पत्रकारिता/मीडिया दिवस

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Parichay Das

— परिचय दास —

धूप जब शब्दों की तरह फैलती है और छायाएँ जैसे संपादकीय रेखाएँ खिंच जाती हैं—उस समय हम समझ पाते हैं कि ‘मीडिया’ कोई वस्तु नहीं, वह एक सतत स्पंदन है जो दृश्य और अदृश्य के बीच झूलता है। एक हलकी सी खामोशी जो पर्दे के पीछे खड़ी रहती है और एक ऊँची आवाज़ जो कैमरे की आँख में चमकती है। मीडिया दिवस पर जब हम ठहरकर उसे देखना चाहते हैं, वह कोई समाचार चैनल नहीं होता, कोई अख़बार नहीं होता—वह उन सबका सम्मिलन होता है, एक अज्ञात लेकिन परिचित काया जो शब्दों से भी बनती है और मौन से भी।

कभी-कभी एक छोटा-सा चित्र, जैसे बच्चे की फटी जेब से झाँकता हुआ सपना—इतिहास बन जाता है। कभी एक आवाज़, जैसे गाँव की गलियों में सुबह-सुबह सुनाई देने वाला रेडियो जो नहीं जानता कि वह किसी का अकेलापन भर रहा है और फिर, वह समाचार जो कभी नहीं छपता, वह भी मीडिया होता है। एक अनलिखा समाचार—जो किसी स्त्री की आँखों में छिपा है, किसी मज़दूर की हथेली में या किसी बँधे हुए माइक्रोफोन की शांति में। मीडिया सिर्फ सूचना नहीं देता, वह चेतना का विस्तार करता है, वह हमें हमारे समय का आईना देता है—वह भी जो झूठा है, वह भी जो टूटा है और वह भी जो धुँधला है।

कभी रेडियो की दरार से कोई गीत बहता है और वह कोई समाचार नहीं होता, फिर भी हमें देश से जोड़ देता है। एक रिपोर्टर का चप्पल टूट जाना किसी मुख्य शीर्षक में नहीं छपता पर वह उसकी सच्चाई में दर्ज होता है। कितनी बार किसी स्त्री ने अख़बार की खाली जगह में अपने आँसुओं को सुखाया है—वह समाचार नहीं, मगर समय की कलम से लिखा गया वाक्य होता है।

मीडिया दिवस कोई उत्सव नहीं, एक आत्मदर्शन का क्षण है—हम कहाँ हैं, क्या देख रहे हैं और क्या देखना छोड़ चुके हैं। कैमरे की आँख में जो नहीं आता, वह शायद सबसे अधिक मीडिया है। जो कैमरा कभी गली के छोर पर खड़े एक बच्चे की आँख में नहीं झाँकता, वह शायद बहुत कुछ खो देता है पर वह जो झाँकता है—वह सिर्फ खबर नहीं देता, वह दृष्टि देता है, संवेदना का एक कच्चा पुल।

पत्रकार की थकी हुई उँगलियाँ जब देर रात अंतिम पैराग्राफ टाइप कर रही होती हैं, तब वहाँ कोई पाठक नहीं होता—सिर्फ एक ज़िद होती है, समय को दर्ज करने की, चाहे अगले दिन वह अख़बार किसी दुकान की छत पर उड़ जाए। फिर भी वह ज़िद, वही पत्रकारिता है—वही मीडिया है। वह पन्नों में नहीं, शायद धूल में, शोर में, भूल में दर्ज होती है।

मीडिया दिवस पर हम समाचार नहीं पढ़ते—हम अपने समय की साँस सुनते हैं। वह कभी टूटी हुई होती है, कभी हड़बड़ाई हुई, कभी शांत। मगर वह होती है। जैसे कोई बूढ़ा रिपोर्टर, जो कैमरा बंद करके अब कविता लिखता है—वह भी मीडिया है। जैसे एक लड़की, जो अपने मोबाइल से गाँव का वीडियो बनाकर अपलोड करती है—वह भी मीडिया है। और जैसे एक चुप आदमी, जो कोई पोस्ट नहीं करता लेकिन सब कुछ देखता है—वह भी कहीं न कहीं मीडिया का मौन अध्याय है।

जब हम मीडिया दिवस मनाते हैं तो हम अख़बार की इबारत नहीं, उसके पीछे की सांसों को पढ़ते हैं। शब्दों की स्याही में, रीलों की गति में, माइक्रोफोन की चुप्पियों में और ब्रेकिंग न्यूज़ के पीछे छिपी हुई सुस्त पड़ चुकी संवेदनाओं में, एक कविता साँस लेती है—जो ललित भी है, और लाचार भी।
यह कविता गद्य में है, और गद्य में ही वह हमारे समय की सबसे जरूरी ख़बर बन जाती है।

लेकिन क्या मीडिया स्वयं को जानता है?
क्या उसे मालूम है कि वह केवल सूचना का संप्रेषक नहीं, बल्कि समय का स्वर है—कभी असंपादित, कभी अतिनाटकीय, कभी गहरे मौन में डूबा हुआ?
वह जो हर घटना को एक फ़्रेम में बाँध देता है, क्या वह जानता है कि कई दृश्य फ़्रेम से बाहर ही असली होते हैं?
वह जो ‘सीमा’ से ‘ब्रेकिंग’ लाता है, क्या उसे महसूस होता है कि किसी गृहिणी की थाली से उठती भाप भी एक समाचार हो सकती है?

विज्ञापन और विमर्श के बीच खड़ी मीडिया की देह अब कुछ थकी हुई लगती है—कभी-कभी वह अपने ही कैमरे में कैद हो जाती है।
एक पत्रकार जो एक समय में बुलेट के डर से भागता था, अब टीआरपी के पीछे भागता है।
जिसे कभी रात के अंधेरे में ख़बर की गंध आती थी, अब वह दिन के उजाले में ‘व्यूज़’ की दौड़ में गंधहीन हो गया है।
यह आरोप नहीं—यह विडंबना है।
मीडिया दिवस पर यह स्वीकार करना कोई अपराध नहीं कि कभी-कभी मीडिया अपने सबसे ईमानदार संवादों को ‘एडिट’ कर देता है—चुपचाप, बग़ैर आहट।

फिर भी, उसके भीतर कोई पुराना संवाददाता अब भी जीवित है—जो सिर्फ ख़बर नहीं देना चाहता, बल्कि अपने पाठकों से एक गहरा, लगभग नैतिक संवाद करना चाहता है।
वह संवाद जो प्राइम टाइम की चीख़ में गुम हो गया था, वह शायद किसी छोटे अख़बार के उप-संपादक की नोटबुक में अब भी सुरक्षित है।
कभी किसी क्षेत्रीय चैनल का कैमरा एक वृद्ध किसान के चेहरों पर आई झुर्रियों को स्थिर करके देखता है—बिना किसी इफेक्ट, बिना किसी कट के।
वहाँ मीडिया पुनः जन्म लेता है—धीमे, शांत, पर असाधारण रूप से सच्चा।

समाचार अब शोर में ढल गया है,
लेकिन मीडिया की आत्मा अभी भी मौन में धड़कती है।
वह मौन जहाँ एक संपादक यह सोचता है कि इस सप्ताह किस समाचार को छापा न जाए, ताकि कोई बेगुनाह न मरे।
वह मौन जहाँ एक फ़ोटोग्राफर किसी दंगे में किसी बच्चे को उठाकर बाहर निकालता है, और फिर तस्वीर लेता है।
वह मौन जहाँ एक महिला पत्रकार अपनी पहचान को छुपाकर किसी स्त्री की पीड़ा दर्ज करती है, सिर्फ़ इसलिए कि कोई और सुन नहीं रहा।

मीडिया दिवस एक स्क्रीन नहीं,
एक आईना है—
जिसमें हम न केवल मीडिया को, बल्कि स्वयं को भी देखते हैं—
हमारी प्राथमिकताएँ, हमारी संवेदनाएँ, और हमारी चुप्पियाँ।
यह वह दिन है जब हम उस पुराने रेडियो को फिर से चलाना चाहते हैं,
जिस पर कोई आवाज़ सिर्फ़ समाचार नहीं देती थी,
बल्कि किसी उम्मीद की तरह बजती थी।

किंतु क्या मीडिया केवल वह है जो दिखाया जाता है?
या वह भी है, जो छुपा रह जाता है, और धीरे-धीरे हमारे भीतर एक शंका की तरह उग आता है?
एक समय था जब समाचारपत्र की स्याही में जनता की गंध होती थी।
आज भी कभी-कभी किसी पुराने प्रेस की मशीन से उठती गर्म धातु की गंध हमें याद दिला देती है कि ख़बरें कभी ‘छापी’ जाती थीं, ‘बनाई’ नहीं जाती थीं।
वह समय, जब किसी संवाददाता की आँखों में धूप की जगह नींद होती थी, क्योंकि वह दो दिन से एक बाढ़ग्रस्त गाँव में था—उसके शब्दों में पानी नहीं, पीड़ा होती थी।

अब संवाद जल्दी पहुँचता है, पर शायद कम गहराई से।
एक ट्वीट, एक रील, एक हेडलाइन—सब कुछ जैसे समय की छाया हो गए हैं, स्वयं समय नहीं।
क्या मीडिया ने केवल गति को स्वीकारा है, या संवेदना को त्यागा है?
क्या अब कैमरा सिर्फ़ रिकॉर्ड करता है, या अपने देखने की नैतिकता भी निभाता है?
जिस क्षण कोई बच्चा भूख से रोता है, और उसी समय एक रिपोर्टर कहता है—”एक सेकंड, ज़रा कैमरा ठीक कर लूँ”—उस क्षण एक पवित्रता टूटती है।
वह रिपोर्ट अधूरी नहीं, अशुद्ध हो जाती है।

और फिर, वहाँ एक ग्रामीण पत्रकार भी है,
जिसके पास ड्रोन नहीं, लेकिन धूल से लिथड़ा चप्पल है,
जो बिना माइक के भी आवाज़ दर्ज करता है—
दीवारों पर, दीयों में, थाली के भीतर, खेतों के पाटों पर।
उसका मीडिया कोई ब्रॉडकास्ट नहीं, एक लोक-वृत्त है—जहाँ ख़बरें नहीं, रिश्ते फैलते हैं।

हम भूल जाते हैं कि मीडिया केवल वह नहीं जो शहरी है, हाई-डेफिनिशन है,
बल्कि वह भी है जो गाँव के हाट में कागज़ पर हाथ से लिखा गया है,
जो एक सामुदायिक रेडियो में दोपहर बाद सुनाई देता है—
जहाँ कोई महिला कहती है—”हमरा खेत में धान तैयार बा।”

मीडिया दिवस का तीसरा अध्याय यही बताता है—
कि मीडिया की आत्मा बहुआयामी है,
वह एक साथ तेज़ भी है और सुस्त भी,
वह लाउडस्पीकर भी है और चुप चिट्ठी भी।

वह केवल पत्रकारों का माध्यम नहीं,
बल्कि जनता का प्रतिरूप है।
और अगर वह विकृत होता है,
तो इसका अर्थ है कि कहीं हम सब विकृत हो रहे हैं।

मीडिया दिवस पर यह स्वीकार करना
कि कई बार हमने ग़लत समाचारों पर विश्वास किया,
कि कई बार हमने प्रश्न पूछने वालों को गद्दार कहा,
कि कई बार हमने ‘लाइव’ देखकर ‘सच’ मान लिया—
यह स्वीकार ही इस दिवस की सबसे सच्ची श्रद्धांजलि है।

फिर भी, हर दिन कुछ ऐसा घटता है जो मीडिया नहीं बन पाता—और वही शायद सबसे गहरा मीडिया होता है।
एक बेटी अपने पिता को चिट्ठी लिखती है, जिसमें महँगाई की चर्चा होती है—यह कहीं नहीं छपता, फिर भी यह देश की अर्थनीति का सबसे अंतरंग दस्तावेज़ है।
एक किसान चुपचाप अपने खेत के सूखते पानी को देखता है, और मन ही मन किसी रिपोर्टर की अनुपस्थिति को महसूस करता है।
वह नहीं जानता कि उसका दुख ‘नेशनल’ नहीं है, लेकिन वह यह जानता है कि उसका दुख ‘सच’ है।
यही वह फाँक है, जहाँ मीडिया धीरे-धीरे एक आभासी आवाज़ बन जाता है, और यथार्थ खामोश।

पर जैसे हर खंडहर में कोई दीया अब भी जलता है,
वैसे ही मीडिया के भीतर अब भी कई कमरे उजाले से भरे हुए हैं।
एक ईमानदार रिपोर्टर, जो हर महीने अपनी माँ से डाँट खाता है कि “तू फील्ड में बहुत रहता है”—
वह अब भी समय को दर्ज कर रहा है,
वह अब भी बताता है कि सच के नीचे क्या छुपाया जा रहा है।

एक संपादक, जो मालिक की चेतावनी के बावजूद
किसी दलित छात्र की आत्महत्या की खबर फ्रंट पेज पर छापता है—
वह भी मीडिया है, और उसका साहस भी सूचना है।

और फिर, मीडिया दिवस उन लोगों का भी है
जो अब पत्रकार नहीं रहे,
जो अब यू-ट्यूब चैनल चला रहे हैं,
जो कभी स्टूडियो में थे, अब स्टेशन पर चाय पीते हैं—
पर उनकी आँखों में अब भी वह तेज़ है
जो कभी लैंस के आर-पार देखा करता था।

मीडिया का यह युग एक संक्रमण है।
एक समय था जब सत्य की खोज के लिए रिपोर्टिंग होती थी—
अब शायद कभी-कभी ‘वायरल’ के लिए होती है।
पर हर संक्रमण के भीतर एक पुनर्जन्म छुपा होता है।
मीडिया स्वयं को देखे, यह दिवस उसी की पुकार है।

इसलिए, यह उत्सव नहीं, अवलोकन है—
एक अंतरदृष्टि, जिसमें हम मीडिया को नहीं,
बल्कि अपने भीतर उस पत्रकार को खोजते हैं
जो चीजों को देखता है जैसे वे हैं—
बिना फिल्टर, बिना ऐजेंडा, बिना भय।

और जब हम ऐसा करते हैं,
तो मीडिया फिर से जन्म लेता है—
न नई तकनीक से, न नए चैनलों से,
बल्कि एक पुरानी सच्चाई से—
कि संवाद, जब ईमानदार होता है,
तो वह स्वयं एक पर्व बन जाता है।

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