— रमाशंकर सिंह —
केंद्र सरकार द्वारा जातीय जनगणना के फ़ैसले का मैं हार्दिक स्वागत करता हूँ लेकिन आबादी के अनुपात में पिछड़ों वंचितों दलितों और इन सभी समाजों की स्त्रियों को राजकाज, अध्यापन व सेवाक्षेत्र में समानुपातिक विशेष अवसर की लड़ाई शेष है। यह मुद्दा सबसे पहले १९५४ में डा० राममनोहर लोहिया ने राजनीतिक विमर्श में प्रासंगिक किया था और अपनी सोशलिस्ट पार्टी की नीति का विशेष अंग बनाया था। उस समय कांग्रेस , जनसंघ (आज की भाजपा का पुराना रूप) और कम्युनिस्टों ने इस नीति का विरोध किया । डा० लोहिया ने नारा दिया था ‘सोशलिस्टों ने बांधी गॉंठ – पिछडे पावें सौ में साठ ‘! इसी नीति पर चलते हुये भारत में पिछडे वर्ग के नेताओ का उदय हुआ और धीरे धीरे कई आयोगों की रिपोर्ट बीच में आई कई सरकारों को माननी पडीं थीं
विशेष तौर पर बिहार और उप्र के समाजवादी इस नीति पर डटे रहे और राजनीति की मुख्यधारा में दलितों के साथ पिछडों का अभ्युदय भी हुआ लेकिन कांग्रेस भाजपा और कम्युनिस्ट लगातार इस बिंदु पर प्रतिगामी सोच अपनाते रहे ।
क्या भारत जैसे घनघोर सामंती और जातीय दंश से पीडित समाज में यह संभव था कि सबसे अल्प संख्या की गरीब जाति नाई में से एक मुख्यमंत्री हो जाये जिसे अंततः भारत रत्न घोषित करना पडे । ब्राह्मणों क्षत्रियों और वैश्यों की कुल प्रक्षेपित आबादी मात्र १२ % हो सभी मौकों की जगहों पर ये बारह फीसदी ही काबिज रहें । एक पशुपालक जाति का सीमांत किसान यूपी और बिहार का प्रशासक बन जाये यह कैसे बरदाश्त हो सकता है ?मजबूरी में चमडे का काम करने वाले अछूत जाति के लोग मुख्यमंत्री बनें यह सवर्णों के लिये असहनीय है । कोई आदिवासी महिला राष्ट्रपति बन जाये यह सब उसी राष्ट्र में अब मुमकिन है जिसे गांधी अम्बेडकर लोहिया ने अपने विचारों ले सिंचित किया है
बिहार में तीन बरस पहले समाजवादी दलों राजद और जदयू के कारण जातीय जनगणना विधानसभा के संकल्प और मंत्रिमंडल के फैसवे के रूप में विधिवत शुरु हुई जिस पर भाजपा को मजबूरन साथ देना पडा । पिछले दो बरसों से राहुल गांधी भी कांग्रेस पार्टी के बीच इस मुद्दे को उठाने के लिये आदादी के 76 साल बाद विवश हुये जबकि पूरी पार्टी का वर्ग वर्ण चरित्र अभी भी उच्च जातियों के नेतृत्व व प्रभाव की बना हुआ है । यह मुद्दा आगामी राजनीति का निर्णायक विषय बनता इसरे पहले ही मोदी सरकार ने जातीय जनगणना का फैसला कर पहल और श्रेय अपने हाथों में ले लिया है । संघ , भाजपा , कांग्रेस, कम्युनिस्ट मुख्य रूप से आज भी उच्च वर्गीय सवर्ण पार्टियॉं जो इस फैसले को आगे के तार्किक परिणामों तक ले जाने में हिचकेंगी और कोशिश करेंगी कि पिछडों को जीवन के हर क्षेत्र में समानुपातिक अवसर न मिल सकें ।
आजादी के 78 साल बाद यह विषय अब जीवंत होना सिद्ध करता है कि एक न एक दिन सामाजिक न्याय की ताक़तें मजबूत होंगीं ही।
भारत में दो राजनेता ही हुये जिन्होंने गरीब गुरबा मजलूमों मुफलिसों को उठाने के लिये अपना जीवन होम दिया – डाक्टर अम्बेडकर और डॉक्टर राममनोहर लोहिया। आज उनकी विचारधारा को एक छोटी पर बहुत महत्व की जीत हासिल हुई है।
डा० अम्बेडकर – अमर रहें
डा० लोहिया – अमर रहें
यानी उनके विचार ज़िंदा रहें !
लडाई अब शुरु होनी चाहिये और पूरा प्रयास यह हो कि अगले एक दो बरस में ही संसद से संविधान संशोधन होकर क़ानून बने और महिलाओं समेत सभी पिछड़े वर्गों को पढ़ाई , प्रशासन , राजनीति में हजारों बरसों से वंचित न्याय मिल सके ! मनुस्मृति मनुवाद पराजित हो रहा है। संविधान लोकतंत्र पंथनिरपेक्षता करुणा व समाजवाद जीतेगा।
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