— विनोद कोचर —
डॉ भीमराव आंबेडकर ने अपनी ऐतिहासिक महत्व की किताब, ‘जातिभेद का उच्छेद’ में प्रमाण सहित ये दावा किया है कि, “…इतिहास इस सिद्धांत का समर्थन करता है कि सामाजिक एवं धार्मिक क्रांतियों के बाद ही राजनीतिक क्रांतियां होती हैं।’ भारत में राजनीतिक क्रांति इसीलिए नहीं हो पा रही है क्योंकि सामाजिक और धार्मिक क्रांतियों के नाम पर अपने देश में पाखंड और आडंबरों का ही बोलबाला है।
स्वामी विवेकानंद ने पुरोहितवाद और मतछुओवाद को हिन्दू धर्म का कोढ़ मानते हुए, हिन्दूधर्म को इससे मुक्त करने की अपील की थी। लेकिन अपने आप को स्वामी विवेकानंद का अनुयायी मानने का दावा करने वाला आरएसएस और उसका राजनीतिक मुखौटा भाजपा, केंद्र और अनेक राज्यों में सत्तासीन होने के बाद, स्वामी विवेकानंद की इस धार्मिक/सामाजिक क्रांति की अवधारणा की छीछालेदर करते हुए, कर ये रहा है कि पुरोहितवाद पर ब्राह्मणों के साथ साथ अब दलितों को भी पुरोहित बनाने के लिए उन्हें पुरोहितकर्म के लिए प्रशिक्षित कर रहा है।
अर्थात पुरोहितवाद की बुराई को नष्ट करने की बजाय इस बुराई के रंग में दलितों को भी रंगा जा रहा है। अफसोस कि अब डॉ आंबेडकर के अनुयायी भी अपने प्रेरणास्रोत की क्रांतिकारिता को भूल चुके हैं। राजनीति में पक्ष और विपक्ष भी सत्तालोलुपता के मकड़जाल में फंसकर ,राजनीतिक क्रांति की राह के रोड़े बन चुके हैं।
बकौल दुष्यंत:-
इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और!
या इसमें करो रोशनी का इंतजाम और !