारतीयता की स्वीकार्यता के रूप में देखा जा सकता है। आज न केवल भारत में बल्कि विश्व में भी बौद्ध धर्म के प्रति लोगों का आकर्षण और जिज्ञासा देखी जा रही है, और इसे एक नवजागरण के युग के रूप में देखा जा सकता है।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने स्वयं को बौद्ध परंपरा के स्थविरवाद (थेरवाद) में दीक्षित कराया। यह वही परंपरा है जिसे सम्राट अशोक के पुत्र ने श्रीलंका में पहुंचाया था। इसके अतिरिक्त महायान जैसी अन्य बौद्ध परंपराएं भी हैं, जिन्हें आप लद्दाख, सिक्किम, और तिब्बत में देख सकते हैं। बौद्ध धर्म के प्रति इस आकर्षण को समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव, राहुल सांकृत्यायन, और स्वयं डॉ. भीम राव अंबेडकर में देखा जा सकता है।
अंत में, मैं अपनी बात को इस प्रकार संक्षेप में कहना चाहूंगा कि आज हमारे सामने पांच प्रकार के अंबेडकर मौजूद हैं। पहला, संविधान निर्माता, जिसकी अक्सर चर्चा होती है। दूसरा, भारतीय समाज व्यवस्था और दर्शन के आलोचक, जिन्होंने इसके पतन की व्याख्या की। तीसरा, भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ, जिन्होंने ‘Who Were the Shudras?’ जैसी किताबें लिखी। चौथे अंबेडकर को एक समाजशास्त्री और समाज सुधारक के रूप में देखा जा सकता है, जिन्होंने जाति व्यवस्था की उत्पत्ति, जन्म, उसके विस्तार, और परिणाम पर लिखा। पांचवें अंबेडकर आध्यात्मिक अंबेडकर हैं, जिन्होंने जीवन को आध्यात्मिकता से जोड़ा। लेकिन यह आध्यात्मिकता ऐसी नहीं है जिसका कोई आधार न हो। उन्होंने बौद्ध धर्म को अपने मार्ग के रूप में अपनाया, जिसमें बौद्ध धर्म को सबसे अधिक तर्कसंगत धर्म के रूप में देखा जा सकता है। उनकी आस्था भगवान के अस्तित्व में नहीं, बल्कि मनुष्य के विवेक में है।
जैसा कि स्वयं बुद्ध ने कहा है, “किसी ने लिखा है इसलिए मत मानो, किसी ने बोला है इसलिए मत मानो, कहीं शास्त्र में लिपिबद्ध ऋषियों द्वारा किया गया है इसलिए मत मानो। अगर तुम्हारे विवेक पर किसी बात का प्रभाव पड़ता है, तो उसे सिर्फ मानो। विवेक जब तुम्हें किसी बात की अनुमति देता है, तभी मानो।” इसलिए बाबा साहब ने बौद्ध धर्म को सबसे निकटतम पाया, जिसमें चिंतन, ज्ञान, और मीमांसा तीनों का संवर्धन होता है। उन्होंने बौद्ध धर्म को भविष्य का धर्म माना। महाराष्ट्र से लेकर पंजाब, बंगाल से लेकर बिहार तक, भारत के वंचित वर्ग में बौद्ध धर्म को वंचितों के धर्म के भविष्य और आशा के रूप में देखा जा रहा है।तो यह पांच विरासतें हैं जिन्हें हम बड़े आदर के साथ याद करते हैं और अंबेडकर की विरासत को भारतीय विरासत के रूप में पहचानते हैं।
इसके अलावा, अंबेडकर की दो और विरासतें हैं, जिन पर कम चर्चा होती है। पहली विरासत है, जिसमें वे सफल हुए— संविधानिक लोकतंत्र।
दूसरी विरासत संगठन निर्माण के रूप में उनके प्रयास। बाबा साहब ने दो तरह के संस्थानों का निर्माण किया: शिक्षा और समाज सुधार की संस्थाएं, जैसे सिद्धार्थ कॉलेज। उन्होंने कई पत्रिकाएं भी निकालीं, जैसे बहिष्कृत भारत, जो आज भी इतिहास का हिस्सा हैं।
इसके अलावा, बाबा साहब ने जो राजनीतिक संस्थाएं बनाई, उन्होंने कई बार प्रयास किए, लेकिन वे सफल नहीं हो सके। ऑल इंडिया फेडरेशन से लेकर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया तक, उनके कई प्रयास विफल रहे। जब बाबा साहब का निधन हुआ, तो उनके अधिकांश अनुयायी कई टुकड़ों में बंट गए।
मेरी समझ से, जब तक भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का अन्याय जारी रहेगा, बाबा साहब का विचार, बाबा साहब का कर्म, और बाबा साहब की विरासत हमेशा के लिए याद की जाएगी। जब–जब भारत के लोकतंत्र पर संकट आएगा, तब उन लोगों में, जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र की वैज्ञानिक व्याख्या की, इसके कमजोरियों और मजबूती को समझा, बाबासाहेब अंबेडकर का नाम याद किया जाएगा। क्योंकि जब भारतीय संविधान का दस्तावेज बाबा साहब ने तैयार किया और जब इसे संसद के सामने रखा, तो उन्होंने कहा कि जब तक संविधान को अपने व्यक्तित्व से जोड़ने वाले लोग नहीं होंगे, तब तक संविधान काम नहीं करेगा। अच्छा संविधान होते हुए भी, यदि इसके कार्यान्वयन में मूल्य नहीं हैं, तो यह समाज में शोषण खत्म करने के बजाय उसे बढ़ावा देगा।
उन्होंने कहा कि आज से हम एक विडंबना के युग से बाहर निकल रहे हैं। क्या विडंबना थी? विदेशी राज और स्वतंत्रता। दूसरी विडंबना हमारे सामने यह है: राजनीतिक समानता और सामाजिक असमानता तथा आर्थिक असमानता। “Political equality cannot exist with social inequality and economic inequality.” हमें सामाजिक असमानता से सामाजिक समानता की ओर बढ़ना होगा। इसका मतलब यह है कि अगर हम भारतीय समाज की विषमता को खत्म नहीं करेंगे, तो राजनीतिक समानता पर आधारित लोकतंत्र का विकास संभव नहीं होगा। किसी भी भारतीय लोकतंत्र में, यदि भारत के सामाजिक ढांचे में विषम विषमता का संस्कार हो, तो लोकतंत्र को जीवित रखना कितना मुश्किल काम है, यह आज भी हम दलितों के खिलाफ अत्याचारों से समझ सकते हैं।
डा. अंबेडकर २५ नवम्बर १९४९ संविधान सभा में कहा था”मेरे दिमाग में इस समय केवल देश के भविष्य की बातें उमड़ रही हैं, और मैं इस अवसर पर अपनी उद्विग्नता व्यक्त करने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूँ। मुझे चिंता इस बात की है कि जाति और संप्रदाय जैसे हमारे पुराने शत्रुओं के अलावा अब हमारे पास परस्पर-विरोधी विचारों वाली पार्टियाँ भी होंगी। यह निश्चित है कि यदि इन पार्टियों ने संप्रदाय को देश से ऊपर रखा, तो हमारी स्वतंत्रता संकट में पड़ जाएगी। मैं महसूस करता हूँ कि कोई भी संविधान चाहे कितना ही अच्छा क्यों न हो, यदि उसे लागू करने वाले लोग अच्छे न हों, तो वह संविधान निश्चित रूप से बुरा सिद्ध होगा। इसी प्रकार, कोई संविधान चाहे कितना ही बुरा क्यों न हो, यदि उसे लागू करने वाले लोग अच्छे हों, तो वह संविधान अच्छा भी सिद्ध हो सकता है।”