कश्मीर के पहलगाम में हुई हिंसा पर रॉबर्ट वढेरा का बयान, असंवेदनशील बयान है

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Parichay Das

— परिचय दास —

किसी भी देश की सामाजिक और राजनीतिक चेतना की परिपक्वता का परिचय उसके नागरिक, बुद्धिजीवी और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय व्यक्तित्व तब देते हैं जब वे कठिन समय में संयम और विवेक से काम लेते हैं। यह परिपक्वता तब और ज़रूरी हो जाती है जब देश किसी भी प्रकार की आतंकी त्रासदी से गुजर रहा हो। जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में 22 अप्रैल , 2025 में हुआ हमला इसी प्रकार की एक हृदयविदारक घटना थी, जिसमें सैलानियों को निशाना बनाया गया और एक बार फिर आतंक ने निर्दोष मानव जीवन को लहूलुहान किया लेकिन इस दुर्भाग्यपूर्ण हमले के कुछ ही घंटों के भीतर जिस प्रकार से राजनीतिक बयानों की बाढ़ आई, वह केवल असंवेदनशीलता का परिचायक नहीं है बल्कि एक गहरी वैचारिक चूक और नैतिक भ्रम की ओर संकेत करता है।

रॉबर्ट वढेरा का बयान – “हम औरंगजेब की बात करते हैं लेकिन आज के हालात भी कुछ अलग नहीं हैं” और “मुस्लिम अल्पसंख्यक भारत में हाशिए पर हैं,” न केवल आतंकवाद की भयावहता को गौण करता है बल्कि शहीदों और पीड़ितों के प्रति करुणा और सहानुभूति की अपेक्षित संवेदना से भी विमुख है। यह बयान इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि यह आतंक के पीछे के विचारधारा-विहीन यथार्थ को धार्मिक और सांप्रदायिक चश्मे से देखने की भूल करता है, जो सीधे-सीधे भारत के बहुलतावादी लोकतंत्र और आतंकवाद-विरोधी दृढ़ इच्छाशक्ति को कमजोर करता है।

वढेरा का बयान उस ऐतिहासिक नासमझी का शिकार है, जिसमें मुग़ल काल और आधुनिक भारत की तुलना की जाती है। यह तुलना न केवल भ्रामक है बल्कि खतरनाक भी, क्योंकि यह वर्तमान लोकतांत्रिक और संवैधानिक भारत को एक मध्यकालीन साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था के समकक्ष रख देती है। औरंगजेब का उदाहरण देना इस बात की अनदेखी करता है कि आज का भारत उस साम्प्रदायिक वर्चस्व के सिद्धांत पर नहीं बल्कि संविधान के ‘न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता’ के चार आधारों पर खड़ा है। अगर आज के भारत में कोई नागरिक हाशिए पर है तो वह केवल अपने समुदाय की वजह से नहीं बल्कि व्यापक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थाओं की जटिलताओं के कारण है। जाति, वर्ग, लिंग, क्षेत्र और शिक्षा – इन सभी कारणों से लोग प्रभावित होते हैं और इन सभी का समाधान लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही निकलता है, न कि आतंकी हमलों के संदर्भ में दिए गए राजनीतिक बयानों से।

वढेरा का यह बयान कि “मुस्लिम समुदाय को हाशिए पर धकेला गया है,” अपने आप में एक सतही सत्य है, लेकिन जिस प्रकार से यह बयान आतंकी हमले की प्रतिक्रिया में दिया गया, वह उस सत्य को संदर्भविहीन और खंडित बना देता है। मुस्लिम समुदाय को सामाजिक-आर्थिक विकास के हर पैमाने पर बराबरी दिलाने का सवाल एक गहरे सामाजिक विमर्श का विषय है, न कि किसी आतंकी घटना की प्रतिक्रिया में किया गया राजनैतिक वक्तव्य। यह एक नियोजित नीति, एक लोकतांत्रिक कार्यक्रम और एक संवैधानिक संघर्ष की माँग करता है – जबकि आतंकवाद इन सभी के विपरीत खड़ा है।

आतंकवादी चाहते हैं कि ‘हम बनाम उन्हें’ के नैरेटिव को बल दिया जाय। यह नैरेटिव ही वह वैचारिक जमीन है जिस पर लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, आईएसआईएस और अल-कायदा जैसे संगठनों की विषबेल पनपती है। वे यही चाहते हैं कि विश्व के लोकतांत्रिक समाजों में रहने वाले मुसलमान खुद को अलग-थलग, असुरक्षित और पीड़ित महसूस करें – और तब वे आतंकवादियों के नैरेटिव के प्रति संवेदनशील बनें। ऐसे में वढेरा का बयान जाने-अनजाने उसी नैरेटिव को पुष्ट करता है, जबकि होना यह चाहिए था कि वे स्पष्ट रूप से आतंकवाद की निंदा करते और मुस्लिम समुदाय से उन्हें आतंकवादियों से अपने को अलग रखने का साहसिक संदेश देते।

भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय न केवल एक बहुपरिवेशीय और बहुपरतात्मक समुदाय है बल्कि उसकी राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना भी बहुत विविध है। रसखान, रहीम, जायसी , अद्दहमाण, मौलाना आज़ाद से लेकर ए.आर. रहमान और डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम तक, भारत में मुस्लिम समुदाय की सांस्कृतिक उपस्थिति किसी भी अन्य समुदाय से कम नहीं रही है। वहीं, अज़ीम प्रेमजी जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने बार-बार यह दिखाया है कि मुस्लिम समुदाय भारत की सामाजिक चेतना में एक सकारात्मक रचनात्मक शक्ति है – आतंकवाद नहीं।

वाड्रा का बयान यह भी अनदेखा करता है कि भारत में आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई एक ऐसी हिंसक विचारधारा के विरुद्ध है जो लोकतांत्रिक समाज के मूल्यों को मिटाने पर तुली है।

यह भी विचारणीय है कि क्या रॉबर्ट वढेरा का बयान ‘विक्टिम कार्ड’ के उस राजनैतिक खेल का हिस्सा है जो पिछले कुछ दशकों से भारत में चलाया जा रहा है – जिसमें किसी भी असुविधाजनक सत्य को धार्मिक उत्पीड़न का रूप देकर विमर्श से बाहर कर दिया जाता है। आतंकवाद को यदि हम ‘प्रतिक्रिया’ कहकर देखना शुरू करें, तो हम उसके हर हमले के लिए बहाने खोजने लगेंगे – और यह एक ऐसा नैतिक पतन है जिसकी कोई सीमा नहीं होगी। कोई यह कह सकता है कि गरीबी ने उसे हथियार उठाने को विवश किया; कोई कहेगा कि वह अपने धर्म की रक्षा कर रहा था; कोई कहेगा कि वह राज्य की दमनकारी नीति से तंग आ गया था। पर इस सबसे बड़ा प्रश्न यह होगा कि क्या हिंसा, हत्या और भय के बल पर किसी विचारधारा को उचित ठहराया जा सकता है? नहीं – कभी नहीं।

भारत की राजनीति को अब इस ‘बयानबाज़ी के आतंक’ से मुक्त होना होगा, जहाँ आतंकवाद जैसे विषय को भी राजनीतिक लाभ और जनसंवेदना की तात्कालिकता के लिए प्रयुक्त किया जाता है। ऐसे हर बयान का खंडन होना चाहिए – संयमपूर्वक, विवेकपूर्वक और तथ्यों के आधार पर। मुस्लिम समुदाय को न्याय चाहिए, बराबरी चाहिए, अवसर चाहिए – और इन सबका रास्ता आतंकवाद या उसका सहानुभूति-आधारित विश्लेषण नहीं है। वह रास्ता संविधान, लोकतंत्र और सामाजिक समरसता से होकर निकलता है।

हमारे भारत, हमारे लोकतंत्र और हमारे समाज में दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजकल इन सबसे बड़ा होता जा रहा है कोई भी नकारात्मक राजनीतिक वक्तव्य। हमें चाहिए कि हम हर प्रकार की हिंसा और आतंक के विरुद्ध एकजुट खड़े हों – न कि उसे संदर्भ देकर भ्रामक बनाने वालों के पक्ष में खड़े हों। आतंकवाद का खंडन कीजिए – पूरे स्वर से, पूरे मन से, बिना किन्तु-परंतु के। यही हमारे देश की सच्ची सेवा है।

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  1. परिचय दास जी, आपकी बात मानते हैं कि “आतंकवाद का खंडन कीजिए – पूरे स्वर से, पूरे मन से, बिना किन्तु-परंतु के। यही हमारे देश की सच्ची सेवा है।”
    किन्तु-परन्तु जो सैलानी उस नृशंस हमले में बच पाए हैं उनका कहना है कि वहां सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी! क्या ऐसे सवालों को देश की कुसेवा मानना होगा?

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