कांग्रेस पार्टी को ‘आपातकाल समर्थक कांग्रेसी- कम्युनिस्टों’ से मुक्त करें!

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Randhir K Gautam

— रणधीर गौतम —

पिछले दो दिनों से कांग्रेसियों, कम्युनिस्टों और समाजवादियों में अपने-अपने इतिहास को लेकर कुछ ज़्यादा ही उत्साह उमड़ पड़ा है। यह स्थिति न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि खतरनाक भी। एक ओर जहां कांग्रेसी- कम्युनिस्ट आपातकाल जैसे लोकतंत्र के काले धब्बे को जायज़ ठहराने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ समाजवादी साथी भी मौजूदा सरकार की आलोचना और जनता के मुद्दों को थोड़े समय के लिए भुला कर, सोशल मीडिया पर आपातकाल समर्थक कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों से उलझने में लगे हैं।

अभी हाल में कुछ कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों ने मोरारजी देसाई को CIA का एजेंट कहा। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है—उनके जीवनकाल में ही इस विषय पर चर्चा हो चुकी है। जैसा कि हमेशा होता आया है, आपातकाल समर्थक कांग्रेसी- कम्युनिस्ट जिस श्वेत श्रेष्ठतावादी ज्ञान प्रणाली को अपना ‘माई-बाप’ मानते हैं, उसी के पुराने तथ्यों को फिर से सामने लाकर परोस रहे हैं।
मैं उनसे कहना चाहता हूं कि उस समय के विद्वानों के विचार पढ़ें। जहां तक मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने की बात है, तो यह साफ कर देना चाहता हूं कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में ‘ओल्ड कांग्रेस’ का भी योगदान था। आपातकाल के दौरान जेल में बंद रहे गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और समाजवादियों का भी इसमें बड़ा योगदान रहा। मोरारजी देसाई परिवारवाद की कोख से नहीं, बल्कि सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री बने थे—यह बात कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों को समझनी चाहिए।

उस समय एक अमेरिकी पत्रकार द्वारा उठाए गए आरोप को भारत में न तो किसी ने गंभीरता से लिया, न माना और न ही गांधीवादी, सर्वोदय या समाजवादी कार्यकर्ताओं ने इसे कोई महत्व दिया। हां, कुछ आपातकाल समर्थक कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों ने ज़रूर इसका ढिंढोरा पीटने की असफल कोशिश की। यह भी उल्लेखनीय है कि मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाए जाने के पक्ष में जॉर्ज फर्नांडिस और समाजवादी नेता मधु लिमये नहीं थे। साथ ही, समाजवादियों ने चरण सिंह और जगजीवन राम को उप-प्रधानमंत्री बनाए जाने का समर्थन किया, जो दलित और किसान के सवालों को राष्ट्रीय मुद्दा मानते थे।

अब जहां तक लोहिया और जेपी को इज़राइल समर्थक बताने का सवाल है, तो ज़रा इन आपातकाल समर्थक कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों से पूछिए कि क्या भारत की विदेश नीति नेहरू की विदेश नीति नहीं रही है? और क्या नेहरू ने लोहिया की विदेश नीति को पूरी तरह से नकार दिया था? नहीं।

शायद इन कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों को नेहरू की विदेश नीति को फिर से पढ़ने की ज़रूरत है, जिसमें रूस और अमेरिका जैसे ध्रुवों के वैचारिक सैनिक बनने के बजाय भारत के राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी गई थी।
कम्युनिस्टों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि तिब्बत की आज़ादी में उनका क्या योगदान है ? चीन के विस्तारवाद पर उनका क्या रुख रहा है? और उस समय रूस क्या कर रहा था?

कम्युनिस्टों की विचारधारा असल में एक साम्राज्यवादी विचारधारा है। आचार्य नरेंद्र देव की भाषा में कहें तो—”अगर मास्को में बारिश हो जाए, तो भारतीय कम्युनिस्ट दिल्ली में छाता तान देते हैं।” बर्लिन की दीवार रूस की ही देन थी। यह ‘रूसी हित केंद्रित राजनीति’ भारतीय कम्युनिस्टों की एक पुरानी बीमारी है।

अगर कांग्रेस पार्टी और स्वयं राहुल गांधी को सफल होना है, तो उन्हें इन वैचारिक परजीवियों से दूरी बनानी होगी, ताकि विपक्ष का सशक्तिकरण हो सके और विभिन्न विचारधाराओं के लोग अपने-अपने संकीर्ण हितों से ऊपर उठकर मौजूदा तानाशाही सरकार को उखाड़ फेंक सकें।

प्रोफेसर आनंद कुमार जी ने अपनी किताब इमरजेंसी राज की अंतर्कथा में अधिनायकवाद पर आधारित इमरजेंसी राज के कम से कम 12 महादोष का जिक्र किया है:
(1) संविधान की धारा 19 को स्थगित करके नागरिकों को धारा 14, 21 और 22 में दिये गये सभी संवैधानिक अधिकार स्थगित कर दिये गये।
(2) सरकार के सभी आलोचकों को आन्तरिक सुरक्षा अधिनियम में संशोधन करके ‘मीसा’ के अन्तर्गत बिना मुकदमों के बन्दी बनाया गया और एक लाख से अधिक नागरिक हवालातों में उत्पीड़ित किये गये और जेलों में गिरफ्तार रखे गये।
(3) सभी समाचारपत्रों पर पाबन्दी लगायी गयी।
(4) रेडियो-टेलीविजन पर सिर्फ सरकारी प्रचार किया गया। विधायिका और न्यायपालिका तक की कार्यवाही प्रकाशित करने पर रोक थी। विदेशी संवाददाताओं को देश से बाहर जाने का आदेश निकला।
(5) अनेकों नागरिक संगठनों को निषिद्ध घोषित किया गया।
(6) प्रशासनिक व्यवस्था में निरंकुशता के कारण 25,000 सरकारी कर्मचारियों को जबरन सेवामुक्त किया गया। इनमें से इमरजेंसी ख़त्म होने के बाद की जाँच के आधार पर 14,000 से अधिक लोग फिर से बहाल किये गये।
(7) नगरों के सुन्दरीकरण के नाम पर 4000 से अधिक स्थानों पर गरीब बस्तियों को उजाड़ने |की शिकायतें मिलीं।
(8) केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की मंजूरी के बगैर संजय गांधी के 5-सूत्री कार्यक्रम के अन्तर्गत जनसंख्या नियन्त्रण के नारे के साथ 1 करोड़ से अधिक लोगों की ‘नसबन्दी’ करायी गयी। इसमें कई अविवाहित पुरुष थे।
(9) लोकसभा के चुनाव दो बार टाल दिये गये।
(10) जन प्रतिनिधित्व क़ानून, 1951 को संविधान संशोधन (39वाँ संशोधन) के जरिये बदला गया।
(11) सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों के आधार पर संविधान के 42वें संशोधन के जरिये इसके 59 प्रावधानों को परिवर्तित कर दिया गया और इनको न्यायालय की समीक्षा के दायरे से बाहर रखा गया और

(12) गुजरात और तमिलनाडु की गैरकाँग्रेसी सरकारों को हटाकर राष्ट्रपति शासन लादा गया। यह अविश्वसनीय सच है कि ब्रिटिश राज से राष्ट्रीय आन्दोलन के जरिये स्वराज का अधिकार पाने वाले भारतीय लोग * अपनी ही चुनी हुई सरकार के हाथों अपनी आज़ादी लुटा बैठे थे।

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