शब्दों में स्मृति, भाषा में भारत: कुबेरनाथ राय

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Parichay Das

— परिचय दास —

कुबेरनाथ राय का साहित्य एक दीर्घ, गहरे और गंगाजल-सा बहता हुआ गद्य-संसार है, जिसमें भारतीय आत्मा की नमी, गंवई संवेदना की गंध और वैश्विक दृष्टि की ज्योति एक साथ झलकती है। उनका लेखन केवल रचना नहीं, एक जीवन-वृत्ति है, जो समय और समाज के मध्य खड़ी होकर अपने होने की आभा फैलाती है। वे अपनी प्रत्येक पंक्ति में जीवन के सादे किन्तु गम्भीर पदचिह्न छोड़ते हैं, जहाँ एक ओर वह भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक बनते हैं, वहीं दूसरी ओर मनुष्य की संवेदना के गहनतम तल तक पहुँचने का दुस्साहस भी करते हैं।

कुबेरनाथ की भाषा जैसे मिट्टी में उग आई अक्षर-फसल हो। वह गद्य लिखते हैं, पर उसमें लय है, रस है, विराग और अनुराग है। उनकी लेखनी में रामचरितमानस का प्रभामंडल है, विद्यापति की मधुरता है और टैगोर की जीवन-दृष्टि का उदात्त है। वे जब ‘गंगा के तट पर’ बैठकर अपनी बात कहते हैं, तो ऐसा लगता है मानो किसी ऋषि ने नदी के किनारे ध्यानस्थ होकर लोक के लिए कोई शास्त्र रचा हो। गंगा उनके लिए मात्र नदी नहीं, एक भाव-संवेदना की धारा है, जो व्यक्ति और समाज के बीच सांस्कृतिक संवाद की वाहिका है। वे अतीत में डूबकर वर्तमान को आलोकित करते हैं और भविष्य के लिए एक मूल्य-निष्ठ परंपरा की नींव रखते हैं।

कुबेरनाथ राय का साहित्य भारतीय मन की सहजता, प्रांजलता और गहराई का ऐसा बिम्ब है, जो न तो परम्परा का अंध अनुसरण करता है और न ही आधुनिकता के नाम पर आत्मविस्मृति में लीन होता है। वे शास्त्र और लोक, भाषा और भाव, आत्मा और विचार—इन सबका संतुलन एक सूक्ष्म रेखा की तरह बनाए रखते हैं। वे एक ऐसे लेखक हैं जिनका साहित्य पढ़ते समय पाठक न केवल शब्दों में उलझता है, बल्कि विचारों में रमण करता है और आत्मा में स्नान कर आता है। उनकी दृष्टि आधुनिक है पर उसका मूलभार सनातन से पोषित है। वे रवीन्द्रनाथ की भांति आधुनिकता को भारतीय परंपरा में अवगुंठित कर प्रस्तुत करते हैं।

उनकी निबंधात्मक शैली केवल विषय को निबंध में बदलना नहीं, बल्कि उस विषय को एक गद्य-कविता का रूप देना है। उसमें दर्शन है, कथ्य है, रस है और सबसे ऊपर है—भाषा की आत्मीयता। उनका निबंध हिन्दी साहित्य में एक नवीन और प्रतिष्ठित विधा के रूप में स्थापित हुआ। उन्होंने इस गद्य-शैली को न सिर्फ़ जीवित रखा बल्कि उसकी गरिमा और ऊँचाई को भी युगानुकूल बनाया। वे जहाँ तुलसी के काव्य को गद्य में उतारते हैं, वहीं पश्चिमी विचारों का सम्यक् मंथन भी करते हैं।

उनका भारत बौद्धिक नहीं, सांस्कृतिक है; उनका राष्ट्र प्रेम घोषणा में नहीं, संवेदना में रचा-बसा है। वे उन दुर्लभ रचनाकारों में हैं, जो प्रगति की अंध दौड़ में शामिल नहीं होते, बल्कि हाथ पकड़ कर परंपरा की शीतल छाँह में बैठने का आमंत्रण देते हैं। वे आधुनिक मनुष्य से कहते हैं कि तुम अपने भीतर झाँको, वहाँ तुम्हारे पूर्वजों की परछाइयाँ तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं।

कुबेरनाथ राय का साहित्य ‘अतीत’ की ओर लौटने का आग्रह नहीं करता, वह अतीत के साथ चलने की शैली सिखाता है। वह परंपरा को बोझ नहीं बनाता, बल्कि उसे एक ऐसा दीपक बनाता है जिसकी लौ आधुनिकता के अंधकार को आलोकित करती है। उनके निबंध ‘गद्य के मंदिर’ हैं, जिनमें शब्द नहीं, मंत्र बसे हैं। वे भाषा के द्वारा आत्मा से संवाद करते हैं। उनका साहित्य पढ़ना जीवन के एक बड़े अनुभव से गुजरना है—जैसे कोई विचार-समृद्ध आपको अपनी चुप्पियों में वह सब कुछ सौंप दे, जो पुस्तकों में नहीं होता।

कुबेरनाथ राय केवल लेखक नहीं, एक सांस्कृतिक तीर्थ हैं। उन्हें पढ़ना, भारत को आत्मा से देखना है। उनका साहित्य उस मध्यमवर्गीय जीवन का गान है, जो साधारण होकर भी असाधारण है। उनके पास अभिजात्य नहीं, लोक की उजास है। वे हिंदी में गद्य लिखते हैं पर वह गद्य नहीं, एक साँस है जो पीढ़ियों को जोड़ती है। वे हमारे साहित्यिक मानस की उस आवाज़ का नाम हैं, जो चुपचाप बोलती है और देर तक सुनाई देती है।

।। दो ।।

कुबेरनाथ राय का साहित्य एक सांस्कृतिक आत्म-संवाद है, जिसमें भारत की मिट्टी की सुगंध, विचारों की गरिमा और भाषा की संजीवनी शक्ति एक साथ बहती है। वह केवल गद्य लेखक नहीं, एक सांस्कृतिक विचारक हैं—ऐसे विचारक जो शब्दों से जीवन की पुनर्रचना करते हैं। उनके निबंधों में जीवन की अर्थवत्ता छिपी हुई नहीं रहती, वह खुलकर सामने आती है, जैसे गांव के कुएं का पानी, जिसे कोई भी आकर पी सकता है। उनके गद्य की यही स्वाभाविकता, यही आत्मीयता उसे कविता के समकक्ष ले जाती है। वे किसी भी विषय पर विचार करते हुए उसे तात्कालिक संदर्भ से नहीं, सांस्कृतिक अन्विति के माध्यम से देखते हैं। कुबेरनाथ राय अपनी प्रत्येक कृति में उस भारतीय मानस को तलाशते हैं, जो उपभोक्तावाद और आत्महीनता के इस युग में कहीं गहरे दबा पड़ा है। वे उसे खोजते हैं, जैसे कोई ऋषि जंगल में अपनी दृष्टि से कोई गूढ़ अर्थ टटोलता हो। उनका लेखन न कभी उत्तेजित होता है, न अत्यधिक प्राज्ञ, बल्कि वह उस संतुलन पर खड़ा है, जहाँ बुद्धि, भाव और संस्कृति तीनों एक सूत्र में बंध जाते हैं।

उनकी भाषा संस्कृतिनिष्ठ है पर बोझिल नहीं। वे तात्त्विक भी हैं, पर बोधगम्य रहते हैं। वे दार्शनिक भी हैं, पर जन की चेतना से कटे हुए नहीं। यही विशेषता उन्हें भीड़ से अलग करती है। उनका ‘निबंध’ एक ऐसा ‘ललित कथ्य’ है, जो सैद्धांतिक न होकर भी वैचारिक होता है। वे तुलसीदास, कालिदास, गालिब और टैगोर की चर्चा करते हुए न तो परंपरा में अटकते हैं, न ही आधुनिकता के मोहपाश में जकड़ते हैं। वे समय को परंपरा से जोड़ते हैं और परंपरा को समय के सवालों से जोड़ते हैं।

गद्य में यह साहस कम ही लेखकों में दिखता है कि वे विचारों को इस प्रकार कलात्मक बना सकें कि वह न केवल पढ़े जाएँ, बल्कि पाठक के भीतर उतरकर वहाँ एक आवाज़ छोड़ दें। कुबेरनाथ राय की यही आवाज़ है—धीमी, गंभीर, लेकिन लगातार गूंजती हुई। वे जब भारत की चर्चा करते हैं तो वह केवल एक राजनीतिक भूगोल नहीं होता, बल्कि एक सांस्कृतिक जीवनदृष्टि होता है। उनके लिए ‘भारत’ एक जीवित परंपरा है—जो न तो पुरातनपंथी है, न ही आधुनिकता का अंध अनुकरण करती है।

उन्होंने बार-बार यह स्पष्ट किया कि यदि भारत को समझना है, तो उसके गांवों, उसके त्योहारों, उसके गीतों, उसके मिथकों, और उसकी ऋतुचक्रों की संरचना को समझना होगा। उनके लिए ‘कृषक संस्कृति’ कोई तात्कालिक अवधारणा नहीं थी, बल्कि वह एक दर्शन था, जो श्रम, लय और ऋतु से बंधा था। कुबेरनाथ की दृष्टि में संस्कृति कोई संग्रहालयीय वस्तु नहीं, बल्कि एक गतिशील जीव थी, जिसे प्रतिदिन जीया जाना चाहिए।

वे साहित्य को मात्र बौद्धिक खेल नहीं मानते थे, बल्कि उसे जीवन का शिल्प मानते थे। उनके लेखन में ‘सुंदर’ और ‘सत्य’ के बीच कोई द्वंद्व नहीं, बल्कि एक सहज संवाद है। वे सौंदर्य को दर्शन की तरह देखते हैं और दर्शन को काव्य की तरह जीते हैं। इसी कारण उनका गद्य कहीं-कहीं पद्यात्मक हो उठता है, और उनका विचार, कहीं-कहीं उपदेशात्मक होकर भी कलात्मक बना रहता है।

कुबेरनाथ राय का साहित्य समय के उस विरुद्ध प्रवाह का नाम है, जो सतह पर भले न दिखे, पर उसकी गहराई में पूरी सभ्यता की चेतना बहती है। वे अपने युग के आलोचक नहीं, साक्षी थे—साक्षी, जो आत्मा की आँखों से देखता है और संस्कृति की भाषा में बोलता है। उनकी दृष्टि में साहित्य केवल मनुष्य के मनोरंजन या विचारों का विस्तार नहीं है, बल्कि यह आत्मा का विस्तार है। यह आत्मा जब ‘गांव’ में जाती है, तो ‘भारत’ बनती है; जब वह ‘संस्कृति’ से मिलती है, तो वह ‘सभ्यता’ का नया अर्थ गढ़ती है।

उनकी वाणी में न कोई शोर है, न कोई दावा—सिर्फ एक मौन आग्रह है कि आइए, थोड़ी देर बैठिए, सोचिए, और इस सांस्कृतिक प्रवाह को समझिए। उनके साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वह हमें ‘रचनात्मक चिंतन’ की ओर खींच ले जाता है। यही उनकी ललितता है, यही उनकी कालजयीता।

।। तीन ।।

कुबेरनाथ राय की लेखनी में भारतीय मानस की वह आकांक्षा गूंजती है, जो आत्मचिंतन में डूबी हुई होकर भी जागरूक और संवादशील है। उनका साहित्य किसी रचना की तरह नहीं, बल्कि किसी प्राचीन मंदिर के शिलालेख की भांति अनुभूत होता है—जिसे छूते ही भीतर कोई स्मृति झंकृत हो उठती है। वे ललित निबंध के केवल शिल्पकार नहीं, उसके आध्यात्मिक गायक भी हैं। उनके यहां गद्य केवल सूचनाओं का प्रवाह नहीं, बल्कि भावनाओं की लहर है, जिसमें परंपरा, संस्कृति, विचार और सौंदर्य एक साथ स्नान करते हैं।

वे समय के चुपचाप चलने वाले साक्षी हैं, जो किसी तात्कालिकता के शोर में शामिल नहीं होते, बल्कि अपने मौन में एक स्थायी संवाद रचते हैं। उनका ‘गद्य’ अपने स्वरूप में एक ‘काल संवाद’ है—जहाँ हर वाक्य अतीत की परछाईं लेकर वर्तमान से गुजरता है और भविष्य के लिए एक मूल्य खड़ा करता है। वे आधुनिकता के उस स्वर को पहचानते हैं जो ‘भूलने’ की ओर ले जाता है, और उसी के विपरीत वे ‘स्मृति’ की सत्ता को साहित्यिक आधार बनाते हैं। उनके लिए साहित्य स्मृति का सौंदर्य है, जिसे शब्दों में रचकर वे एक नया समय गढ़ते हैं।

कुबेरनाथ राय के निबंधों में जो भारतीयता है, वह केवल प्रतीकों में नहीं, उसकी दृष्टि और दृष्टांतों में बसती है। वह भारत जो उनके गद्य में दिखता है, वह पौराणिक नहीं है, न ही आक्रोश से भरा हुआ कोई वैचारिक भारत, बल्कि एक धीमे बोलने वाला, शांत, पर गहरे अर्थों में सक्रिय भारत है—जिसमें मौसमों की तरह संस्कृति बहती है। वे हर बार, हर विषय में ‘ग्राम’ को, ‘लोक’ को और ‘भारतीय मन’ को केंद्रीय महत्व देते हैं। उनका यह आग्रह न तो भावुकता है, न ही अंधराष्ट्रवाद—बल्कि यह एक सजग सांस्कृतिक चेतना है, जो विश्व के समकालीन विमर्शों में भी अपनी जड़ें नहीं भूलती।

उनका ‘आत्मसंवाद’ हर बार पाठक को अपने जीवन में ले आता है। वह पाठक को केवल जानकारी नहीं देता, वह उसे उसकी जड़ों से जोड़ता है, जैसे कोई वृद्ध अपने पोते को पुरखों की कोई भूली हुई कथा सुनाता हो। और यही कुबेरनाथ राय के साहित्य की सबसे जीवंत विशेषता है—वह पाठक को ‘पाठक’ नहीं रहने देता, वह उसे ‘श्रोता’ बना देता है।

उनकी भाषा में कहीं कोई शिल्प का प्रदर्शन नहीं, न कोई आत्मप्रशंसा का भार—सिर्फ एक गहरे, आत्मीय और संकोचयुक्त वक्ता की सी ध्वनि है, जो जितना कहता है, उससे अधिक छुपाता है। और यही छुपा हुआ अर्थ पाठक को खींचता है, उसे ठहरने को कहता है, उसे सोचने की जगह देता है। कुबेरनाथ राय एक ऐसे लेखक हैं जो पाठक से जल्दी में पढ़े जाने की उम्मीद नहीं करते—बल्कि वे उस पाठक को आमंत्रित करते हैं जो बैठकर, थमकर, और भीतर उतरकर पढ़े।

उनकी लेखनी में कभी कोई नारा नहीं मिलता, पर वहाँ एक निनाद है, जो गहराई से आती है। वे किसी वाद के प्रचारक नहीं, बल्कि विचार के बागवानी करने वाले किसान हैं। उनके यहां ‘विकास’ केवल शहरों की इमारत नहीं, गांव की धरती है। उनके लिए ‘संस्कृति’ कोई लिफाफे में बंद परिभाषा नहीं, बल्कि आचरण की जीवंत शैली है। वे ‘राष्ट्र’ को परंपरा, आत्मा और सौंदर्य के सूत्र में गूंथकर देखने वाले दार्शनिक साहित्यकार हैं।

कुबेरनाथ राय के साहित्य में सबसे अधिक जो चमकता है वह है—एक ईमानदार चिंतन। वे विचारों को सौंदर्य में, सौंदर्य को भाषा में, और भाषा को जीवन में रूपांतरित करते हैं। यही उन्हें आधुनिकता में सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतिनिधि बनाता है। वे किसी विद्यालय, संस्था या प्रचार-तंत्र से नहीं, बल्कि अपनी गहराई और मौन से हमारे समय में उपस्थिति दर्ज कराते हैं। वे उन विरल साहित्यकारों में हैं जिनकी सबसे बड़ी विशेषता है—विनम्रता में जीने वाला बौद्धिक आत्मगौरव।

उनका साहित्य हमें यह सिखाता है कि परंपरा बोझ नहीं होती, अगर उसे जीने की लय आ जाए; और आधुनिकता विकृति नहीं बनती, अगर उसे मूल्य-आधारित दिशा दी जाए। कुबेरनाथ राय की यह मूल्य-निष्ठा ही उनके साहित्य को नित्य नया बनाती है—एक ऐसा ललित काव्य गद्य, जो ऋतुओं की तरह आता है, ठहरता है और फिर किसी स्मृति की तरह हृदय में उतर जाता है।

।। चार ।।

कुबेरनाथ राय के साहित्य में वह सूक्ष्म सांस्कृतिक रचना-दृष्टि उभरती है, जहाँ लेखक एक संवेदनशील ऋषि की तरह अपने समय, समाज और संस्कृति के साथ संवाद करता है—न तो शोर में, न तर्क के उन्माद में बल्कि एक शांत, संतुलित और आत्मगर्भित शैली में। यह वह परत है जहाँ उनका गद्य एकांत में बैठकर पाठक के भीतर उतरता है। वह गद्य, जो दिखने में सहज है लेकिन भीतर उतरते ही किसी पुरानी धुन की तरह मन को गूंज से भर देता है।

कुबेरनाथ राय का प्रत्येक निबंध जैसे किसी प्राचीन मंदिर की नक्काशी हो, जहाँ हर पंक्ति में कोई सूक्ष्म कथा, कोई लोकस्मृति या कोई सांस्कृतिक ध्वनि छिपी होती है। वह आधुनिक बौद्धिक लेखक नहीं हैं, जो शब्दों के माध्यम से वर्चस्व स्थापित करता है बल्कि वह एक ऐसे संस्कृति-योगी हैं, जो विचारों में विनम्रता का सौंदर्य बुनते हैं। उनके लिए लेखन कोई ‘शोभा’ या ‘प्रतिभा प्रदर्शन’ नहीं, बल्कि साधना है—जीवन की, आत्मा की और परंपरा की।

उनकी दृष्टि तुलसीदास के शील की है, कालिदास के काव्यत्व की है और टैगोर की व्यापकता की है। वे जब किसी विषय को उठाते हैं—‘लोक संस्कृति’, ‘ग्राम जीवन’, ‘भारतीय दर्शन’, ‘ऋतुक्रम’ या ‘संस्कृति का आत्म-गौरव’—तो वह विषय उनके यहां एक रूपक में बदल जाता है। वह सिर्फ़ विचार नहीं रह जाता, वह एक सजीव प्रतीक बन जाता है। यह प्रतीकीकरण ही उनके निबंध को ललित बनाता है और उनके विचारों को एक कलात्मक ताप।

वे हमें बार-बार स्मरण कराते हैं कि ‘भारत’ एक भूखंड नहीं, एक जीवन-पद्धति है। एक ऐसा जीवन जिसमें घर आँगन है, तुलसी चौरा है, अमावस की रात में कथा है, सावन में झूला है, खेतों में धान की गंध है और स्त्रियों के गीतों में ब्रह्मांड की ध्वनि। वे आधुनिकता को अस्वीकार नहीं करते, पर वे उसे आत्महीन बनने नहीं देते। उनका साहित्य ‘यथार्थ’ के पक्ष में है पर उस यथार्थ में ‘रस’ है, ‘लय’ है और ‘संवेदना’ की वह ध्वनि है जो किसी नदी की तरह बहती है।

उनकी भाषा में एक तरह का संयम है—जैसे कोई मितभाषी संत बोल रहा हो। उनकी भाषा कभी अति-सज्जित नहीं होती, कभी बौद्धिक छल-कपट से भरपूर नहीं होती। वह अपने भावों की सच्चाई में ही शिल्प गढ़ लेती है। यही कारण है कि कुबेरनाथ राय के निबंधों को पढ़ते हुए हमें भाषा नहीं, अर्थ दिखता है; शैली नहीं, जीवन झलकता है।

कुबेरनाथ राय उन विरल साहित्यकारों में हैं जो विचार को सौंदर्य में ढालने का कौशल रखते हैं। वे अपने लेखन में बार-बार यह सिद्ध करते हैं कि ‘साहित्य’ वह नहीं जो केवल विचार करता है, बल्कि वह जो ‘जीवन के मूल्य’ रचता है। वे विचार को भी ‘जीवन’ की तरह जीते हैं। उनका निबंध, गद्य का एक ऐसा रूप है जिसमें ‘विचार’ और ‘जीवन’ के बीच कोई दीवार नहीं होती। वहाँ जो कुछ भी लिखा गया है, वह ‘जिया गया’ अनुभव है।

वे ‘अज्ञेय’ की तरह आधुनिक होकर भी, ‘निराला’ की तरह लोकचेतस हैं। उनका आधुनिकता-बोध ‘पश्चिम’ के प्रभाव में नहीं, बल्कि ‘पूर्व’ की समझदारी में पला है। उनके लिए ‘सभ्यता’ केवल उपभोग का नाम नहीं, बल्कि एक ऐसी सतत रचना है जो ‘सौंदर्य’ के भीतर ‘धर्म’ की तरह बसती है।

कुबेरनाथ राय का साहित्य—विशेषकर उनके निबंध—हमें आत्मचिंतन की यात्रा पर ले जाते हैं। यह यात्रा बहिर्मुखी नहीं, अंतर्यात्रा है। वे एक ऐसे समय के लेखक हैं जब निबंध लिखना केवल विषय विश्लेषण का कार्य समझा जाता था पर उन्होंने उसे आत्मा की भाषा बना दिया। उन्होंने सिद्ध किया कि निबंध भी कविता की तरह जीवन का स्पर्श कर सकता है।

उनके साहित्य में जो धीमा स्वर है, जो चुप संवाद है, वह ही उसकी शक्ति है। वह इस बात का साक्ष्य है कि साहित्य की सबसे गहरी प्रभावशीलता शोर नहीं, शांति में होती है। यही कुबेरनाथ राय के गद्य की सबसे सघन और सारगर्भित ललितता है—जो लहर की तरह नहीं, धरती के भीतर की नमी की तरह आती है और पाठक की आत्मा तक पहुँच जाती है।

।। पाँच ।।

कुबेरनाथ राय का साहित्य एक ऐसी आलोक-धारा है, जिसमें भारतीय ज्ञान-परंपरा, सौंदर्यबोध और जीवन के शाश्वत मूल्यों की सांस्कृतिक पुनर्रचना होती है। यहाँ उनके लेखन की भूमिका केवल एक निबंधकार या आलोचक की नहीं रह जाती, बल्कि वे एक आत्मीय द्रष्टा, सांस्कृतिक संकल्पना के संयोजक और जीवन-दर्शन के कवि बन जाते हैं। वे गद्य में काव्य का, चिंतन में लय का, और परंपरा में नवता का ऐसा संधान रचते हैं, जो न केवल समय को स्पर्श करता है, बल्कि कालातीत होकर पाठक के अंतर्मन में उतरता है।

उनके निबंधों में बार-बार एक छवि उभरती है—एक बूढ़ा वटवृक्ष, जिसकी छाँव में बैठकर कोई युवा कवि अपने जीवन के अर्थ खोज रहा है। यही कुबेरनाथ राय की भूमिका है—संस्कृति और समय के बीच एक पुल की, एक शुद्ध गंगाजल जैसी भाषा की जो विचारों को पवित्र करती है, और पाठक को अपने भीतर झाँकने के लिए विवश करती है।

वे किसी वाद के अनुयायी नहीं हैं, न ही विरोध के लिए विरोध की कोई मुद्रा अपनाते हैं। उनका स्वभाव आलोचक का नहीं, सर्जक का है। वे भारत की आत्मा को केवल ‘चिंतन’ की नहीं, बल्कि ‘अनुभव’ की भूमि पर तलाशते हैं। वे जब ‘ग्राम संस्कृति’ की बात करते हैं तो वह किसी समाजशास्त्रीय खोज का विषय नहीं रह जाती, बल्कि एक जीवनानुभव बन जाती है। उनके लिए गाँव केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का अन्वेषण-स्थल है—वहाँ प्रकृति और संस्कृति एक साथ सांस लेती हैं।

कुबेरनाथ राय के यहाँ ‘ऋतु’ केवल जलवायु नहीं है, वह एक काव्यात्मक उपस्थिति है। ‘नदी’ केवल जल नहीं, वह स्त्री की तरह जीवन को ढोती हुई चलती है। ‘भूमि’ केवल खेत नहीं, वह स्मृति है, वह करुणा है। इन सबके माध्यम से वे एक ऐसे भारत की कल्पना करते हैं जो आधुनिकता की दौड़ में अपने मूल को न भूले। वे कहते हैं—“भारत को समझने के लिए उसकी ऋतुओं, उत्सवों और गीतों को समझना होगा।” यही उनकी सांस्कृतिक दृष्टि की गहराई है।

उनका निबंध अपने आप में किसी रचना-कला की संरचना है। उसमें एक लय है, एक अंतर्दृष्टि है, और एक विनम्र संवाद है। वहाँ शब्द न चमकते हैं, न गरजते हैं—वे धीरे-धीरे खुलते हैं, जैसे कोई मिट्टी में पड़ा दीपक किसी सांझ की प्रतीक्षा में हो। और जब वह दीपक जलता है, तब पाठक को केवल प्रकाश नहीं मिलता, उसे एक ‘दृष्टि’ मिलती है।

उनकी भाषा में जो शांति है, वह साधना की है। जो आलंकारिकता है, वह अंतःकरण की है। जो वैचारिक गहराई है, वह अध्ययन की नहीं, अनुभव की है। उनका साहित्य हमें बताता है कि विचार तभी सार्थक होते हैं, जब वे संवेदना में रूपांतरित हो जाएँ; और भाव तभी सुंदर होते हैं, जब वे संस्कृति की छाया में विश्राम करें। कुबेरनाथ राय का साहित्य इस संतुलन का सबसे सुंदर उदाहरण है।

उन्होंने जब ‘भारतीयता’ को देखा, तो वह किसी राष्ट्रवादी नारे की तरह नहीं, बल्कि एक आत्मीय लिपि की तरह देखा—जिसमें जीवन के छोटे-छोटे प्रसंग भी विशाल अर्थ पा लेते हैं। एक साधारण किसान, एक उत्सव में गाया गया गीत, एक टूटता हुआ त्योहार—इन सबको उन्होंने जिस आत्मीयता से देखा, वह उन्हें विशिष्ट बनाता है। उनकी दृष्टि में हर क्षण पवित्र है, हर स्मृति एक सभ्यता का अवशेष है, और हर मूल्य एक नयी सृष्टि की संभावना।

कुबेरनाथ राय के साहित्य को केवल पढ़ा नहीं जा सकता, उसे जिया जा सकता है। वह केवल विचार नहीं देता, वह एक लय देता है—जिसे पाठक अपने जीवन में अनुभव कर सकता है। यही कारण है कि उनके निबंधों को एक बार पढ़कर छोड़ा नहीं जा सकता; वे पाठक को बार-बार बुलाते हैं, जैसे कोई ऋषि किसी जिज्ञासु को बार-बार आश्रम बुलाता हो।

उनका लेखन न विराम मांगता है, न स्वीकार। वह केवल प्रवाह मांगता है—उस प्रवाह में भाषा की तटस्थता, विचार की गरिमा और जीवन की आत्मीयता है। यह प्रवाह ही उन्हें समकालीन साहित्य में विलक्षण बनाता है। कुबेरनाथ राय का साहित्य गद्य की लय में कविता है, और संस्कृति के रंग में डूबी हुई एक ऐसी दृष्टि है, जो आज भी हमारे भीतर बोल सकती है, अगर हम अपने भीतर कुछ शांति और कुछ स्मृति बचा सके हों।

।। छ: ।।

कुबेरनाथ राय का साहित्य उस लयात्मक अन्तर्ध्वनि का विस्तार है, जहाँ उनके गद्य में आत्मा की वह तरलता प्रकट होती है, जो न तो मात्र साहित्यिक प्रयोग है और न केवल वैचारिक आग्रह—बल्कि वह एक संवेदनशील ‘सांस्कृतिक आचरण’ है। वे साहित्य को किसी वाद, विमर्श या प्रचार के शस्त्र की तरह नहीं, बल्कि जीवन की गंध, रंग और स्पर्श से निर्मित एक आंतरिक अनुशासन की तरह रचते हैं। उनके लेखन में समय केवल एक धारणा नहीं, वह एक जीवंत पात्र है, जिसकी स्मृति में ग्राम्य संस्कृति की सुगंध, ऋतुओं का संगीत और परंपरा का सौंदर्य गूँजता है।

कुबेरनाथ राय के निबंधों को जब हम बार-बार पढ़ते हैं, तो हमें यह अनुभव होता है कि वे केवल विषय का प्रतिपादन नहीं कर रहे—वे पाठक के भीतर एक ‘भाव लोक’ का निर्माण कर रहे हैं। यह भाव लोक न केवल विचारों से बल्कि उन जीवन-कणों से बना है, जो अब लुप्तप्राय हैं। जैसे वे ‘मौसम’ की बात करते हैं, तो उसमें केवल पर्यावरण नहीं होता, उसमें माँ के सिर पर रखा हुआ सूरज, पिता की जाँघ पर झुका हुआ सायकल का हैंडल और किसी पोखर में रुक गया पुराना सपना भी होता है। यही उनके साहित्य को ‘ललित गद्य’ नहीं, बल्कि ‘गद्य-काव्य’ बना देता है।

उनका साहित्य स्वदेशी गंध से भीगा हुआ है, पर वह संकुचित नहीं है; उसमें वैश्विक चेतना का आलोक है। वे जापानी ‘जेन’ के संत जैसे लगते हैं—कम बोलते हैं, पर गहरे कहते हैं। उनका साहित्य रेखाओं में नहीं चलता, वह वृत्त में गूंजता है—जहाँ प्रत्येक विचार की परिक्रमा होती है, और प्रत्येक पंक्ति पाठक को अपने जीवन की परिधि में खींच लाती है। वे गाँव को देखते हैं, लेकिन उसमें केवल मिट्टी नहीं देखते; वे उसमें इतिहास, करुणा और धर्म के बीज खोजते हैं।

कुबेरनाथ राय के गद्य में जो विरल आत्म-तत्त्व है, वह आज के व्यस्त और अनुक्रियाशील साहित्य में दुर्लभ होता जा रहा है। वे जिस तरह अपनी बात कहते हैं, उसमें एक ध्यान है—एक लय, जैसे वे लिख नहीं रहे, बल्कि मन ही मन किसी पुरानी भाषा में गा रहे हों। पाठक वह गान सुनता है, और उसे लगता है कि वह अपने ही किसी भूले हुए पूर्वज की आवाज़ सुन रहा है।

उनके निबंधों की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वे पाठक को आत्ममंथन की ओर ले जाते हैं। वे उसे केवल यह नहीं बताते कि ‘भारत क्या है’, वे यह भी नहीं बताते कि ‘संस्कृति किसे कहते हैं’—बल्कि वे उसे अपनी स्मृतियों में लौटने को कहते हैं। वे पाठक के भीतर एक द्वार खोलते हैं, जिससे वह स्वयं अपने गाँव, अपने पेड़, अपनी भाषा, अपने गीत और अपने गुम हो चुके रिश्तों की ओर लौट सके। यह वापसी किसी क्रांति का आह्वान नहीं है, यह एक आत्मिक यात्रा है।

वे बार-बार आग्रह करते हैं कि मनुष्य को अपनी भूमि से, अपनी भाषा से और अपने लोक से संवाद करना चाहिए। वे मानते हैं कि आधुनिकता कोई रोग नहीं है, पर वह तब अपूर्ण है जब वह स्मृति और मूल्यों से कट जाती है। इसीलिए उनका लेखन आधुनिकता के भीतर से ही परंपरा को बुलाता है, उसे पुनःप्रकट करता है और उसे किसी संग्रहालय की वस्तु न बनाकर, एक जीवंत सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में सामने रखता है।

कुबेरनाथ राय की सांस्कृतिक दृष्टि, उनकी भाषा की मृदुता और विचारों की गरिमा, उन्हें केवल एक लेखक नहीं बनाती—वे अपने समय के ‘संस्कृति ऋषि’ बन जाते हैं। उनका लेखन ‘सर्जना’ नहीं, ‘तपस्या’ है। वह गद्य, जिसे हम सामान्यतः जानकारी का माध्यम मानते हैं, उनके हाथों में ‘संवेदना की विद्या’ बन जाता है।

कुबेर नाथ राय को हम न केवल उन्हें पढ़ते हैं, हम उनके साथ चलते हैं—ग्राम की मिट्टी में, मानस के पृष्ठों में, ऋतु की सुगंध में और स्मृति की झील में। कुबेरनाथ राय के साथ चलना, अपनी खोयी हुई संस्कृति को पुनः पाना है—क्योंकि वे कहते नहीं, दिखाते हैं; दिखाते नहीं, जीते हैं। और यही उनके साहित्य का सबसे बड़ा सौंदर्य है—वह केवल रचना नहीं, एक जीता-जागता अनुभव है, जो पाठक को सर्जक बना देता है।

।। सात ।।

कुबेरनाथ राय का साहित्य अन्तःप्रकाश का विस्तार है—ऐसा विस्तार जिसमें उनका गद्य एक प्रकार की तपस्वी भाषा में रूपांतरित हो जाता है। यह भाषा कोई चमत्कारमयी अभिव्यक्ति नहीं बल्कि वह मूक अनुभूति है जो ऋतुओं की तरह पाठक के भीतर उतरती है। जैसे शरद की हवा चुपचाप मन को शांत कर देती है, वैसे ही कुबेरनाथ राय की पंक्तियाँ पाठक की चेतना में एक विशेष प्रकार की ध्यान-संभावना पैदा करती हैं।

वे जिस लोक की चर्चा करते हैं, वह केवल भूगोल या जातीयता से जुड़ा हुआ नहीं होता। वह एक आत्मिक भूगोल है, एक सांस्कृतिक अंतःलोक। उनकी लोकचेतना नारे में नहीं, अनुभव में प्रकट होती है। वे जब गाँव की बात करते हैं, तो उसमें केवल बैल और हल नहीं होते—वहाँ पेड़ों के नीचे बिखरी धूप होती है, मिट्टी में सोई हुई भाषा होती है, और उस भाषा के भीतर समाई हुई स्मृति की सूक्ष्म गंध होती है।

उनकी सांस्कृतिक दृष्टि किसी मंत्रद्रष्टा कवि की तरह काम करती है—वह अतीत को वर्तमान में घोलती है और वर्तमान से भविष्य की ओर एक नैतिक मार्ग बनाती है। वह मार्ग वादों से नहीं बनता, वह संवादों से बनता है। कुबेरनाथ राय के निबंध दरअसल संवाद हैं—कवि और किसान के बीच, ऋषि और गृहस्थ के बीच, अतीत और भविष्य के बीच।

उनकी भाषा का आश्चर्य यह है कि वह किसी क्लासिक परंपरा की तरह ठहरी हुई नहीं है, वह गति में है लेकिन वह गति भी चंचल नहीं, संयमित है। जैसे किसी नदी की धारा जो शांत दिखती है लेकिन भीतर अनंत बहाव लिये हुए होती है। यही बहाव उनके गद्य की शक्ति है। वे कहीं भी उग्र नहीं होते, आक्रामक नहीं होते लेकिन वे हर वाक्य में एक सांस्कृतिक विमर्श को चुपचाप थामे रहते हैं।

वे अपनी आलोचना में कभी प्रत्यक्ष नहीं होते, लेकिन उनके मौन में एक ध्वनि होती है जो किसी ‘आदरपूर्ण असहमति’ की तरह उपस्थित रहती है। वे पश्चिम की आलोचना भी इस प्रकार करते हैं जैसे कोई बड़ों की भूल को संकेत में कहे। यही उनकी शैली की गरिमा है—विवेकशील असहमति।

उनके लिए ‘भारतीयता’ कोई रुढ़ि नहीं, एक जीवंत, बहुरूपा और बहुस्मृतिपरक अनुभव है। उनके गद्य में रामायण की छाया भी है, बुद्ध की करुणा भी, कालिदास की लय भी और महात्मा गांधी की सादगी भी। वे जब लिखते हैं तो ऐसा लगता है जैसे कोई वनवासी मुनि किसी यक्षप्रश्न का उत्तर दे रहा हो—धीरे-धीरे, शब्दों को चुनते हुए, और आत्मा की लय में डूबकर।

उनका लेखन, एक प्रकार से, आत्मसंवाद है। वे निबंध को आत्मकथ्य का विस्तार नहीं बनाते, लेकिन उसमें जीवन की एक दीप्त रेखा खींचते हैं, जो लेखक और पाठक—दोनों को जोड़ देती है। पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके ही भीतर कहीं बैठा है, उसी की भाषा में, उसी की स्मृतियों में।

उनकी गद्य-भाषा में अलक्षित रूप से एक रागात्मक संगीतमयता है। यह संगीत न तो अलंकारों का है, न शैली की सजावट का। यह उस मौन की ध्वनि है जो केवल अनुभवी श्रोताओं को सुनाई देती है—और यही कुबेरनाथ राय के साहित्य की सबसे बड़ी साधना है। उन्होंने गद्य को इस मौन का माध्यम बना दिया।

कुबेर नाथ राय का रचना- संसार दरअसल संभावना की भूमि है—जहाँ पाठक, लेखक की दृष्टि से अधिक अपनी आत्मा की आवाज़ सुनता है। कुबेरनाथ राय वहाँ उपस्थित नहीं होते, लेकिन उनके शब्द पाठक को अपने भीतर उतार ले जाते हैं। वे कहते नहीं, “मैंने यह देखा है”—वे केवल संकेत करते हैं, “तुम भी देखो, अपने भीतर।” यही संकेतात्मकता, यही अन्तर्लोक, यही सौम्यता, यही रचना-विवेक, उनके साहित्य की अंतिम ध्वनि है—जो पाठक के हृदय में देर तक गूंजती रहती है, जैसे मंदिर की घंटी की टंकार—जो बजने के बाद भी सुनाई देती रहती है और तब हम समझते हैं—कुबेरनाथ राय ने साहित्य नहीं लिखा, उन्होंने संस्कृति की आत्मा को साकार किया है।

।। आठ ।।

कुबेरनाथ राय का साहित्य उस सौंदर्य की अनुभूति है, जो न केवल देखे और समझे जाने के लिए होता है बल्कि भीतर से जिया और धारण किया जाता है। वे एक ऐसे सांस्कृतिक साधक के रूप में सामने आते हैं, जिनकी लेखनी ‘निबंध’ के पार जाकर एक दार्शनिक अनुभव की भूमि में विचरण करती है। उनका गद्य किसी दर्शनशास्त्री की गूँज नहीं बल्कि एक लोकमुनि की परिपक्व दृष्टि है—जहाँ हर पंक्ति किसी ‘शांति मन्त्र’ की तरह पाठक को भीतर-भीतर नहलाती है।

वे आधुनिकता को केवल आलोचनात्मक निगाह से नहीं देखते, बल्कि वह उसमें से भी भारतीयता की पुनर्खोज करते हैं। उनके लिए आधुनिकता कोई यूरोपीय या अमेरिकन उपज नहीं है—बल्कि वह तब तक अधूरी है जब तक वह भारतीय मानस, भारतीय दृष्टि और भारतीय लोक-चेतना के साथ संवाद नहीं करती। उनका दृष्टिकोण नव्य नहीं, नवोन्मेषी है; वह परंपरा को तोड़ता नहीं, उसमें से नया अंकुर उगाता है।

कुबेरनाथ राय जब ‘सभ्यता’ की बात करते हैं, तो वह इतिहास नहीं होता—वह एक आत्मसंवाद बन जाता है। उनके लिए सभ्यता की सबसे बड़ी पहचान उसकी ‘संवेदनशीलता’ है—किसी वृक्ष के नीचे बैठकर सोचने की ताक़त, किसी पुराने मंदिर की टूटी हुई मूर्ति को छूकर भाव-विह्वल होने की क्षमता। यही कुबेरनाथ राय के साहित्य की मूल चेतना है—वह ‘संस्कृति’ को किताबों से बाहर लाकर जीवन के सबसे सूक्ष्म क्षणों में महसूस करना सिखाते हैं।

उनकी शैली में जो धीमापन है, वह आलस्य का नहीं, वह उस धीरज का है जो पीपल के पेड़ में होता है—जो सौ वर्षों तक वहीं खड़ा रहता है, पर हर ऋतु में नए रंगों के साथ बोलता है। कुबेरनाथ राय का साहित्य भी ऐसा ही है—हर बार नया, पर मूल में वैसा ही शाश्वत।

कुबेरनाथ राय के निबंधों को केवल विचारों की दृष्टि से नहीं, बल्कि ‘जीवन की कला’ के रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए। वे प्रत्येक पाठ को एक साधना में बदल देते हैं—जहाँ भाषा, लय, विचार और स्मृति—चारों एक साथ एक प्रकार की ‘काव्य-यात्रा’ पर निकल पड़ते हैं। पाठक उस यात्रा में सहयात्री नहीं, सहानुभूतिज्ञ बन जाता है।

उनकी भाषा में जो आत्मीयता है, वह किसी लेखक की ‘बौद्धिक सजगता’ से नहीं आती, वह उनके जीवन-दर्शन से उपजी है। वे किसी से कुछ छीनते नहीं—वे केवल जोड़ते हैं। उनके निबंध किसी टूटे हुए भारत की मरम्मत नहीं करते—वे एक बिखरे हुए भारतीय मानस को उसकी असली शक्ल लौटाते हैं। यह ‘सजावट’ नहीं, यह ‘पहचान’ है। वे कहते हैं, भारत के भविष्य को समझना है तो उसके स्मृति-चिह्नों को पढ़ना सीखो—वे चिह्न जिनमें सुघड़ता नहीं, पर आत्मा की सच्चाई है।

कुबेरनाथ राय के लेखन में एक ऐसी शिष्ट सजलता है, जो आज के आलोचनात्मक और विवादप्रधान विमर्शों में दुर्लभ है। वे संस्कृति पर बात करते हैं तो उसमें कोई हठ नहीं होता, कोई वर्चस्व नहीं होता—बल्कि एक ऐसी सौम्यता होती है जो केवल उन्हीं के पास हो सकती है जिन्होंने जीवन को सतत प्रवाह व एक काव्य-शास्त्र की तरह जिया है।

कुबेर नाथ राय दार्शनिक की तरह नहीं, बल्कि संस्कृति के गायक की तरह उभरते हैं। उनके शब्द किसी शास्त्र की परिभाषा नहीं बनते, वे एक लोकगीत की तरह होते हैं—जो समय के पार भी गूँजते रहते हैं।

कुबेरनाथ राय के साहित्य व उनके लेखन में जो शांति है, वह केवल अध्ययन से नहीं, साधना से आती है। वह साहित्य नहीं, संस्कार है। वह वाक्य नहीं, मौन की सार्थकता है और यही उन्हें समकालीन निबंधकारों में अप्रतिम बनाता है।

।। नौ ।।

कुबेरनाथ राय मात्र एक निबंधकार नहीं, भारतीय संस्कृति के मौन द्रष्टा और सहृदय साधक हैं। उनके शब्दों में वह गहराई है जो किसी संत की दृष्टि से उतरती है और वह कोमलता है जो केवल उस व्यक्ति के भीतर हो सकती है जिसने मिट्टी, जल, ऋतु और स्मृति—चारों के साथ एकरूप होकर जीना सीखा हो।

उनका साहित्य किसी वाद की प्रतिक्रिया नहीं, वह एक स्वीकृति है—एक स्वीकार कि भारत की आत्मा अभी भी जीवित है, यदि हम उसकी धड़कनों को सुन सकें। वे परंपरा को संग्रहालय नहीं मानते, वे उसे जीवन का प्रवाह मानते हैं, जिसमें अतीत केवल पीछे नहीं होता, वह हमारे भीतर भी होता है—हर निर्णय, हर संवेदना, हर विचार में।

उनके निबंधों में ‘साहित्य’ और ‘संस्कृति’ कोई अलग-अलग संस्थाएँ नहीं, बल्कि एक अविच्छिन्न सम्वाद हैं। वे गाँव को केवल भूगोल नहीं, मनुष्य की आत्मा का विस्तार मानते हैं; और शहरीकरण को केवल भौतिकता की दौड़ नहीं, स्मृति से विच्छेदन की पीड़ा समझते हैं। इसी कारण उनका लेखन समकालीन होकर भी सनातन है, वह किसी युग विशेष का उत्पाद नहीं—वह युगों की परंपरा का जीवंत संकलन है।

कुबेरनाथ राय हमें यह नहीं सिखाते कि हमें क्या सोचना चाहिए बल्कि वे यह विनम्र आग्रह करते हैं कि हमें अपने भीतर लौटकर स्वयं सोचना चाहिए। यह लौटना किसी पलायन का प्रतीक नहीं, बल्कि एक पुनःजागरण की शुरुआत है। उनका साहित्य इसी पुनर्जन्म की आहट है।

उनकी भाषा, शैली और दृष्टि मिलकर एक ऐसा आलोक रचती है जिसमें हम अपने ही देश, अपने ही लोक, अपनी ही स्मृतियों को नये रंग में देख पाते हैं। यह देखने की कला, यह अनुभव की सूक्ष्मता—आज के शोरगुल भरे समय में एक मौन साधना की तरह हमारे भीतर उतरती है।

कुबेरनाथ राय का साहित्य पढ़ना केवल एक आलोचना-गतिशील क्रिया नहीं है, वह एक ‘संवेदनात्मक यात्रा’ है—जहाँ शब्द से अधिक अर्थ और अर्थ से भी अधिक भाव की उपस्थिति है। उनके साहित्य में जो शांति है, वह आत्मा की शांति है; जो स्वर है, वह मौन का स्वर है। कुबेरनाथ राय ने अपने गद्य से भारतीय संस्कृति की उस ‘नदी’ को फिर से बहाया है जो कहीं सूखने लगी थी। उन्होंने साहित्य को केवल रचना नहीं, संवेदना का तीर्थ बना दिया है। यही उनकी अप्रतिमता है, यही उनका अमर अवदान है।

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