— हिमांशु जोशी —
संवेदना, संघर्ष और पहचान की तलाश से बुनी कहानियाँ
आज जब साहित्य में शहरी जीवन, जटिल संबंध और सामाजिक विडंबनाएँ केंद्रीय विषय बनते जा रहे हैं, तब ‘रोटी के चार हर्फ़’ कहानी-संग्रह एक नई ताजगी और ज़मीन से जुड़ा अनुभव लेकर आता है। इसमें न केवल व्यक्तिगत और सामाजिक संघर्ष हैं, बल्कि वे कहानियाँ भी हैं जो अक्सर कहे बिना ही रह जाती हैं। लेखक ने उन दृश्यों, आवाज़ों और भावनाओं को शब्दों में बांधा है, जो आमतौर पर साहित्य की सतह पर दिखाई नहीं देते।
भाषा और क्षेत्रीय यथार्थ का जीवंत मेल
किताब की कहानियाँ मुख्यतः उत्तर भारत की पृष्ठभूमि से जुड़ी हैं और लेखक ने उसके अनुरूप भाषा, लोकेशन और सांस्कृतिक संदर्भों को बहुत सटीकता से पिरोया है। कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन में कपड़े बदलने जैसी साधारण सी घटना हो या केरल में प्रवासी मजदूरों को बंगाल से जोड़ने की सामाजिक दृष्टि, ये सारे प्रसंग पाठकों को क्षेत्रीय यथार्थ का जीवंत अनुभव कराते हैं। लेखक की भाषा में न केवल स्थानीयता है, बल्कि एक सहज प्रवाह भी है, जो हर दृश्य को पाठक के सामने ला खड़ा करता है।
आम पाठक से सीधा संवाद
इस संग्रह की सबसे बड़ी खूबी है इसका भावनात्मक और अनुभवात्मक जुड़ाव। प्रेम संबंधों की उलझनें, शहरों में अकेलेपन की अनुभूति, नौकरी की अनिश्चितता और परिवार से दूरी जैसे विषयों को लेखक ने बिना किसी अलंकरण के, बिल्कुल ज्यों का त्यों रख दिया है। कहानियाँ पढ़ते हुए पाठक खुद को उनमें देखता है, कभी किसी बेटे के रूप में, जो घर नहीं लौट पाता, कभी किसी प्रेमी के रूप में, जो रिश्तों की उलझनों से थक गया है।
मज़दूर वर्ग और श्रम की अनसुनी आवाज़ें
संग्रह का एक बड़ा भाग उन आवाज़ों को समर्पित है जो साहित्य में कम सुनाई देती हैं। मेहनतकश, अनाम चेहरे, जिनकी ज़िंदगियाँ शहर के किनारों पर टिकती हैं, यहाँ पूरी गरिमा और पीड़ा के साथ दर्ज हैं। ‘प्लास्टिक तह करके कैरियर में दबाने’ या ‘बस की फर्श पर आलू की सब्ज़ी का गिर जाना’ जैसी सूक्ष्म लेकिन गहरी छवियाँ मजदूर जीवन की सच्चाई को मजबूती से सामने रखती हैं।
प्रेम, रिश्ते और आधुनिक समाज का द्वंद्व
प्रेम कहानियाँ इस संग्रह में किसी रोमांटिक आदर्श की तरह नहीं आतीं, बल्कि जटिल और अधूरे रिश्तों की सच्चाई के रूप में सामने आती हैं। ‘हम ब्रेक पर हैं’, ‘ब्राइट बातें’ और ‘इस दुनिया के किनारे’ जैसी कहानियाँ उस दौर की दास्तान हैं जहाँ रिश्ते इंस्टैंट मैसेज की तरह बनते और टूटते हैं। लेखक ने इस अस्थिरता को न केवल संवेदना के साथ चित्रित किया है, बल्कि उसकी गहराई को भी टटोला है।
परिवार, स्मृतियाँ और पहचान की पीड़ा
‘एक रोटी’ और ‘वापस लौटते हुए’ जैसी कहानियाँ पाठक को परिवार, घर और स्मृतियों की उस जमीन पर ले जाती हैं, जहाँ चुप्पियाँ सबसे ज़्यादा बोलती हैं। एक पिता, जो बिना पैसे के भी अपने बच्चों की इच्छाएँ पूरी करने की कोशिश करता है, या एक माँ, जो अपने दाँतों का इलाज इसलिए नहीं कराती क्योंकि वह जानती है कि घर में पैसों की तंगी है, ऐसे चरित्र पाठक के दिल में जगह बना लेते हैं। वहीं, प्रवास की पीड़ा को कहानी का पात्र इस रूप में जीता है “क्या वह केरल का है? हाँ, आज जो उसका शरीर खड़ा है, उसके भीतर की मशीन केरल के खाने से ही तो चलती है।”
सामाजिक विडंबनाओं पर करारी टिप्पणी
लेखक ने सामाजिक असमानताओं और संस्थागत विफलताओं को लेकर भी तीखे लेकिन संयमित व्यंग्य किए हैं। ‘महत्वपूर्ण आदमी’ जैसी कहानी यह दिखाती है कि किस तरह हम व्यवस्था को कोसते भी हैं और उसी पर भरोसा भी करते हैं। लैंगिक भेदभाव पर सवाल उठाती पंक्ति “तुम बहुत बोलती हो… औरत इतना बोलेगी?” वर्तमान सामाजिक सोच को सीधे तौर पर चुनौती देती है।
संवेदनात्मक चरम: जब तालाब भी रोता है
संग्रह की अंत की कहानियाँ जैसे ‘तालाब’ और ‘तलईकुत्तल’ पाठक को एक गहरे आत्मसंघर्ष और मानवीय विवशता की ओर ले जाती हैं। डेंसी की पीड़ा, जो अपने भाई की मौत के लिए खुद को दोषी मानती है, या एली का संघर्ष, जो तमिलनाडु की प्रथा और पेट की भूख के बीच फंसी है, इन कहानियों में संवेदना इतनी सघन है कि पाठक कहानी से बाहर आकर भी उसे अपने भीतर महसूस करता है।
निष्कर्ष: क्यों पढ़ी जाए यह किताब
यह किताब केवल कहानियों का संकलन नहीं है, बल्कि हमारे समय के आम जीवन की अनकही दास्तानों की दस्तावेज़ी प्रस्तुति है। भाषा में सहजता है, भावों में गहराई और विषयवस्तु में विविधता। यह संग्रह उन पाठकों के लिए है जो न केवल कहानी पढ़ना चाहते हैं, बल्कि उसे महसूस भी करना चाहते हैं। लेखक का दृष्टिकोण सजग है, और उनकी कलम ज़िंदगी के सबसे साधारण लेकिन सबसे सच्चे पलों को एक नई रोशनी में सामने लाती है।