सत्ता भ्रष्ट करती है , सम्पूर्ण सत्ता सम्पूर्णतया भ्रष्ट कर देती है

0

ramashankar Singh

— रमाशंकर सिंह —

त्ता भ्रष्ट करती है , सम्पूर्ण सत्ता सम्पूर्णतया भ्रष्ट कर देती है – एक पुरानी कहावत है पर है एकदम सच्ची ।
एक और बात गाँठ बाँधने लायक है कि सत्ता का चरित्र अधिकांशतः एक जैसा होने लगता है चाहे शुरु में कोई भी कितना ही फूं फॉं करे ! अलग से होने का वादा करे। चाहे कोई किसी भी आंदोलन या बलिदानी संघर्ष से निकला हो

जिन्हें अलग अलग नामों रंगों झंडो की सत्ता की वास्तविकता का बिलकुल ही भान नहीं है वे नये नये मुल्ले बन कर प्याज कुछ ज्यादा ही खाते हैं या फिर वित्तपोषित होकर अपने घर का खर्च चलाते हैं। कई सीधे सीधे नौकरियाँ भी ज्वाइन कर लेते हैं। कई कथित निष्पक्ष तीसमारखॉं पत्रकार अचानक पार्टियों के प्रवक्ता कैसे बन जाते हैं ? कुछ दिन निष्पक्ष का ढोंग और फिर पक्षपात की विष्ठा में सनते जाते हैं।

बात सत्ता के दूषित चरित्र की हो रही है तो अपने पहले प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री से आज तक के सब का हालचाल ले लीजिये। महात्मा गांधी के प्रभाव में कुछ बरस तक लोकलाज रही और धीरे-धीरे अगले सत्रह बरस तक नेहरू जी आर्थिक रूप से बेहद ईमानदार बने रहे पर राष्ट्र, संविधान , लोकतंत्र , चीन सीमा , आर्थिक विषयों के मौलिक मुद्दों पर समझौतों की शुरुआत हो चुकी थी , वे क्या मुद्दे थे उस पर अच्छा खासा संवाद हो सकता है । फिर भी अब तक प्रधानमंत्रियों में नेहरू करीब करीब निष्कलंक रहे पर विवादरहित नहीं और ग़लतियों से भी दूर नहीं। चुनाव आयोग की पूरी स्वतंत्रता का मामला संविधान में आया था लेकिन अम्बेडकर पटेल और नेहरू की मजबूत लॉबी ने निरस्त करवा दिया था तब से सरकारें ही चुनाव आयोग गठित करती रहीं हैं और मनपसंद आयुक्त लाती रहीं हैं , यह लोकतंत्र के बरखिलाफ कदम था । नेहरू जी द्वारा सत्ता में आने पर पहले संविधान संशोधन का जो प्रस्ताव उन्होनें लाना चाहा उस पर कड़ा विरोध हुआ और समय युग के अनुसार नेहरू को वह वापिस लेना पड़ा। वह प्रस्तावित संशोधन ही बताता है कि अखंड निष्कंटक राज करने की इच्छा जाग्रत होना सत्ता का एक विशेष चरित्र है। मीडिया कोअपने पक्ष में रखना किसी भी जुगत से होता रहा है । नेहरू जी के समय में भी गोदी मीडिया थी और विपक्ष के सबसे बडे नेता को पागल तक घोषित कर देती रही थी । यही सिलसिला अलग अलग तरीकों से आगे भी चलता रहा!

इंदिरा जी ने पार्टी और सरकार दोनों पर नियंत्रण बनाते हुये विरोधियों बल्कि असहमतों को बाहर का रास्ता दिखाया और एक नौबत ऐसी आई कि प्रतिपक्ष को शत्रु ही समझ कर उनके विरुद्ध मीसा रासुका डीआईआर जैसे कानून लगाने शुरु किये। इसी का फायदा उठाकर भ्रष्ट लोग पार्टी व सरकार में घुस बैठे , प्रशासन भ्रष्ट बेलगाम होने लगा। आवश्यकतानुसार जहॉं तहॉं मुसलमानों का दमन और तुष्टिकरण दोनों ही इस तरह चले कि पहली बार यह स्थापित हुआ कि साम्प्रदायिकता का तड़का सरकार मजबूत करता है । सरकार को बचाना एकमात्र लक्ष्य हो गया और सत्ता का चरित्र और पतनशील होता गया। चुनावों में पैसे शराब साडी कम्बल का इस्तेमाल शुरु हुआ और साधनहीन विपक्ष बुरी तरह परास्त किया गया। अंत में विपक्ष को १९ माह की जेल और मानवाधिकारों का हनन भी एक काले अध्याय के रूप में स्थापित हुआ लेकिन सत्ता में वापिस लौटने के पहले माफ़ी माँगी ग़लतियाँ सुधारीं गईं और अंतिम चार साल देश की सुरक्षा और लोकतंत्र की महत्ता को स्थापित करने में सार्थक रूप से गया। आपातकाल का सच क्या है यह फिर कभी , आज चर्चा सिर्फ सत्ता के समान चरित्र की।

राजीव गांधी अभूतपूर्व अखंड राज लेकर आये लेकिन न विपक्ष इस लायक़ बचा था कि कोई कारगर विरोध कर सके और न ही राजीव गांधी का निजी चरित्र अहंकारी शासक का था। पर उनकी एक गलती को इतना ऐसा पेश किया गया बड़ी उम्मीद से बनाये प्रधानमंत्री ने आम जनता के दुखदर्द को बाँटने का ऐतिहासिक मौक़ा गँवाया कि वे बदनाम होकर हटे। कश्मीर में उनकी ऐतिहासिक गलती और कश्मीर घाटी को हिंदू साम्प्रदायिकता को भविष्य की देशज राजनीति में मजबूत करने का सुबूत भी दे गया । कश्मीर शेष भारत के लिये एक चुनावी गोटी तभी से बनी

बीच के कई प्रधानमंत्री कोई चार महीने से डेढ़ दो साल के लिये आये पर देश उनके किसी खास काम से वंचित ही रहा , छुटपुट अच्छे काम हुये पर कोई खास प्रभाव नहीं ! लेकिन भ्रष्टाचार साम्प्रदायिकता और बेलगाम पुलिस प्रशासन लगातार दिन दूना रात चौगुना बढ़ता गया।

अटलबिहारी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह तीन प्रधानमंत्री ऐसे हुये कि उनका ध्यान कभी प्रशासनिक बीमारियों की ओर नहीं गया नतीजतन प्रशासन शासन दलाल पूँजीपति आदि इनका गठबंधन बढ़ता ही चला गया।

अब तक इन २०-२२ बरसों में सत्ता के चरित्र को स्थायित्व मिल चुका था और वह किसी भी संवैधानिकशक्ति से ऊपर हो चुकी थी। नेता मंत्री इस ताकत के नीचे आ गये और भ्रष्टाचार सर्वशक्तिमान होकर सबके सिर पर नाचने लगा था। अफ़सर ठेकेदार मिलकर नेता मंत्री को बनवाते हटवाते जिताते हराते सब थे। अरबों रूपया चलने लगा और अब पार्टी शीर्ष नेतृत्व का इस सबमें शामिल होना २०१४ में हुआ जिसके बाद सब कुछ सीमाओं को तोडता हुआ अकल्पनीय हो गया। अब लाखों करोड की बाते हैं राज्यों में हर निर्माण में ४०-५०% कमीशन है जो नीचे से ऊपर तक बंटता है यानी कुल निर्माण रा़शि के आधे से राजनीति संचालित होती है . प्रशासन का पेट कभी भरता नहीं

सत्ता का चरित्र राज्यों में केंद्र में हर पार्टी में एक जैसा हो रहा है। बड़ा पैसा कमाना , वही पैसा चुनाव में खर्च कर चुनाव जीतना और फिर वही दुष्चक्र बार बार । मंदिर मस्जिद गो गंगा क़ुरान चर्च खालिस्तान पाकिस्तान जाति अब समीकरणों को झुकाने के लिये इस्तेमाल होते हैं कि अब भी मतों का अंतर बड़ा भारी नहीं बना है जैसा कि मप्र गुजरात में हो रहा लगता है।

भविष्य में सत्ता का चरित्र रंच मात्र भी फर्क नहीं होता दिखता कि जीतने का फ़ार्मूला तो वही है।

इसलिये निशिकांत का सुको पर बयान चिंता करता है तो इंदिरा गांधी का वह बयान कि कोर्ट को क्या पता कि जनता के लिये हमें क्या करना है और कि अदालतें हमारे काम काज से दूर रहें पर आप चुप क्यों रहे थे ?
हम तो नहीं रहे थे ?
आज भी नहीं है!

चिंता समाज और देश की करनी है दलों की नहीं नेताओं की नहीं।

Leave a Comment