— परिचय दास —
मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ भारतीय समाज, संस्कृति और मूल्यों की गहरी समझ और संवेदनशीलता को व्यक्त करती हैं। उनके काव्य में परंपरा और आधुनिकता का सुंदर सामंजस्य दिखाई देता है। गुप्त जी की कविताएँ भारतीय चेतना, राष्ट्रीयता और मानवतावादी दृष्टिकोण का अद्वितीय उदाहरण हैं। उनकी भाषा सरल, प्रवाहमयी और मार्मिक होती है जो पाठकों के हृदय को स्पर्श करती है।
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म भारत के उस समय में हुआ था जब देश स्वतंत्रता संग्राम के तीव्र संघर्ष से गुजर रहा था। उनके काव्य ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान समाज को प्रेरित करने का काम किया। उनकी रचनाएँ सामाजिक असमानता, जाति भेद और नारी सशक्तिकरण जैसे मुद्दों को उठाती हैं। गुप्त जी की कविताओं में भारतीय नारी के विभिन्न रूपों का चित्रण उनकी संवेदनशीलता और गहन सामाजिक समझ को दर्शाता है। “साकेत” में उर्मिला का चरित्र, जो रामायण की मुख्य कथा से बाहर होते हुए भी उसकी आत्मा को समृद्ध करता है, इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।
गुप्त जी की कविताओं में मानवीय संवेदनाएँ और नैतिक मूल्य गहराई से प्रकट होते हैं। उनके काव्य में प्रकृति का सौंदर्य, धार्मिक भावना और सामाजिक समस्याओं का चित्रण विशिष्टता प्रदान करता है। “जयद्रथ वध”, “भारत-भारती” और “साकेत” जैसी रचनाएँ उनके काव्य कौशल और वैचारिक गहराई को प्रकट करती हैं। “भारत-भारती” ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समय में एक अमिट छाप छोड़ी। इस काव्य संग्रह में उन्होंने भारतीय संस्कृति, इतिहास और देशभक्ति के विचारों को स्वर दिया।
गुप्त जी की कविताओं में भाषा का विशेष महत्त्व है। उन्होंने ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में रचना की लेकिन खड़ी बोली को अपने काव्य का मुख्य माध्यम बनाया। उनकी भाषा सरल और भावनात्मक है जो आम जनमानस के दिलों तक पहुँचने में सक्षम है। उनकी काव्य शैली में छंदों की विविधता और विषयों की बहुआयामी प्रकृति देखने को मिलती है।
“साकेत” मैथिलीशरण गुप्त की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना मानी जाती है। इस महाकाव्य में रामायण की कथा को उर्मिला के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। यह कृति न केवल नारी चेतना का उद्बोधन करती है बल्कि समाज में नारी की भूमिका को भी नए सिरे से परिभाषित करती है। उर्मिला के माध्यम से गुप्त जी ने त्याग, धैर्य और कर्तव्य के आदर्शों को गहराई से उकेरा है।
मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ भारतीय समाज के लिए आदर्श प्रस्तुत करती हैं। उनकी कविताएँ मानवीय मूल्यों, धार्मिक सहिष्णुता, और सामाजिक समरसता की प्रेरणा देती हैं। उन्होंने भारतीय संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को अपने काव्य में समेटा और उन्हें साहित्य के माध्यम से अमर कर दिया। उनकी रचनाओं में भारतीय समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व मिलता है, जो उन्हें जनकवि की उपाधि दिलाता है।
गुप्त जी का काव्य एक ऐसा दर्पण है, जिसमें तत्कालीन समाज के संघर्ष, आशाएँ और आकांक्षाएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। उनकी कविताएँ केवल मनोरंजन का साधन नहीं हैं बल्कि एक मार्गदर्शक भी हैं जो पाठकों को जीवन के गहरे अर्थ और मूल्यों से परिचित कराती हैं। गुप्त जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय समाज में सुधार लाने का प्रयास किया। उनकी कविताएँ आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि वे समय और स्थान की सीमाओं से परे जाकर मानवीय मूल्यों की बात करती हैं।
मैथिलीशरण गुप्त ने अपने काव्य में भारतीय इतिहास और संस्कृति को सजीव किया। उन्होंने पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक घटनाओं को इस तरह प्रस्तुत किया जिससे पाठकों को अपनी जड़ों से जुड़ने की प्रेरणा मिलती है। उनकी कविताओं में भक्ति और अध्यात्म का समावेश भी देखने को मिलता है। गुप्त जी का यह गुण उन्हें हिंदी साहित्य के अन्य कवियों से अलग बनाता है।
गुप्त जी की कविताएँ समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की क्षमता रखती हैं। उनकी रचनाएँ व्यक्ति को स्वयं के भीतर झाँकने और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने की प्रेरणा देती हैं। उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से लोगों को यह समझाया कि सच्ची देशभक्ति केवल अपने देश के प्रति प्रेम तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें समाज के हर वर्ग के प्रति संवेदनशीलता और जिम्मेदारी भी शामिल है। मैथिलीशरण गुप्त की कविताएँ आज भी उसी प्रेरणा और उत्साह के साथ पढ़ी जाती हैं जैसा उनके समय में होता था।
मैथिलीशरण गुप्त का काव्य न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत प्रासंगिक है। उनकी कविताएँ हमें यह याद दिलाती हैं कि साहित्य केवल शब्दों का खेल नहीं है बल्कि यह समाज और मानवता के लिए एक महत्त्वपूर्ण साधन है। गुप्त जी की रचनाएँ आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा-स्रोत बनी रहेंगी।
मैथिलीशरण गुप्त को साहित्यिक दृष्टि से समझना और उनके काव्य और चिंतन का गहराई से अध्ययन करने से स्पष्ट है कि गुप्त जी हिंदी साहित्य के उस युग के कवि हैं जब भारतीय समाज विदेशी उपनिवेशवाद और स्वाधीनता संग्राम के बीच सांस्कृतिक पुनर्जागरण के एक बड़े दौर से गुजर रहा था। ऐसे समय में उनकी रचनाओं ने भारतीय संस्कृति, समाज और जीवन-मूल्यों को कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया।
मैथिलीशरण गुप्त की कविताएँ भारतीय संस्कृति और समाज के मूल्यों को पुनर्स्थापित करने का प्रयास करती हैं। उनके साहित्य को उनकी रचनात्मकता और समग्र दृष्टिकोण में देखना होगा। उनकी रचनाओं में भारतीयता और सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों का उत्कृष्ट समावेश मिलता है। यदि उनकी कविताओं में पौराणिक पात्र, घटनाएँ और प्रतीक दिखाई देते हैं तो इसे धर्म विशेष के दायरे में सीमित करना उचित नहीं है क्योंकि यह उनकी रचनाओं का केवल सतही आकलन है।
गुप्त जी की रचनाओं में “भारत-भारती” एक ऐसी कृति है जिसमें उन्होंने भारतीयता के गौरव को प्रस्तुत किया। यह रचना भारतीय इतिहास, संस्कृति और समाज को महिमा प्रदान करती है लेकिन यह केवल हिंदू समाज तक सीमित नहीं है। इसमें भारतीय समाज के सभी वर्गों, जातियों और पंथों का समावेश है। “भारत-भारती” का उद्देश्य भारतीयों में आत्मगौरव की भावना को पुनर्जीवित करना था जो औपनिवेशिक शासन के तहत कमजोर हो गई थी। इसे हिंदूवादी दृष्टिकोण से देखना उन विचारों को संकुचित करना होगा जो वास्तव में पूरे भारतीय समाज को प्रेरित करते हैं।
गुप्त जी ने “साकेत” में रामायण की कथा को उर्मिला के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। रामायण का चयन करना, एक पौराणिक कथा होने के कारण, हिंदू संवेदन से जोड़ा जा सकता है लेकिन गुप्त जी ने इस कथा को एक वैश्विक और मानवतावादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। उर्मिला का त्याग, धैर्य और नारीत्व का चित्रण केवल हिंदू समाज के लिए नहीं बल्कि समूची मानवता के लिए आदर्श है। गुप्त जी की रचनाओं में धर्म से अधिक मानवता का महत्त्व है और इसे हिंदूवाद कहना उनकी साहित्यिक उपलब्धियों को सीमित करना होगा।
यह भी महत्त्वपूर्ण है कि मैथिलीशरण गुप्त की कविताएँ केवल धार्मिक या सांस्कृतिक विचारों तक सीमित नहीं हैं। उनकी कविताएँ सामाजिक मुद्दों जैसे नारी अधिकार, जातिगत भेदभाव और मानवीय मूल्यों को गहराई से संबोधित करती हैं। गुप्त जी ने “नर हो, न निराश करो मन को” जैसी रचनाओं में मानवता और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रचार किया। यह दृष्टिकोण धर्म विशेष तक सीमित नहीं है बल्कि यह हर व्यक्ति के लिए प्रेरणादायक है।
मैथिलीशरण गुप्त ने भारतीय पौराणिक कथाओं और प्रतीकों का उपयोग अपनी कविताओं में किया परंतु यह समझना आवश्यक है कि उन्होंने इन प्रतीकों का उपयोग केवल धार्मिक उद्देश्यों से नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति और जीवन-मूल्यों को अभिव्यक्त करने के लिए किया। उनकी कविताएँ किसी धर्म का प्रचार नहीं करतीं बल्कि भारतीय सभ्यता की व्यापकता और उसके मानवीय मूल्यों को प्रस्तुत करती हैं।
उनकी कविता “यशोधरा” को देखें। इसमें गुप्त जी ने बुद्ध की पत्नी यशोधरा के माध्यम से करुणा, त्याग और कर्तव्य जैसे मानवीय गुणों को प्रस्तुत किया। यशोधरा जो बौद्ध धर्म से संबंधित पात्र हैं, के माध्यम से गुप्त जी ने यह दिखाया कि उनकी रुचि किसी धर्म विशेष तक सीमित नहीं है। उनके काव्य का उद्देश्य मानवीय संवेदनाओं और जीवन के व्यापक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करना था।
मैथिलीशरण गुप्त ने जिन पौराणिक पात्रों और कथाओं का उपयोग किया वे केवल धार्मिक प्रतीक नहीं हैं बल्कि वे भारतीय समाज और संस्कृति के जीवनमूल्यों का प्रतीक भी हैं। यदि गुप्त जी ने रामायण की कथा का उपयोग किया तो उन्होंने उसके माध्यम से मानव जीवन के आदर्शों को प्रस्तुत किया। उनकी कविताओं में राम, सीता और उर्मिला केवल धार्मिक पात्र नहीं बल्कि नैतिकता, त्याग और कर्तव्य के प्रतीक हैं।
गुप्त जी का उद्देश्य किसी धर्म का प्रचार करना नहीं था। उन्होंने अपनी कविताओं में भारतीयता और मानवता को केंद्र में रखा। उनकी रचनाएँ सांस्कृतिक पुनर्जागरण का हिस्सा थीं, जिनका उद्देश्य समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करना और लोगों को उनके सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ना था।
गुप्त जी की कविताओं को समझने के लिए यह भी आवश्यक है कि उनके समय और संदर्भ को ध्यान में रखा जाए। वे एक ऐसे समय में लिख रहे थे जब भारतीय समाज औपनिवेशिक शासन के कारण अपनी पहचान खो रहा था। उनकी कविताएँ उस पहचान को पुनर्जीवित करने का प्रयास थीं। उनका साहित्य किसी धर्म या पंथ तक सीमित नहीं है बल्कि यह पूरे समाज को प्रेरणा देने वाला है।
यह कहना भी उचित होगा कि मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ केवल भारतीय समाज तक सीमित नहीं हैं। उनकी कविताओं में मानवीय संवेदनाएँ और सार्वभौमिक मूल्य इतनी गहराई से समाहित हैं कि वे वैश्विक दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण हैं। उनकी कविताएँ यह दिखाती हैं कि साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं बल्कि समाज और मानवता के लिए सकारात्मक बदलाव लाना है।
मैथिलीशरण गुप्त के साहित्य का उद्देश्य मानवता, नैतिकता और भारतीय संस्कृति को समृद्ध करना था। उनकी कविताएँ धर्म विशेष का प्रचार नहीं करतीं बल्कि सभी धर्मों और संस्कृतियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। उनके साहित्य को व्यापक दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है ताकि उनके वास्तविक योगदान का सही आकलन किया जा सके।
मैथिलीशरण गुप्त हिंदी साहित्य के एक ऐसे स्तंभ हैं, जिन्होंने अपने लेखन से न केवल साहित्यिक मानकों को ऊँचाई दी, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का भी निर्माण किया। उनके साहित्य को पढ़ते समय उन पर लगाए गए नकारात्मक पक्षों का मूल्यांकन करना और उनका उत्तर देना आवश्यक हो जाता है। किसी भी महान लेखक पर समय-समय पर आलोचना होती है, और गुप्त जी इससे अछूते नहीं रहे। उनके साहित्य को लेकर कई नकारात्मक टिप्पणियाँ की गईं, जिनमें उनके “पारंपरिक” दृष्टिकोण, “हिंदूवादी” झुकाव, और “सामाजिक सीमाओं” को लेकर आलोचना शामिल हैं। लेकिन इन आलोचनाओं का गहराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे अधिकतर संदर्भ से हटकर या एकांगी दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप की गई हैं।
सबसे पहले, मैथिलीशरण गुप्त पर यह आरोप लगाया गया कि उनका साहित्य भारतीय समाज की “परंपरावादी” संरचनाओं को बनाए रखने का प्रयास करता है। यह आरोप मुख्यतः उनकी कृतियों, जैसे “साकेत” और “भारत-भारती”, के आधार पर लगाया जाता है। परंतु यह समझना आवश्यक है कि गुप्त जी के समय में भारत औपनिवेशिक शासन से जूझ रहा था, और उस दौर में परंपराओं की पुनःस्थापना भारतीय अस्मिता के निर्माण के लिए आवश्यक थी। गुप्त जी ने परंपराओं को स्थिर रूप में प्रस्तुत नहीं किया बल्कि उन्हें आधुनिक संदर्भों में पुनर्जीवित किया। “साकेत” में उर्मिला का चित्रण इसका उदाहरण है, जहाँ उन्होंने नारी के त्याग और धैर्य को आधुनिक संदर्भ में व्याख्यायित किया। यह कहना अनुचित होगा कि उनका साहित्य मात्र परंपरा का अनुकरण करता है; उनके साहित्य में परंपरा और आधुनिकता का सामंजस्य देखने को मिलता है।
दूसरा बड़ा आरोप है कि मैथिलीशरण गुप्त के साहित्य में “हिंदूवादी” दृष्टिकोण अधिक है और वे अन्य धर्मों या पंथों के प्रति निष्पक्ष नहीं हैं। इस आरोप का उत्तर उनकी कृति “यशोधरा” में मिलता है, जहाँ उन्होंने बुद्ध की पत्नी के माध्यम से करुणा, त्याग और कर्तव्य जैसे गुणों को प्रस्तुत किया। “यशोधरा” केवल बौद्ध धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करती, बल्कि एक सार्वभौमिक मानवीय अनुभव को व्यक्त करती है। इसी प्रकार, उनकी अन्य कृतियों में धार्मिक प्रतीकों का उपयोग किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देने के लिए नहीं बल्कि सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों को व्यक्त करने के लिए किया गया है।
यह भी कहा जाता है कि मैथिलीशरण गुप्त का साहित्य सामाजिक समस्याओं को गहराई से संबोधित नहीं करता। लेकिन यह आरोप भी संदर्भ से हटकर है। गुप्त जी का साहित्य सामाजिक सुधार और जागरूकता का एक सशक्त माध्यम है। उनकी रचनाएँ जातिगत भेदभाव, नारी-असमानता और मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के प्रति समर्पित हैं। “नर हो, न निराश करो मन को” जैसी कविताएँ केवल प्रेरक नहीं हैं बल्कि जीवन में आने वाली समस्याओं से जूझने की शक्ति भी प्रदान करती हैं। उनका साहित्य जीवन के व्यापक अनुभवों को समेटता है, और समाज की समस्याओं को उनके मूल में जाकर संबोधित करता है।
उन पर यह भी आरोप लगाया गया कि उनकी भाषा शैली “सरल” है और उसमें काव्य की गहनता की कमी है। यह आलोचना उनकी रचनाओं के वास्तविक उद्देश्य को न समझने के कारण उत्पन्न हुई है। गुप्त जी की भाषा सरल और प्रवाहमयी है, क्योंकि उनका उद्देश्य साहित्य को केवल विद्वानों तक सीमित रखना नहीं था। वे जनकवि थे, और उनकी भाषा ऐसी थी, जिसे हर वर्ग और हर व्यक्ति समझ सके। उनकी भाषा में भावनात्मक गहराई और अभिव्यक्ति की तीव्रता है, जो साधारण पाठक को भी छू जाती है।
मैथिली शरण गुप्त पर यह आरोप भी लगाया गया कि उनकी कविताएँ भारतीय संस्कृति को “आदर्श” रूप में प्रस्तुत करती हैं और वास्तविक समस्याओं को अनदेखा करती हैं। यह आरोप उनकी रचनाओं की गहन समझ की कमी को दर्शाता है। उनकी कविताएँ आदर्श और यथार्थ के बीच संतुलन बनाकर चलती हैं। “साकेत” में उर्मिला के माध्यम से नारी की वास्तविक स्थिति और उसकी आंतरिक पीड़ा को उजागर किया गया है। उन्होंने आदर्श प्रस्तुत किए लेकिन उन्हें यथार्थ से काटकर नहीं रखा।
उनकी आलोचना करने वालों को यह भी समझना होगा कि मैथिलीशरण गुप्त का साहित्य उनके समय और समाज का प्रतिबिंब है। वे उस युग के कवि थे, जब भारतीय समाज सांस्कृतिक पुनर्जागरण के दौर से गुजर रहा था। उनका साहित्य उस समय की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को व्यक्त करता है। यदि उनके साहित्य में पौराणिक पात्र और कथाएँ हैं तो उनका उद्देश्य धर्म विशेष का प्रचार करना नहीं बल्कि सांस्कृतिक चेतना को जागृत करना था।
मैथिलीशरण गुप्त के साहित्य को उनकी समग्र दृष्टि और योगदान के साथ देखना आवश्यक है। उन पर लगाए गए नकारात्मक पक्ष अधिकतर उनके साहित्य के संकुचित या पूर्वाग्रही आकलन के परिणाम हैं। उनके साहित्य को केवल आलोचना की दृष्टि से नहीं बल्कि उसकी समग्रता में समझने की आवश्यकता है। उनका साहित्य केवल मनोरंजन नहीं बल्कि प्रेरणा, जागरूकता और सामाजिक सुधार का माध्यम है।
मैथिली शरण गुप्त पर लगाए गए नकारात्मक आरोपों को विस्तार से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके साहित्य का गहन अध्ययन किए बिना आलोचना करना एकतरफा दृष्टिकोण को दर्शाता है। गुप्त जी की कविताएँ भारतीय समाज, संस्कृति और मानवता के लिए एक अमूल्य धरोहर हैं। उनके साहित्यिक दृष्टिकोण, भाषा शैली और विषय-वस्तु को गहराई से समझना उनकी आलोचना का उत्तर देने का सबसे सशक्त माध्यम है।
गुप्त जी के बारे में कहा गया कि उनकी कविताएँ भारतीय समाज की परंपराओं को आदर्शीकृत करती हैं और प्रगतिशील विचारों को पर्याप्त स्थान नहीं देतीं। इस आरोप के संदर्भ में यह ध्यान देना आवश्यक है कि वे ऐसे युग के कवि थे, जब भारतीय समाज अपनी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान की खोज कर रहा था। उस समय औपनिवेशिक शासन ने भारतीय परंपराओं और मूल्यों को हाशिये पर डाल दिया था। गुप्त जी ने अपनी कविताओं में इन परंपराओं को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया, लेकिन उन्होंने इन परंपराओं को स्थिर और अपरिवर्तनीय नहीं माना। उदाहरणस्वरूप, “साकेत” में उर्मिला का चित्रण भारतीय नारी के आदर्श और यथार्थ का सजीव समन्वय प्रस्तुत करता है। उन्होंने उर्मिला के माध्यम से त्याग और धैर्य को glorify किया, लेकिन साथ ही नारी के आंतरिक संघर्ष को भी व्यक्त किया। यह केवल परंपराओं का अनुसरण नहीं बल्कि उनके पुनरवलोकन का प्रयास था।
कुछ लोगों ने कहा कि मैथिलीशरण गुप्त के साहित्य में हिंदू प्रतीकों और कथाओं का अधिक उपयोग किया गया है, जिससे उन्हें “हिंदूवादी कवि” कहा जाता है। इस दृष्टिकोण में यह बात अनदेखी रह जाती है कि गुप्त जी के साहित्य में भारतीय संस्कृति के प्रति गहरा लगाव था, जो केवल हिंदू धर्म तक सीमित नहीं है। उनकी कृति “यशोधरा” में उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रतीकों का उपयोग किया, जिसमें यशोधरा के त्याग और करुणा के माध्यम से मानवीय मूल्यों का चित्रण किया गया। इसी प्रकार, “साकेत” और “भारत-भारती” में उपयोग किए गए प्रतीकों को केवल धार्मिक दृष्टि से देखना उनके साहित्य की गहराई और सार्वभौमिकता को कम आंकना है। उनका उद्देश्य किसी धर्म का प्रचार करना नहीं था, बल्कि भारतीय जीवन-दृष्टि की व्यापकता को प्रस्तुत करना था।
उनकी कृतियों में नारीवादी दृष्टिकोण का भी उल्लेखनीय स्थान है। उन पर आरोप लगाया गया कि वे नारी को केवल त्याग और सेवा के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह आलोचना उनकी रचनाओं के सतही अध्ययन का परिणाम है। “साकेत” में उर्मिला का चित्रण नारी के त्याग और धैर्य के साथ-साथ उसकी आंतरिक पीड़ा और संघर्ष को भी उजागर करता है। यह नारी के प्रति गुप्त जी की संवेदनशीलता और गहन समझ का परिचायक है। उनके साहित्य में नारी केवल आदर्श का प्रतीक नहीं है, बल्कि समाज में उसके यथार्थ और योगदान का भी चित्रण किया गया है।
गुप्त जी की भाषा- शैली को लेकर आलोचना की गई कि उनकी भाषा “सरल” है और उसमें काव्य की गहराई की कमी है। यह आलोचना इस तथ्य को अनदेखा करती है कि गुप्त जी का उद्देश्य साहित्य को केवल विद्वानों तक सीमित रखना नहीं था। उनकी भाषा सरल और प्रवाहमयी थी, ताकि उनका साहित्य हर वर्ग और हर व्यक्ति तक पहुँच सके। उनकी कविताओं की भावनात्मक गहराई और उनकी अभिव्यक्ति की तीव्रता उन्हें जनकवि बनाती है। उदाहरणस्वरूप, “नर हो, न निराश करो मन को” जैसी कविताएँ आज भी हर व्यक्ति के जीवन में प्रेरणा का स्रोत हैं। यह उनकी भाषा की ताकत है, जो सरल होते हुए भी गहरे प्रभाव छोड़ती है।
मैथिलीशरण गुप्त के साहित्य पर यह भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने भारतीय समाज की समस्याओं को पर्याप्त गहराई से नहीं छुआ। यह आरोप उनकी रचनाओं की व्यापकता और विविधता को नकारने जैसा है। उनके साहित्य में जातिगत भेदभाव, नारी असमानता, और मानवीय मूल्यों जैसे विषय प्रमुखता से उभरते हैं। “भारत-भारती” में उन्होंने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों और उनकी समस्याओं को उठाया है। उनकी कविताएँ केवल मनोरंजन नहीं करतीं, बल्कि समाज को जागरूक और प्रेरित भी करती हैं।
यह भी कहा जाता है कि गुप्त जी के साहित्य में आदर्शवाद अधिक है और यथार्थवाद का अभाव है। इस आलोचना का उत्तर उनकी रचनाओं के गहरे अध्ययन में मिलता है। उनके साहित्य में आदर्श और यथार्थ का संतुलन है। “साकेत” में उर्मिला का चरित्र आदर्शवाद का प्रतीक हो सकता है, लेकिन उसकी पीड़ा और संघर्ष पूरी तरह से यथार्थवादी हैं। गुप्त जी का आदर्शवाद समाज को प्रेरणा देने के लिए है, न कि वास्तविकता को नकारने के लिए।
गुप्त जी के साहित्य को उनके समय और संदर्भ में देखना आवश्यक है। वे उस युग के कवि थे, जब भारत स्वतंत्रता संग्राम और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के दौर से गुजर रहा था। उनका साहित्य उस समय की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को व्यक्त करता है। उन्होंने भारतीय संस्कृति, समाज और मानवीय मूल्यों को अपनी कविताओं के माध्यम से पुनर्स्थापित किया। उनकी कविताएँ धर्म विशेष या विचारधारा तक सीमित नहीं हैं बल्कि वे पूरे समाज और मानवता के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
मैथिलीशरण गुप्त पर लगाए गए नकारात्मक पक्ष उनके साहित्य को संकुचित दृष्टिकोण से देखने का परिणाम हैं। उनके साहित्य का उद्देश्य किसी विचारधारा का प्रचार करना नहीं था बल्कि भारतीय संस्कृति और मानवता को समृद्ध करना था। उनकी कविताएँ आज के समाज और साहित्य को प्रेरित करती हैं। उनका साहित्य भारतीयता, मानवीय संवेदनाओं और जीवन के आदर्शों का जीवंत प्रमाण है। उनकी आलोचना का उत्तर उनके साहित्य की गहराई और समग्रता में मिलता है। गुप्त जी का साहित्य केवल उनके युग का नहीं बल्कि हर युग के लिए प्रासंगिक है।