गांधी जी की परम्परा के वाहक – राममनोहर लोहिया

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ramashankar singh

— रमाशंकर सिंह —

हात्मा गांधी का भारत और विश्व को सबसे बड़े दो तीन अवदानों में से एक सत्याग्रह रहा है जिससे साधारण जन में निजी और सामूहिक दोनों स्तरों पर अन्याय का सक्रिय प्रतिकार करने का जज्बा संकल्प व साहस जाग्रत होता है । यह कायरों का नहीं बहादुरों का नैतिक हथियार है जो किसी भी बड़ी आततायी ताक़त या राज्यशक्ति के समक्ष अकेला भी छाती तान कर खड़ा हो सकता है। हिंसा में गोली या तलवार से अन्यायी को मारा जा सकता है पर अन्याय को नहीं। गाँधी जी के अन्य अवदान भारतीय विचार परम्परा को ही कुछ माँज कर बने थे , मेरी दृष्टि में वे उतने मौलिक नहीं कहे जा सकते।

इसी सत्याग्रह की नैतिक शक्ति को संगठित कर गांधी जी ने भारतीय जन को बडी संख्या में महासाम्राज्यवादी राक्षसी ताकत के सामने निर्भीकता से खड़ा कर दिया। कोई माने या न माने पर विद्रोही जनता पर कैसी भी ताकत राज नहीं कर सकती। ब्रिटिश साम्राज्य को इसी जनता के सामने हार मान कर जाना पड़ा था! दो राजनीतिक विचार तब अंग्रेज के पक्ष में और गांधी के विरोध में थे , इस पर आज चर्चा नहीं कि वे दो कौन थे ?

आज़ादी के बाद यह तर्क पेश किया गया कि अब तो अपना राज आ गया इसलिये सत्याग्रह की जरूरत नहीं है जबकि स्वयं गांधी जी मानते थे कि सत्याग्रह सर्वकालिक व हर परिस्थिति में एक अधिकार और कर्तव्य के रूप में माना जाना चाहिए ।आज हम इस पर भी चर्चा नहीं करेंगे कि कैसे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सत्याग्रह की उपयोगिता पर किस किस नें प्रश्न चिन्ह लगाये और क्यों ?

डा० राममनोहर लोहिया ने एक दार्शनिक राजनेता के रूप में भारत को क्या दिया ? और दुनिया को भी ?

संक्षेप में कह रहा हूं कि पहली बार किसी चिंतक ने समाज की समानता को मूल आधार में रखते हुये सिद्ध किया कि मार्क्सवाद न सिर्फ़ भारतीय स्थिति बल्कि पूरी रंगीन दुनिया समेत यूरोप के लिये असंगत निर्रथक और ़ोषणकारी साबित होगा । इतिहास की मार्क्सवादी अवधारणा के विपरीत उन्होंने ‘ इतिहास चक्र ‘ नाम से इतिहास के नियतिवाद को नकारा। डा० लोहिया ने अपना विषद अर्थशास्त्रीय विवेचन ‘ मार्क्स के बाद का अर्थशास्त्र ‘ नामक थीसिस में प्रस्तुत किया जिसमें मार्क्सवादी अर्थशास्त्र की धज्जियॉं उड़ा दीं। इसके समानांतर ही पूरी दुनिया में अन्याय व शोषण के सात किस्मों के विरुध्द जनता को संगठित करने व लड़ने का आवाहन किया जिसे “ सप्त क्रांति “ नाम से जाना व स्वीकार किया जाता है।

लेकिन डा० लोहिया ने महात्मा गांधी के सत्याग्रह को १९४७ के बाद ज़िंदा रखने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाही ।1952 से ही जहॉं जहॉं भारतीय राजतंत्र ने औपनिवेशिक तरीक़ों से दमन व अत्याचार किया वहाँ वहॉं सिर्फ डा लोहिया व उनके साथी ही दिखते थे। केरल में अपनी ही पहली सरकार को इस्तीफ़ा देने का आदेश दिया जब निहत्थी जनता पर गोली चली। कर्नाटक उप्र बिहार आंध्र असम आदि के सुदूर क्षेत्रोंमें घूम घूम कर किसानों मज़दूरों युवाओं को संगठित कर सत्याग्रह की राह पर चलाया और खुद चले। इसी लिये आज़ादी के बाद भी अपनी मृत्यु तक बीस बरसों में करीब ग्यारह बार जेल काटी और कई बार पुनः आजाद भारत की पुलिस की यातनायें भी सहीं। आजाद भारत का शायद पहला अश्रुगैस चालन और लाठीचार्ज दिल्ली के मंडी हाउस स्थित नेपाली राजमहल के सामने नेपाली जनता की आजादी के लिये जुलूस पर हुआ जिसमें कुल सत्तर अस्सी निहत्थे मर्द स्त्रियाँ थी । लोहिया नेतृत्व कर रहे थे। इस जुलूस में शामिल लोगों को तीन माह की क़ैद हुईं !

पिछले दो तीन बरसों में मेरी कई विख्यात गांधीवादियों से चर्चा होने का सौभाग्य मिला जिसमें मैंने यही पूछा कि गांधी जी का सत्याग्रह आज़ादी के बाद किसने जिंदा रखा तो सबने यह स्वीकार किया कि निस्संदेह लोहिया ने ! आज जिस प्रतिरोध प्रदर्शन जुलूस की आजादी को हम भोग रहे हैं उसके पीछे सिर्फ संविधान और कानून ही नहीं है बल्कि वह बडी लडाई भी है जो डा० लोहिया ने हमें अपने राजनीतिक कर्म से दी है। वे निजी सत्ता के प्रस्ताव को इंकार कर प्रतिपक्ष का रास्ता जानबूझकर चुने थे। यह कुजात गांधीवादी होने का एक सच्चा प्रमाण है।

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