— डॉ० लक्ष्मीनारायण लाल —
सन् १६७० तक आते-आते सर्वोदयी जयप्रकाश ने यह महसूस करना शुरू किया कि सर्वोदय में प्रेम-तत्व तो है, पर अन्याय-असमानता जुल्म के खिलाफ़ संघर्ष-तत्व, लड़ाई लड़ने का तत्व, तो गायब है। गांधी में प्रेम और सतत संघर्ष, अनवरत लड़ाई लड़ते रहने का दोनों तत्व समान रूप से सदैव थे। सर्वोदय ने गांधीजी का प्रेम-तत्व तो लिया, पर ‘संघर्ष’, ‘युद्ध-तत्व’ छोड़ दिया। तभी सर्वोदय की आग ठंडी हो रही है और इससे कार्यकर्तागण निस्तेज और निष्प्राण हो रहे हैं। इसका एक कारण यह था कि सर्वोदय के काम का स्वरूप कुछ इतना सौम्य था कि उसमें इनके व्यक्तिगत जीवन पर कोई खतरा नहीं उपस्थित होता और न उसमें किसी बड़े बलिदान की माँग की जाती थी। संयोगवश उन्हीं दिनों मुसहरी-प्रखंड (मुजफ़्फ़रपुर) में नक्सलवादियों से जयप्रकाश का साक्षात्कार हुआ, जो अपने-आप में ही एक महत्वपूर्ण घटना है।
जयप्रकाशजी ने मुसहरी में उन तमाम कारणों को तलाशना शुरू किया, जो नक्सलवाद के विकास के लिए जिम्मेदार थे। उन्होंने नक्सली युवकों से कहा कि “अगर आप लोग डाकू और लुटेरे न हों और यह सारा काम क्रांति के नाम से किया हो, तो मैं कहना चाहता हूँ कि इस क्रांति से जो मानव बनेगा वह मानव नहीं, राक्षस होगा। इस प्रकार के काम से समाज में जो विकार पैदा होगा, उसका परिणाम अमानवीय संस्कृति में ही हो सकता है।”
जयप्रकाश का मुसहरी कथा-चरित्र इनके सर्वोदयी जीवन का एक ऐसा चरम अध्याय था, जहाँ पहली बार हिंसा को हिंसा के आमने-सामने खड़ा होना पड़ा था। जहाँ ग्राम-समुदाय के नैतिक और सामाजिक पुर्नानर्माण के प्रश्न के सामने ध्वंस और अंधविश्वास आया था। लोक-चेतना को राज्य-शक्ति के सामने परीक्षा देनी पड़ी।
जयप्रकाश ने मुसहरों की अग्नि-परीक्षा देते समय ‘आमने-सामने’ नामक एक प्रतिवेदन प्रकाशित कर कहा था : “यद्यपि सभी क्रांतियों में केन्द्रीय प्रश्न सत्ता का ही होता है और सभी क्रांतियों का आयोजन जनता के लिए सत्ता प्राप्त करने के नाम पर किया जाता है, तथापि हमेशा क्रांति करने वालों में से ऐसे मुट्ठी-भर लोगों द्वारा सत्ता हड़प ली जाती है जो सबसे ज्यादा निर्मम होते है। ऐसा होना अनिवार्य है, क्योंकि उनकी मान्यतानुसार) सत्ता बंदूक की नजी ने विस्वती है और बंदूक गामान्य जनता के हाथ में नहीं, बल्कि हिंसा के उन संगठित तंत्रों के हाथ में रहती है, जो हर सफल फांति में से कांतिकारी सेना’ तथा उसकी सहायक जमातों के रूप में पैदा होते हैं। इन तंत्रों पर जिनका नियंत्रण होता है, उनके ही नियंत्रण में सत्ता रहती है। यही कारण है कि हिसक-कांति हमेशा किसी-न-किसी प्रकार की तानाशाही को जन्म देती है। यही कारण है कि कांति के बाद शासकों एवं शोषकों का एक नया विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग कालांतर में पैदा हो जाता है, जिसके अधीन बहुसंख्यक जनता फिर एक बार गुलाम हो जाती है।”
राजनेताओं, राजनीतिक दलों और प्रायः सामान्यजन के लिए जे० पी० का यह सयोंदयी रूप बहुत ही कम लोगों की समझ में आया। इससे भी अधिक खास बात यह कि इस जे० पी० को प्रभावती के अलावा शायद ही किसी और ने पूर्णतः स्वीकारा हो। इससे अलग-अलग स्तरों और प्रसंगों से जे० पी० सेकौन नहीं नाराज, असंतुष्ट और समतभेद अलग हुआ ? जवाहरलाल नेहरू, डॉक्टर लोहिया, कृपालानी और यहाँ तक कि राजनीति में सबसे अधिक सहिष्णु, विद्वान् और सज्जन पुरुष आचार्य नरेन्द्रदेव भी। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से और सत्ता की राजनीति से अलग होकर, बल्कि रहकर; फिर भी किसी आंदोलन में, वह भी सबके ही उदय के आंदोलन में कैसे, क्यों रह सकता है ? जो किसी राजनीतिक दल में नहीं है, वह राजनीति में नहीं है, जो सत्ता का भूखा नहीं है, उसने राजनीति छोड़ दी। जिसने राजनीति छोड़ दी, फिर भी सबका उदय, सबका कल्याण चाहता है – वह क्या है ? ये प्रश्न नये प्रश्न थे, हैं, और सदा रहेंगे। निश्चय ही गांधीजी, जयप्रकाश जैसे लोग इस प्रसंग में याद किये जायेंगे। और इस प्रश्न का उत्तर हर किसी को खुद देना होगा।
फ़िलहाल गांधीजी शायद अनुत्तरित रह जायें, पर जयप्रकाश के बारे में सोचा जा सकता है और स्पष्ट कारण भी, बल्कि तथ्य भी पाया जा सकता है। जे० पी० का बयान है: “जिन कारणों ने मुझे पार्टी और राजनीति छोड़कर सर्वोदय-आंदोलनों में जाने को प्रेरित किया उनमें से वह बात्मिक दुःख भी था, जो पार्टी में चरित्र-वध और उसके विघटन के समय मुझे हुबा। राजनीति में मतभेद तो पैदा होते ही हैं और जब वह एक मर्यादा के बाहर चले जाते हैं, तो फिर जिनके मत मिलते नहीं, उनका अलग हो जाना स्वाभाविक होता है; परंतु हर मतभेद के लिए कोई गुप्त कारण है, कोई बुरी नीयत है, कोई आंतरिक दुर्बलता है- इस प्रकार की जब चर्चा और प्रचार होता है, तो यह अत्यंत दुखदायी होता है। आज तक मुझे विश्वास है कि उस समय के मतभेद इतने बड़े नहीं थे कि उनके कारण साथी अलग हों; परंतु जिनको ऐसा लगा कि वे साथ नहीं चल सकते, उनका अलग होना अनावश्यक होते हुए भी समझने लायक़ हो सकता है। फिर भी नीयत पर शक करना, चरित्र-वध का जहर फैलाना – यह तो राजनीति के दायरे के बाहर की बात होती है।”
(आचार्य नरेन्द्रदेव – ‘युग और नेतृत्व’, पृष्ठ ८. जयप्रकाश की भूमिका)
जे० पी०, लोहिया और आचार्य नरेन्द्रदेव को साथ लेकर जो सगुण राजनीति उस समय देश में चली, उसमें पहली बार इतने जीवंत ढंग से दो युगों का दायित्व-बोध महसूस हुआ –
“राष्ट्रीयता और समाजवाद दोनों को प्रतिष्ठित और पुष्ट करने का कत्र्तव्य। एक ओर, काल-विपरीत जाति-प्रथा और संकीर्ण सांप्रदायिकता का परित्याग कर ‘एक सामान्य चिह्न और सामान्य लक्ष्य’ के आधार पर हमें राष्ट्रीय भावना को सुदृढ़ करना है और दूसरी ओर, हमें समाजवादी समाज का निर्माण करना है। हमें केवल वर्ग-विहीन ही नहीं, जातिविहीन समाज के लिए भी प्रयत्नशील होना है।” (आचार्य नरेन्द्रदेव – युग और नेतृत्व’, पृष्ठ ३८८)
आचार्य नरेन्द्रदेव के साथ यहाँ तक आकर जयप्रकाश ने उस समय जब यह महसूस किया कि लोगों को राजनीति पर इतना विश्वास है और उससे इतनी आशा है कि जो कुछ कर सकती है वह केवल राजनीति ही कर सकती है, तो उन्हें अपार कष्ट ही नहीं, अपने पर और पूरे देश के लोगों पर ‘तरस’ आया।
इस गुणहीन राजनीति का विकल्प क्या है? और अगर है, तो वह इतनी प्रारम्भिक दशा में है- इस प्रसंग में जे० पी० का वह ऐतिहासिक पत्र समाजवाद से सर्वोदय की ओर विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उस पत्र के उपसंहार में जे० पी० ने बताया है कि सर्वोदय की भी अपनी राजनीति है, परंतु यह राजनीति भिन्न प्रकार की है। राजनीति से भिन्न यह जनता की राजनीति है। यह लोकनीति है। इसका लक्ष्य सत्ता नहीं, बल्कि सत्ता के सभी केन्द्रों को तोड़ना होगा। जितनी ही अधिक नयी राजनीति बढ़ेगी, उतनी ही पुरानी राजनीति घटेगी। राज्य का वास्तविक क्षय होना तो यही है।
जयप्रकाश की लोकनीति की राजनीति से नेताशाही का बहुत बड़ा धक्का लगा है।
सांस्कृतिक अर्थ में और संदर्भ में यदि हम राजनीति को देखें, तो गांधीजी ने भारतीय प्रसंग से ‘व्यक्ति’ की अवधारणा की; लोहिया ने ‘जन’ की और जे० पी० ने ‘लोक’ की।
आजादी के बाद कांग्रेस सरकार द्वारा गांधीजी के सपनों को पूरा न होते देख, तथा देश की दलगत राजनीति द्वारा ‘स्वराज्य’ की रूप-रेखा न बनती देख जयप्रकाश ने गांधीजी के सर्वोदय का मार्ग अपनाया। पर इस मार्ग को अपनी प्रतीतियों, आत्मानुभवों द्वारा जे० पी० ने स्वीकारा, इसे सदा याद रखना होगा। क्योंकि यह सच है कि हर व्यक्ति की दृष्टि अपनी विशिष्ट भूमिका से देखने की होती है। जो लोग उन अनुभवों से नहीं गुजरे हैं जिनसे जे० पी० गुजरे हैं, और न उन आदर्शों की साधना की है जो जे० पी० के आदर्श रहे हैं, वे शायद ही जे० पी० की लोकशक्ति को समझ सकें। पर जयप्रकाश के समस्त संघर्षों- बाह्य और आंतरिक दोनों का एक ही फल है- ‘लोक’।
सनातन से ‘लोक’ ने यही माना है कि उनकी भलाई और विकास की फ़िक्र उनको नहीं, किसी दूसरे का काम है। वह दूसरा राजा हो, पुरोहित हो, सेवा-संस्था हो या सेवक हो। जनता को केवल इतना ही करना होता है कि वे उनके प्रति वफ़ादार रहें और उन्हें कर दें, श्रद्धा-भक्ति दें, या दक्षिणा दें। संस्थावाद में इतना ही हुआ कि जनता के लिए सोचने वाली एजेंसी का आकार बढ़ा, व्यक्ति के स्थान पर संस्था अवश्य आयी, लेकिन प्रजा जहाँ की तहाँ रही। उसे अपनी सुख-शांति के लिए, अपने विकास और प्रगति के लिए व्यक्तिगत ठेकेदार के स्थान पर संस्थागत ठेकेदार मिला। संस्थावाद में अधिक लोगों के साथ मिलकर जिम्मेदारी उठाने की जोvपरिपाटी बनी, उससे जिम्मेदारी का दायरा व्यापक हुआ, लेकिन हानि यह हुई कि सोचने वाला प्रजा से अलग हो गया। व्यक्ति चेतन होता है और संस्था जड़। राजा, प्रजा, पुरोहित, यजमान और गुरु-शिष्य में हार्दिक और मानवीय संबंध होता था, जिससे समाज में एक आध्यात्मिक संस्कृति का निर्माण होता था। संस्थावाद में वह संबंध समाप्त हुआ। लोक-संचालन, लोक-कल्याण तथा लोक-शिक्षण एक जड़ प्रवृत्तिमात्र रह गयी, जिससे समाज में आध्यात्मिक मूल्यों का हास हो गया।
फिर भी संस्थाओं ने अपनी ताक़त से लोक-कल्याण-कार्य का काफ़ी विकास किया।
दुनिया अगर एक ही ढंग से चलती रहती, तो आगे भी यह विकास होता, लेकिन दुनिया की परिस्थिति और मानव की मनःस्थिति में इतना अधिक परिवर्तन हो चुका है कि अब संस्थाओं के सहारे न तो विकास का काम हो सकता है और न आवश्यकता पड़ने पर क्रांति ही।
मानवीय संबंध प्रथम और द्वितीय पुरुष के बीच होता है। अन्य पुरुष का संबंध किसी से नहीं होता, इसी कारण वह किसी के सुख-दुःख का भागी नहीं होता। फिर जब यह अन्य पुरुष चेतन व्यक्ति न होकर जड़ संस्था होता है, तो वह पुरुष न रहकर एक तत्व बन जाता है। अन्य पुरुष भूले-भटके कभी-कभी जनता से कुछ संबंध बना लेता है, लेकिन जड़ संस्था के स्वभाव में बह चीज नहीं होती। इसलिए मानवीय संबंध के अभाव की परिस्थिति में नैतिक और आध्या-त्मिक मूल्यों का ह्रास होता है। फलस्वरूप समाज में स्वार्थ की वृद्धि के कारण भ्रष्टाचार, शोषण तथा दमन का विकास होता है। शुरू-शुरू में जब सेवा, शिक्षण आदि संस्थाओं को सीधे जनता के सहारे जीना पड़ता था, तो संस्था के लोगों के लिए अनिवार्य होता था कि वे संस्था में रहते हुए भी जनता से कुछ व्यक्तिगत संपर्क करें।
लेकिन जबसे दुनिया में कल्याणकारी राज्यवाद का विचार आया है और संस्थाएँ उसी के सहारे चलने लगीं, तब से संस्था-सेवकों को अपने गुजारे के लिए जनता से सीधा संपर्क करने की आवश्यकता नहीं रही। अगर संस्था संचालन के लिए जनता से कुछ धन-संग्रह किया भी जाता है, तो उसका संचालन मुख्य संचालकों द्वारा ही होता है और संग्रह का क्षेत्र व्यापक होता है, जिससे स्थानीय सेवकों को स्थानीय जनता से सम्पर्क का कोई अवसर नहीं मिल पाता। ऐसे छोटे-छोटे अनेक कारणों से संस्था-सेवकों को आम लोगों से कोई सरोकार नहीं रह गया। भूदान, खादी या अकाल-निवारण जैसे काम में भी इतने व्यापक भ्रष्टाचार का जो वातावरण बना, उसका यही कारण है।
सर्वोदय की उसी पद-यात्रा में उड़ती हुई धूल से जे० पी० को अनुभूति हुई :
राजनीति नहीं, लोकनीति। राजनीति में प्रशासन मुख्य है, लोकनीति में अनुशासन मुख्य है। राजनीति में सत्ता मुख्य है, लोकनीति में स्वतंत्रता मुख्य है। राजनीति में नियंत्रण मुख्य है, लोकनीति में संयम मुख्य है। और तब धूल-कीचड़-भरे रास्तों और झाड़-जंगल के उस पार गंगा नदी का जल दिखायी पड़ने लगा- लोकतंत्र की पद्धति लोकमूलक ही हो सकती है, जिसकी प्रक्रिया संचालित समाज की न होकर सहकारी समाज की होनी आवश्यक है, वरना ‘लोक’ का शोषण पूंजीपति द्वारा होगा और ‘तंत्र’ का दमन नौकरशाही और सैन्य-शक्ति है