आपातकाल के दौर में ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण का आंदोलन

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Randhir K Gautam

— रणधीर कुमार गौतम —

पातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक शर्मनाक अध्याय के रूप में याद किया जाता है — एक ऐसा कालखंड जिसने आज़ादी के बाद के भारत में अधिनायकवाद और निरंकुशता की गंभीर चुनौती प्रस्तुत की। इसके साथ ही, यह समय जनांदोलन के रूप में भी याद किया जाता है, जो लोकनायक जयप्रकाश नारायण के मार्गदर्शन में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की विरासत से प्रेरित था।

26 जून 1975 की घटना भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है। आपातकाल एक प्रकार से अधिनायकवादी सत्ता के प्रयोग का दौर था, जिसमें संविधान, राजनीतिक परिस्थितियाँ, और क्लाइंटेलिज़्म (Clientelism) जैसे तत्वों की निर्णायक भूमिका रही। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के निवेदन पर, तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक (कुल 19 महीनों के लिए) देश में आपातकाल की घोषणा की थी।

इसके विरुद्ध में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक जनांदोलन खड़ा हुआ। यद्यपि यह आंदोलन प्रारंभ में भ्रष्टाचार, महंगाई और लोकतंत्र पर मंडरा रहे खतरों के खिलाफ था, परंतु यह धीरे-धीरे गुजरात के नव निर्माण आंदोलन और बिहार आंदोलन के रूप में विस्तारित हुआ — जो जयप्रकाश जी के सान्निध्य में एक अखिल भारतीय आंदोलन बन गया।

आज का समय जिसे समाजविज्ञानियों ने ‘पोस्ट-ट्रुथ’ (Post-Truth) युग कहा है — एक ऐसा दौर है, जिसमें भ्रम और अर्धसत्यों के प्रसार के कारण हम ऐतिहासिक समझ से वंचित रह जाते हैं। यह हमें दृष्टिदोष और वैचारिक भ्रम की ओर ले जाता है।

आपातकाल पर हुए अधिकतर अध्ययन पत्रकारिता या जीवनी शैली पर आधारित हैं। हालांकि कुछ समाजवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी विश्लेषण प्रस्तुत किए गए हैं। ऐसे उल्लेखनीय कार्यों में प्रोफेसर आनंद कुमार की पुस्तक “इमरजेंसी की अंतर्कथा” तथा क्रिस्टोफ़ जैफ़रलॉट और Pratinav Anil  की “India’s First Dictatorship: The Emergency 1975–1977” शामिल हैं।

मैं शुरुआत में ही एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाना चाहता हूँ: आख़िर वे कौन लोग हैं जो आज भी बिहार आंदोलन या जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की प्रासंगिकता को समझने में चूक कर रहे हैं?

इतना ही नहीं, कुछ लोग आपातकाल जैसे अत्याचारी दौर को न्यायसंगत ठहराने का प्रयास करते हैं। यह विडंबना ही है कि यही लोग आज संविधान पर होने वाले हमलों का विरोध करने का दावा करते हैं, परंतु जब आपातकाल की बात होती है, तो वे उसे संविधान पर संकट के रूप में नहीं देखते।

इमरजेंसी की आलोचना- 

उस समय की तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा लोकतंत्र को समाप्त करने का एक तानाशाही और निरंकुश प्रयास किया गया। राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा के साथ “रूल ऑफ लॉ” को नष्ट कर राज्य की शक्तियों का प्रयोग करते हुए, अध्यादेशों के माध्यम से शासन चलाने का निर्णय लिया गया।मध्य प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेस नेता एन.के.पी. साल्वे ने इसे “डंडा डेमोक्रेसी” की संज्ञा दी थी।

सारा शासनतंत्र देश के  नैतिक रूप से संवैधान  के अधीन न होकर, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नियंत्रण में आ गया था।

जब – जब सत्ता एक केंद्र में सिमटती है, तो उसमें अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियाँ जन्म लेने लगती हैं। यहां तक की देश के न्याय प्रणाली के  संस्था के संदर्भ में इंदिरा गांधी के द्वारा  इसे “Committed Judiciary” कहा गया।

आपातकाल के संदर्भ में इंदिरा गांधी की राजनीति में यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि “रूल ऑफ लॉ” (Rule of Law) के स्थान पर “रूल ऑफ रूलर” (Rule of the Ruler) की प्रतिध्वनि सुनाई देती थी।

शाह आयोग और जनदायित्व- 

इमरजेंसी के तुरंत बाद, जनता द्वारा निर्वाचित जनता सरकार ने 28 मई 1977 को न्यायमूर्ति जे.सी. शाह की अध्यक्षता में शाह आयोग का गठन किया। इस आयोग का उद्देश्य इमरजेंसी के दौरान किए गए दमनात्मक कृत्यों की जांच कर जनता के सामने सच्चाई लाना था।

शाह आयोग की रिपोर्ट तीन खंडों में प्रकाशित हुई — मार्च, अप्रैल, और अगस्त 1978 में। यह भी आरोप है कि वापस सत्ता में आने पर इंदिरा गांधी सरकार ने शाह आयोग की रिपोर्ट और दस्तावेजों को नष्ट करने का प्रयास किया था।

राजनीतिक दमन और कारावास- 

आपातकाल के दौरान सरकार की आलोचना करने वाले हजारों राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। इनमें कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी शामिल थे।

बुद्धिजीवी, लोक कलाकार, और वे सभी लोग जो जयप्रकाश नारायण जी के आंदोलन से जुड़े थे — उन्हें भी जेलों में बंद किया गया। आज भी आपको ऐसे हजारों लोग मिलेंगे, जिन्होंने आपातकाल के दौर में जेल की सजा भुगती है। Maintenance of Internal Security Act (MISA) बंदी के नाम से यह लोग जाने जाते हैं.  

समाजवादी नेता स्नेहलता रेड्डी और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की डायरी में आपातकाल के उस कालखंड को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।

प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी-

जिन प्रमुख नेताओं को जेल में डाला गया, उनमें शामिल थे: स्वयं जयप्रकाश नारायण, समाजवादी नेता: मधु दंडवते, मधु लिमये, शरद यादव, राज नारायण, भारतीय लोकदल के बीजू पटनायक और पीलू मोदी, कांग्रेस (ओ) के मोरेार्जी देसाई, सीपीआई(एम) के वी.एस. अच्युतानंदन और ज्योति बसु, जनसंघ के लालकृष्ण आडवाणी और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और कांग्रेस के “यंग टर्क्स”: रामधन, मोहन धारिया, तथा स्व. चंद्रशेखर (प्रधानमंत्री )। इसके साथ-साथ अनेकों स्वतंत्रता संग्रामी ने गिरफ्तारियां दी 

संवैधानिक ढांचे पर आघात- 

इंदिरा गांधी ने आपातकाल के संदर्भ में भारत की संवैधानिकता की नई परिभाषा गढ़ने का प्रयास किया। लोकतंत्र के एक महत्वपूर्ण मूल्य “सत्ता का पृथक्करण” (Separation of Powers) पर उन्होंने गहरा आघात किया। वे कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों को संविधान के अधीन नहीं, बल्कि अपने शासन के अधीन रखना चाहती थीं। उनके “Committed judiciary” जैसी अवधारणाओं को इसी संदर्भ में समझा जा सकता है। यह प्रवृत्ति अधिनायकवाद और सर्वसत्तावाद की उपज थी, जो आज भी भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरियों में गिनी जाती है।

आपातकाल और मीडिया की सेंसरशिप- 

लोकतंत्र के चौथे स्तंभ माने जाने वाले मीडिया को भी सरकार ने आपातकाल के दौरान सेंसरशिप के अधीन कर लिया था। उस समय अनेक बुद्धिजीवियों ने पत्रिकाओं के माध्यम से आपातकाल का प्रतिकार करते हुए जनजागरण का कार्य किया। इनमें प्रमुख रूप से: ‘जनता’, जो जी.जी. पारिख के मार्गदर्शन में निकाली गई, ‘हिम्मत’, जिसे राजमोहन गांधी के नेतृत्व में प्रकाशित किया गया, ‘मेनस्ट्रीम’, निखिल चक्रवर्ती द्वारा,‘एवरीमैन’, जो अज्ञेय के मार्गदर्शन में चलाई गई — जैसी कई पत्रिकाएँ थीं, जो लोकतंत्र की आवाज़ बनीं।

यहां तक कि जब प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर ने नेशनल हेराल्ड के मणिकोंडा चलपति राऊ  द्वारा तैयार सरकार की प्रशंसा में लिखे गए लेख पर हस्ताक्षर करने से इनकार किया, तो उनके पिछले एक दशक के आयकर आकलन (income tax assessments) को दोबारा खोला गया।

संविधान पर प्रहार और कला-संस्कृति का दमन- 

1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से इंदिरा गांधी सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की विरासत से प्राप्त संविधान की “बेसिक स्ट्रक्चर” (मूल संरचना) में भी बदलाव करने की कोशिश की।

इस दौरान न केवल पत्रकारिता, बल्कि सिनेमा, लोककला, और साहित्य पर भी सरकारी शिकंजा कस दिया गया। कई फिल्मों पर प्रतिबंध लगाए गए, और सरकार के विरोध में बोलने वाले लोक कलाकारों को कारागार में डाल दिया गया।

कवियों की प्रतिरोधात्मक आवाज़- 

आपातकाल के समय अनेक कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सत्ता के दमन का विरोध किया। इनमें रामधारी सिंह दिनकर और नागार्जुन जैसे बिहार के प्रख्यात कवि प्रमुख हैं। दिनकर की प्रसिद्ध कविता “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” जनआंदोलन की चेतना का प्रतीक बन गई।

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;

दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,

जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,

जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे

तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

जनता? हां,लंबी – बडी जीभ की वही कसम,

“जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।”

“सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?”

‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?”

मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,

जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;

अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के

जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,

जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,

सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,

जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?

वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार

बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं

यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय

चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,

तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो

अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,

तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,

मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?

देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,

देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,

धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;

दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

  रामधारी सिंह दिनकर

….-दुष्यंत कुमार – 

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है

आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है

ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए

यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो—

इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है

मस्लहत—आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम

तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है

इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके

जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए

मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ

हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है

आपातकाल: राज्य, दमन और जनता का प्रतिरोध

आपातकाल ने यह स्पष्ट रूप से सिद्ध किया कि किस प्रकार राज्य की शक्तियाँ लोकतंत्र की नींव को समाप्त करने का दुस्साहस कर सकती हैं। आज भी उत्तर भारत के गाँव-गाँव में उस दौर के राजकीय दमन, कारावास, और यातना की स्मृतियाँ लोगों की सामूहिक चेतना (collective memory) में जीवित हैं।

एस.एस. रे जैसे आपातकाल समर्थक नेताओं ने यहाँ तक कहा:

> “If Congress disintegrated, India would be disintegrated [sic].”

धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति फैलने लगी कि “India is Indira and Indira is India”।

आपातकाल के दौरान लाखों लोगों को जेल में बंद कर दिया गया। 25 जून 1975 से 21 March 1977

 के बीच सैकड़ों लोगों की हत्याएं भी हुईं।

1978 में शाह आयोग की रिपोर्ट ने खुलासा किया कि:

> 110,806 नागरिकों को DIR और MISA के तहत गिरफ़्तार किया गया था। इनमें कम-से-कम आधे राजनीतिक बंदी थे — यानी आम अपराधियों की अपेक्षा अधिक संख्या में राजनीतिक कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया।

सरल शब्दों में कहें तो, पूरी शासन-व्यवस्था एक अधिनायकवादी तंत्र में तब्दील हो गई थी — जिसे रजनी कोठारी जैसे समाजवैज्ञानिकों ने “कांग्रेस सिस्टम” कहा था।

नसबंदी, पुलिसिया दमन और जन प्रतिरोध- 

इस दौरान लगभग एक करोड़ से अधिक लोगों की जबरन नसबंदी की गई। हजारों राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पुलिस ने पीटा, कई को थर्ड डिग्री तक दी गई।

फिर भी इन अत्याचारों के बावजूद, जनता ने लोकतंत्र की पुनःस्थापना के लिए जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जनांदोलन में भाग लिया। लोगों ने कुर्बानियाँ दीं, आहुति दी, और आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन मिला।

इसमें भारत के अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी सम्मिलित थे। इन समस्त जनाक्रोशों के बीच जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन को अहिंसक बनाए रखने में सफल भूमिका निभाई। उन्होंने सत्ता परिवर्तन को मात्र सरकार बदलने का साधन न मानकर, व्यवस्था परिवर्तन के एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया — जिसे हम “संपूर्ण क्रांति” की अवधारणा के रूप में समझ सकते हैं।

संजय गांधी की भूमिका और बुलडोजर राजनीति का उदय- 

कुछ समाजवैज्ञानिक मानते हैं कि इमरजेंसी शासन की संरचना में इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी की भूमिका निर्णायक थी।

विनोद मेहता ने संजय गांधी की जीवनी में लिखा है:

> “Despite having access to the best of opportunities, his entire career till 25 June 1975 was one short, sad list of defeats. He had failed as a student, he had failed as an 

apprentice, he had failed with women.”

संजय गांधी ने शहरी सौंदर्यीकरण के नाम पर बुलडोज़र राजनीति की शुरुआत की, जिसमें हजारों लोगों को बेघर कर दिया गया दिल्ली के तुर्कमान गेट कांड को आज भी लोग आतंक की तरह याद करते हैं। संजय गांधी के व्यवहार में एक प्रकार का लंपेन (lumpen) चरित्र देखा गया था। उनके निकट सहयोगियों में जगदीश टाइटलर जैसे लोग शामिल थे, जिनकी भूमिका 1984 के सिख विरोधी दंगों में भी चर्चा का विषय रही।

व्यक्तित्व और सत्ता: इंदिरा गांधी का मनोविज्ञान-

कुछ social psychologist  का यह भी मानना है कि इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व स्वयं इमरजेंसी शासन की स्थापना का एक कारण था। उनमें सत्ता को केंद्रित करने, विरोध को दबाने, और संस्थाओं को अधीन करने की प्रवृत्ति साफ़ झलकती है — जिसे अधिनायकवाद की दिशा में एक खतरनाक कदम माना गया।

इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व और आपातकाल की पृष्ठभूमि- 

समाजविज्ञानी हेनरी सी. हार्ट (Henry C. Hart) ने इंदिरा गांधी के मनोविश्लेषणात्मक (psychoanalytic) अध्ययन में पाया कि उनके भीतर “इनसिक्योरिटी कॉम्प्लेक्स” (insecurity complex) की भावना थी, जो आपातकाल के दौरान और स्पष्ट रूप से सामने आई।

इंदिरा गांधी ने स्वयं स्वीकार किया था:

> “The whole house was always in such a state of tension that nobody had a normal life. There were police raids, arrests, and so on,” she remembered; “it seemed my parents were always in jail.”

उनके राजनीतिक व्यक्तित्व में स्पष्ट रूप से authoritarian tendencies देखी जा सकती हैं।

पंडित नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित के अनुसार,

> “Indira was a ‘lonely person’, an ‘only child’, as well as a ‘clever girl’ who did ‘not devote herself to her studies’. These factors created a strain of obstinacy that was to define her behaviour on the eve of and during the Emergency.”

व्यक्तिवादी राजनीति और असहिष्णुता- 

इंदिरा गांधी की राजनीति में populist शैली प्रमुख थी, लेकिन पंडित नेहरू के विपरीत वे विरोध और असहमति के प्रति असहिष्णु थीं। वे व्यक्तिवादी राजनीति को महत्त्व देती थीं, जिसकी अभिव्यक्ति डी.के. बरुआ के प्रसिद्ध नारे — “Indira is India and India is Indira” — में स्पष्ट रूप से होती है।

प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो. आशीष नंदी का मानना है कि:

> “Those who criticized her, by definition, became attackers of the institution of the 

prime minister, and those who opposed her became irresponsible or frustrated conspirators operating outside the boundaries of legitimate politics.”

धार्मिक झुकाव और असहजता की झलक- 

आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी का रुझान कई धार्मिक गुरुओं और साधुओं की ओर बढ़ा। वे कृष्णमूर्ति, धीरेंद्र ब्रह्मचारी, और देहरादून की बंगाली साध्वी आनंदमयी के संपर्क में रहीं।

यहाँ तक कि उन्होंने ज्योतिष में भी विश्वास दिखाना शुरू किया और उस समय के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी से लगातार परामर्श लिया। इन सभी व्यवहारों से यह संकेत मिलता है कि इंदिरा गांधी के भीतर गहरी असुरक्षा और असहजता विद्यमान थी। एक समाजवैज्ञानिक के अनुसार:

> “For Indira Gandhi, rivalry and intrigue were never the stuff of ordinary politics; they were questions of life and death.”

आपातकाल पर विमर्श और सामाजिक आंदोलन की भूमिका- 

विमर्श के स्तर पर आपातकाल एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है, जो हमें लोकतंत्र की चुनौतियों और सृजनात्मक सामाजिक आंदोलनों के महत्व को समझने का अवसर प्रदान करती है। हर जनांदोलन की तरह, जेपी आंदोलन के बाद भी एक नया नेतृत्व वर्ग उभरा।

विशेषकर बिहार, झारखंड, और उत्तर भारत के अन्य राज्यों में आज भी अनेक ऐसे राजनेता हैं, जो जेपी आंदोलन की उपज हैं। प्रो. आनंद कुमार और “इमरजेंसी की अंतर्कथा“- देश के  प्रख्यात समाजशास्त्री और जयप्रकाश आंदोलन के सिपाही प्रो. आनंद कुमार ने अपनी पुस्तक “इमरजेंसी की अंतर्कथा” में पांच अर्द्धसत्यों (half-truths) की चर्चा करते हुए आपातकाल की व्यापक समीक्षा की है:

1. पहला अर्द्धसत्य: श्रीमती इंदिरा गांधी की दो परस्पर विरोधी भूमिकाएँ — एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री और एक कमजोर माँ।

2. दूसरा अर्द्धसत्य: जयप्रकाश नारायण का योगदान — ‘संपूर्ण क्रांति’ या ‘भ्रांति’?

3. तीसरा अर्द्धसत्य: आचार्य विनोबा भावे और ‘अनुशासन पर्व’।

4. चौथा अर्द्धसत्य: गुजरात और बिहार आंदोलनों ने ही जयप्रकाश नारायण को प्रासंगिक बनाया।

5. पाँचवाँ अर्द्धसत्य: जेपी द्वारा आरएसएस को सार्वजनिक प्रतिष्ठा प्रदान करना।

यह पुस्तक आपातकाल के पक्ष और विपक्ष में प्रस्तुत किए गए तर्कों का गहन विश्लेषण करती है और उन आधा-सत्यों का खंडन करती है, जिन्हें आपातकाल समर्थकों द्वारा प्रचारित किया गया।

दक्षिणपंथी भूमिका और वैचारिक टकराव-

यह विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि आपातकाल समर्थकों ने आरएसएस की भूमिका की आलोचना तो की,लेकिन आपातकाल के अधिनायकवादी शासन की आलोचना नहीं की। यह दृष्टिकोण न केवल इतिहास को एकपक्षीय बनाता है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यबोध को भी संकट में डालता है।

आरएसएस की भूमिका और जयप्रकाश नारायण का दृष्टिकोण- 

जहाँ तक आरएसएस को प्रतिष्ठा दिलाने की बात है, यह धारणा कुछ विशिष्ट अध्ययनों के आधार पर बनी है, जिनमें प्रो. बीपीन चंद्र से लेकर ए.जी. नूरानी जैसे विद्वानों के विश्लेषण शामिल हैं।

प्रो. आनंद कुमार ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है कि उस समय आरएसएस के सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को कारावास से मुक्त होने के उद्देश्य से कई पत्र लिखे थे।

आरएसएस, जो लाखों कार्यकर्ताओं का दावा करता है और अनेक बलिदानों की बात करता है, लेकिन जब जस्टिस जे.सी. शाह आयोग की रिपोर्ट सामने आई, तो यह तथ्य सामने आया कि आपातकाल में सिर्फ सैकड़ों आरएसएस कार्यकर्ता ही जेल में थे, और उनमें से भी अनेक ने माफ़ी माँगकर रिहाई प्राप्त की।

जयप्रकाश नारायण: भारतीयता और लोकतांत्रिक चेतना के प्रतीक- 

जयप्रकाश नारायण के आंदोलन और उनके विचारों में  भारतीयता की एक स्पष्ट और समावेशी दृष्टि उभरकर सामने आती है। उनके विचारों में कट्टरता (fundamentalism), हठधर्मिता (dogmatism) और वैमनस्य की राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके विपरीत, वे गांधीवादी लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों के प्रति अत्यंत सजग और समर्पित हैं। जहाँ तक जन आंदोलन, सत्याग्रह और संघर्ष की बात है, वे इस संदर्भ में डॉ. राममनोहर लोहिया से प्रेरणा लेते हैं। उनके शब्दों में:

> “अगर सड़क वीरान हो जाएगा, तो संसद आवारा हो जाएगी।”

दूसरे शब्दों में, जयप्रकाश नारायण हमेशा ‘लोकशक्ति’ के निर्माण में ‘राष्ट्र निर्माण’ की लोकतांत्रिक प्रेरणा को देखना चाहते थे।

जयप्रकाश: आंदोलनकारी भी, विचारक भी- जयप्रकाश नारायण न केवल एक सामाजिक आंदोलनकारी थे, बल्कि वे भारतीय समाज और विविध विचारधाराओं को समझने वाले एक महान जननेता भी थे। जेपी आंदोलन के माध्यम से यह पुनः स्थापित हुआ कि जनता की मांग लोकतंत्र में सर्वोपरि है, और जब भी सरकार संवैधानिक अपेक्षाओं की उपेक्षा करती है, तब-तब जन आंदोलन एक वैध माध्यम बनता है, जिससे वह मांग पूरी की जाती है।यहीं से राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया आरंभ होती है, और People’s Democracy की संकल्पना का आधार भी यहीं से बनता है।- 

आपातकाल और आंदोलन की वैधता पर विमर्श- 

जहाँ तक आपातकाल के दौरान चल रहे आंदोलनों की वैधता (legitimacy) की बात है, कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि यह एक प्रकार की अराजकता (anarchy) फैलाने का प्रयास था। लेकिन यह कथन तथ्यात्मक रूप से ग़लत है।

जयप्रकाश नारायण की मांग महज़ विधानसभाओं को भंग करने तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे गांधीवादी आदर्शों के अनुरूप बुनियादी बदलावों की आवश्यकता पर बल दे रहे थे।उनका जोर था कि जनता को जागरूक किया जाए, ताकि वे अपने लोकाधिकार (people’s sovereignty) को पुनः प्राप्त कर सकें।

उनका उद्देश्य था कि राज्य की शक्ति को लोकशक्ति के अधीन किया जाए — यही लोकतंत्र का मूल दर्शन है।

आपातकाल के कारण: एक समाजशास्त्रीय दृष्टि

समाजशास्त्र की भाषा में आपातकाल को “वैधता संकट” (Legitimacy Crisis) के रूप में समझा जा सकता है। जस्टिस शाह आयोग की रिपोर्ट (Shah Commission Report) के अनेक उदाहरण इस बात की आँखें खोलने वाली पुष्टि करते हैं। यहां तक कि जस्टिस जे.सी. शाह को पांच लाख से अधिक यूथ कांग्रेस कार्यकर्ताओं की चिट्ठियाँ प्राप्त हुईं, जिनमें कई धमकी भरे पत्र शामिल थे। यहां तक कहा गया कि उन्हें और उनके बच्चों को जान से मारने या नुकसान पहुँचाने की साजिश रची जाएगी।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय, बिहार आंदोलन का राष्ट्रीय विस्तार, और मीडिया सेंसरशिप के माध्यम से असहमति (dissent) की आवाज़ को दबाने के प्रयास—इन सभी कारकों को परस्पर संदर्भ में समझकर ही ‘इमरजेंसी राज’ को सही रूप में समझा जा सकता है। राज्य की शक्तियों का प्रयोग करके असहमति और लोकतंत्र दोनों को कुचलने की नाकाम कोशिशें की गईं।

लोहियावादी समाजवादी ओमप्रकाश दीपक का मानना था कि जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चला आंदोलन गैर-दलीयता के आग्रह और युवा शक्ति की ऊर्जा के प्रभाव में महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और भ्रष्ट शिक्षा व्यवस्था के विरुद्ध एक जन संघर्ष के रूप में उभरा।

इमरजेंसी समर्थकों और विरोधियों में अंतर को हम दो दृष्टिकोणों में बाँट सकते हैं: “Democracy for Emergency”, और “Democracy against Emergency”।

लोकतंत्र: एक सतत प्रक्रिया- 

लोकतंत्र के बारे में कहा गया है:

> “Democracy is not a state, it is a process.”

यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जो सृजनात्मक परिवर्तनों से परिष्कृत होती रहती है। इसीलिए, गांधी और जयप्रकाश नारायण जैसे जननेताओं की लोकतंत्र में समय-समय पर आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि वे ‘लोकशक्ति’ के निर्माण के प्रेरणास्रोत होते हैं।

नागरिकता बोध और सामाजिक चेतना- 

जयप्रकाश नारायण के आंदोलन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य था नागरिकता बोध का निर्माण। आपातकाल के विरोध में खड़ा हुआ जन आंदोलन, एक ओर जहाँ नागरिकता निर्माण (citizenship building) का कार्य कर रहा था, वहीं सामाजिक न्याय की आकांक्षा को भी बढ़ा रहा था। जनता में तानाशाही और निरंकुश शासन के विरुद्ध प्रतिरोध की चेतना को जगाना इस आंदोलन की मूल प्रेरणा थी

आंदोलन की चेतना और नेतृत्व विकास- 

जयप्रकाश नारायण न केवल आंदोलन की गतिशीलता (dynamics) को समझते थे, बल्कि उसकी चुनौतियों को भी पहचानते थे। वे विचार और अनुभव के बीच मध्य मार्ग की खोज में रहते थे।

उनके जीवन-मूल्यों में तीन प्रमुख पक्षों के प्रति गहरा प्रतिबद्ध भाव देखा जा सकता है:

1. स्वतंत्रता,

2. सामूहिक लोकतंत्र,

3. और न्याय।

जब विभिन्न विचारधाराओं के लोग इस आंदोलन से जुड़े, तो उनमें सृजनात्मक बदलाव भी आए। इसीलिए बंगाल में तीन दशक शासन करने वाले ज्योति बसु से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता भी इस आंदोलन से गांधीवादी संस्कार प्राप्त करते दिखते हैं। वाजपेयी ने सत्ता में आने के बाद सबसे बड़े गठबंधन की नींव रखते हुए गांधीवादी समाजवाद को अपने शासन के मूल दर्शन के रूप में स्वीकार किया।

आज भी अनेक नेता — राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय स्तर पर — ऐसे हैं जिनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि जयप्रकाश आंदोलन से जुड़ी रही है।

संवैधानिक जागरूकता और जन-सौगातें- 

इस जन आंदोलन ने न केवल इंदिरा गांधी को संविधान सुधारों की ओर ध्यान देने को प्रेरित किया, बल्कि भारत के नागरिकों को कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ भी प्राप्त हुईं।

1971 से 1974 के बीच 400 से अधिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण, 42वें संविधान संशोधन में जनता की कुछ मांगों की आंशिक झलक, और 20 सूत्रीय कार्यक्रम को एक सफलता के रूप में भी देखा जा सकता है।

राजनीतिक संगठनों की भूमिका- 

जब आपातकाल घोषित किया गया, तो शिवसेना जैसे कुछ राजनीतिक संगठनों ने उसका समर्थन किया। कहा जाता है कि उस समय कई मज़दूरों की हत्या की गई। जहाँ एक ओर  बिड़ला जैसे औद्योगिक समूहों ने आपातकाल का समर्थन किया, वहीं दूसरी ओर बजाज समूह और मुकुंद समूह जैसे कुछ उद्योगपतियों ने आपातकाल के अत्याचारों का विरोध किया।

साहित्य और सत्याग्रह का योगदान- 

नागरिक स्वतंत्रता और संवैधानिक मूल्यों पर आए संकट को देखते हुए जनता ने सत्याग्रह का मार्ग अपनाया। यदि उस समय के आपातकाल से पीड़ित प्रतिष्ठित कवियों, साहित्यकारों और समाज वैज्ञानिकों की सूची बनाई जाए, तो यह अनगिनत नामों की एक लंबी सूची होगी। यदि उस दौर की महत्वपूर्ण घटनाओं का भी उल्लेख किया जाए, तो उसकी भी कोई सीमा नहीं होगी।

इसी संदर्भ को ध्यान में रखते हुए, मैंने इस लेख में केवल कुछ चुनिंदा घटनाओं का ही उल्लेख किया है। कई बुद्धिजीवियों को मात्र सरकार की आलोचना करने और विरोध स्वरूप रचनाएँ प्रकाशित करने के कारण जेल में डाल दिया गया। सरकार मौखिक असहमति को भी अपराध मानते हुए दंडित कर रही थी — यह आपातकाल के सबसे चिंताजनक पहलुओं में से एक था।

  • जनता के अधिकार-पत्र में सम्पूर्ण क्रान्ति के अन्तर्गत बदलाव मुख्य सात आयामों को चिह्नित किया गया था। 

1. गरीब तबकों को जीवन निर्वाह की आवश्यक वस्तुएँ मिलें।

2. एक जन-हितकारी दामनीति के जरिये जीवनोपयोगी वस्तुओं को लागत मूल्य-आधारित दाम पर उपलब्ध कराना, खेती और कारखाने की पैदावार में सन्तुलन और सामंजस्य, और किसी भी वस्तु के दाम को राष्ट्रीय आय की वृद्धि की दर से ज्यादा नहीं

होने देना चाहिए। 

3. सभी को आवश्यकता-आधारित न्यूनतम वेतन और 

आमदनी की गारण्टी मिले।

4. आर्थिक विषमताएँ कम की जाएँ और उन्हें न्यायपूर्ण मर्यादा में रखते हुए किसी भी हालत में 1:10 से ज्यादा न होने दिया जाए।

5. जमीन का न्यायपूर्ण वितरण हो, ‘जो जोते ज़मीन उसकी’ सिद्धान्त के अनुसार ज़मीन पर अधिकार हो, भूमिहीनों को वासगीत जमीन दी जाए और खेतिहर मजदूरों को उचित व न्यायपूर्ण मजदूरी मिले जिसका 

एक बड़ा हिस्सा अनाज के रूप में मिले।

6. सबको रोजगार मिले। कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का उपयुक्त टेक्नोलॉजी के प्रयोग से विकास किया जाए और औद्योगीकरण के कार्यक्रम को जनशक्ति के बड़े पैमाने पर उपयोग से जोड़ा जाए।

7. देश में सादगी और आडम्बरहीनता की व्यवस्था बने। इस दिशा में सरकार पहल करे और विलास की वस्तुओं के आयात और उत्पादन पर रोक लगे।

जयप्रकाश नारायण: विचार और आंदोलन की आत्म-समीक्षा- 

जयप्रकाश नारायण में जो आत्म-समीक्षा की आदत थी, वह उनके नैतिक और वैचारिक परिदृश्य को उजागर करती है। वे विचार और जमीनी हकीकत के बीच संतुलन बनाए रखते थे।

उनका दृष्टिकोण था –

> Democracy from below – और यही कारण है कि उनके आंदोलन से अनेक जमीन से जुड़े नेतृत्व (grassroots leaders) उभरे।

जेपी का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि वे अपने आंदोलन में शामिल नेताओं से लगातार संवाद करते थे। उनकी दृष्टि और संयम जहां तक अनुमति देता, वे वहीं तक आंदोलन को ले जाते। वे एक संवादधर्मी (dialogical) राजनेता थे, जो सामाजिक परिवर्तन को लोकतांत्रिक चेतना का प्रतिमान मानते थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक चेतना और संस्थाओं के  विस्तार को समर्पित किया।

संपूर्ण क्रांति का आह्वान- 

हर जनांदोलन में क्रांति के सूत्र की तलाश होती है, और यह तलाश आपातकाल के खिलाफ हुए आंदोलनों में स्पष्ट रूप से दिखाई दी। जैसे गांधी के लिए राज्यविहीन व्यवस्था, विनोबा भावे के लिए शोषण और शासन-मुक्त समाज, और मार्क्स के लिए राज्य के लोप का साम्यवाद। वैसे ही जयप्रकाश का “दलविहीन राजनीति” का चित्र एक सहज लोकतांत्रिक व्यवस्था का विस्तार है।

पॉलिटिकल करेक्टनेस नहीं, पॉलिटिकल राइटनेस की ज़रूरत – 

आपातकाल के समर्थकों और विरोधियों — दोनों के लिए यह आवश्यक है कि वे जयप्रकाश नारायण के विचार-दर्शन को समझें। वे “पॉलिटिकल करेक्टनेस” की अपेक्षा “पॉलिटिकल राइटनेस” को अधिक महत्व देते थे। इसे समझने के लिए आवश्यक है कि हम गांधीवादी दृष्टि के आलोक में सामाजिक आंदोलनों और राज्य सत्ता का पुनः विश्लेषण करें।

जेपी: न कांग्रेस विरोधी, न गैर-कांग्रेसी समर्थक- 

जयप्रकाश नारायण न तो कांग्रेस विरोधी थे, न ही गैर-कांग्रेसी राजनीति के अंधसमर्थक। वे लगातार सरकार की लोकतांत्रिक जवाबदेही और जनजागरण के पक्षधर थे। 

डॉ. लोहिया ने कहा था:

> “जिस प्रकार रोटी को न पलटें तो वह जल जाती है, उसी प्रकार राजनीति में परिवर्तन की आकांक्षा को भी जागृत रखना आवश्यक है।”

जब जनता सरकार बनी, तो मीडिया ने जयप्रकाश जी से पूछा — “अब तो सरकार आपकी बन गई है, आप अब क्या करेंगे?”

उन्होंने उत्तर दिया:

> “अब मैं जनता सरकार के कमियों को जनता के सामने लाऊंगा, और जनता को शक्तिशाली बनाऊंगा, ताकि यदि यह सरकार भी तानाशाही प्रवृत्ति अपनाए, तो जनता उसके विरुद्ध भी सत्याग्रह कर सके।”

आपातकाल और मध्यवर्ग की भूमिका- 

रजनी कोठारी जैसे समाजविज्ञानियों ने आपातकाल के विरुद्ध उठे जनांदोलन को एक सामूहिक Action  (collective action) के रूप में देखा।

आशिष नंदी बताते हैं कि कैसे भारतीय मध्यवर्ग ने अव्यवस्था और अराजकता के भय के कारण आपातकाल का समर्थन किया:

> “वे एक ऐसी राजनीति की तलाश में होते हैं जो ठोस, स्थिर और उद्देश्यमूलक हो। लेकिन विविधताओं से भरे 

समाज में यह खोज बहुत जल्दी ऐसे नेता की ओर मुड़ जाती है, जो समाज को जड़ कर दे और वह स्थिरता थोप दे जो इस सभ्यता की आत्मा को ही नष्ट कर दे।”

जन आंदोलन और लोकशक्ति की पुनःस्थापना- 

जयप्रकाश नारायण आपातकाल के माध्यम से सामने आए संकटों – व्यक्तिवाद, परिवारवाद, अधिनायकवाद – को सामूहिक प्रयासों से समाप्त करना चाहते थे। लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलनों के माध्यम से लोगों में सत्ता का भय समाप्त हुआ और जन-लोकतंत्र (People’s Democracy) की एजेंसी पुनः स्थापित हुई।

संपूर्ण क्रांति के दर्शन को समाज में लागू करने का प्रयास किया गया, जिससे आंदोलन के परिदृश्य में सृजनात्मक शक्तियों का जागरण हुआ। गांधी की राह पर चलते हुए, जयप्रकाश नारायण संपूर्ण क्रांति आंदोलन से उत्पन्न ऊर्जा को सामाजिक और राजनीतिक नवनिर्माण की दिशा में ले जाना चाहते थे।

संगठन और संस्थागत विरासत- 

छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी जैसे संगठनों ने सतत क्रांति के दर्शन को लगातार आगे बढ़ाया। लोकतंत्र में सुधार की प्रक्रिया को मजबूती मिली और “Watchdog of the People” के रूप में अनेक संस्थाएँ उभरीं। प्रो. रजनी कोठारी से लेकर बॉम्बे हाई कोर्ट के न्यायविद बम तारकुंडे जैसे लोगों ने इस 

लोकतांत्रिक विरासत को सशक्त करने का काम किया।

जयप्रकाश आंदोलन: शोषण के विरुद्ध चेतना और लोकतंत्र की पुनर्स्थापना- 

यह आंदोलन राज्य के शोषणकारी चरित्र को उजागर करने का एक सफल प्रयास था। जयप्रकाश नारायण के विचारों में लोक संग्रह (mass mobilization) के प्रति अद्भुत आकर्षण देखा जा सकता है।

साथ ही, बुनियादी सामाजिक और राजनीतिक बदलावों के लिए उनके भीतर एक गहरी बेचैनी भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से लेकर 1977 के जनांदोलन तक, यह बेचैनी और परिवर्तन की आकांक्षा स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपातकाल के खिलाफ प्रतिरोध- 

आपातकाल के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रतिरोध की आवाज़ें उठीं। Free JP Campaign, Indians for Democracy, और Friends of India Society International जैसे अनेक मंचों के माध्यम से यह स्पष्ट हुआ कि लोकतंत्र के पक्ष में जनचेतना न केवल भारत के भीतर, बल्कि विदेशों में भी विकसित हुई।

प्रोफेसर आनंद कुमार ने अपनी पुस्तक “इमरजेंसी की अंतर्कथा” में इस अंतरराष्ट्रीय प्रतिरोध की विस्तार से चर्चा की है।

बुद्धिजीवियों और संगठनों का समर्थन- 

देश-विदेश के प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों ने इस आंदोलन को समर्थन दिया और भारत में लोकतंत्र की बहाली के लिए एकजुट होकर आवाज़ उठाई।

आपातकाल के आंदोलन से प्रेरित होकर कई महत्वपूर्ण संगठनों का जन्म हुआ, जिन्होंने आगे चलकर भारतीय लोकतंत्र की नींव को मजबूत करने का कार्य किया।

इन संगठनों में प्रमुख थे:जनतंत्र समाज(सिटिज़न्स फॉर डेमोक्रेसी) ,पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (PUCL) , छात्र युवा संघर्ष वाहिनी आदि।

इन्हीं संगठनों ने जन आंदोलन की चेतना को लोकतांत्रिक सुधारों में परिवर्तित करने का कार्य किया।

जेपी आंदोलन की ऐतिहासिक देन- 

जेपी आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह था कि इसने जन आंदोलनों की एक नई परंपरा की नींव रखी, जो बाद में संगठित सामाजिक हस्तक्षेपों और राजनीतिक चेतना का स्रोत बनी। यह आंदोलन जयप्रकाश नारायण की नैतिक सत्ता का सशक्त उदाहरण था। उन्होंने लाखों लोगों में भयमुक्त चेतना (fearlessness) पैदा की। उनकी आवाज़ लोगों को शासन-प्रशासन के प्रति उत्तरदायी बनाती थी और उन्हें अधिनायकवादी सत्ता के विरुद्ध खड़े होने की प्रेरणा देती थी।

जयप्रकाश आंदोलन: शोषण के विरुद्ध चेतना और लोकतंत्र की पुनर्स्थापना- 

यह आंदोलन राज्य के शोषणकारी चरित्र को उजागर करने का एक सफल प्रयास था। जयप्रकाश नारायण के विचारों में लोक संग्रह (mass mobilization) के प्रति अद्भुत आकर्षण देखा जा सकता है। साथ ही, बुनियादी सामाजिक और राजनीतिक बदलावों के लिए उनके भीतर एक गहरी बेचैनी भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से लेकर 1977 के संपूर्ण क्रांति आंदोलन तक, यह बेचैनी और परिवर्तन की आकांक्षा स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।

आपातकाल का दर्द भारत की सामूहिक स्मृति (collective memory) से मिटाया नहीं जा सकता। आज भी विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा अपने भाषणों में इस दौर का उल्लेख बार-बार किया जाता है। हालाँकि, भारत की जनता ने इंदिरा गांधी को माफ कर दिया और उन्हें जनता सरकार के विघटन के बाद एक बार फिर सत्ता में लाया। 

अंत में, मैं एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए अपने लेख को समाप्त करना चाहूंगा। एक प्रसंग में उल्लेख है कि जब जनता सरकार बनने के बाद जयप्रकाश नारायण, इंदिरा गांधी से मिलने गए, तो दोनों एक-दूसरे को देखकर भावुक हो गए। आपातकाल के दौरान जब भी इंदिरा गांधी जेपी से मिलती थीं, तो वे स्वयं बहुत कम बोलती थीं — उनके चारों ओर मौजूद नेता या अधिकारी ही संवाद करते थे।

लेकिन इमरजेंसी के हटने और जनता सरकार के गठन के बाद जब जेपी इंदिरा गांधी से मिलने गए, तो उनके बीच हुई सीधी बातचीत में करुणा और आत्मीयता का भाव स्पष्ट रूप से झलकता था —

मानो यह संकेत हो कि सत्ता की सनक और हनक शांत होने के बाद ही हृदय की करुणा और अहिंसा की आवाज़ सुनाई देती है।

Long Live JP

Long Live Socialism

Long Live Democracy

(जयप्रकाश अमर रहें, समाजवाद अमर रहे, लोकतंत्र अमर रहे)

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