दिशाहीन विकास: भारतीय पूँजीवाद की डूबती नैया

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— धर्मेन्द्र आज़ाद —

भारत का पूँजीपति वर्ग उस नाविक की तरह है जो समंदर में जहाज़ तो उतार देता है, लेकिन दिशा भूल चुका है। जब भारत आज़ाद हुआ, उसी दौर में आज़ाद हुए चीन ने मज़दूरों की ताक़त पर उद्योग खड़ा करना शुरू किया, टेक्नोलॉजी और वैज्ञानिक शोध में भारी निवेश किया, और एक वैज्ञानिक सोच आधारित संस्कृति को बढ़ावा दिया। भारत उस समय आधी-अधूरी “मिश्रित अर्थव्यवस्था” में उलझा रहा—ना सामंती ढांचे पूरी तरह टूटे, ना पूंजीवाद पूरी तरह विकसित हो सका। नतीजा: एक विचित्र किस्म की संरचना, जिसमें राज्य और निजी पूँजी दोनों अपनी ज़िम्मेदारियाँ एक-दूसरे पर टालते रहे।

भारतीय पूँजीपति वर्ग मुनाफ़ा तो चाहता है, लेकिन जोखिम, तकनीकी विकास, और नवाचार के बिना।

1991 में नई आर्थिक नीतियों के नाम पर ‘नया भारत’ बनाने का ढोल पीटा गया, जिससे आम जनता को कुछ समय के लिए उम्मीदें जगीं। मगर यह सपना भी जल्द ही उन चंद पूँजीपति घरानों के गोदाम में बंद हो गया, जिनके लिए ‘विकास’ का मतलब था — सरकारी ज़मीन, बैंकों का सस्ता कर्ज़, और मेहनतकश जनता की सस्ती मज़दूरी। फ़ैक्टरी बने या न बने, मुनाफ़ा चलता रहे।

हकीकत ये है कि 2011 में जहाँ पूंजी निर्माण देश की GDP का 33% था, वह अब घटकर करीब 19% रह गया है। यानी भारतीय पूंजीपति अब देश में निवेश नहीं कर रहे; वे बस कूपन काटकर IPO, शेयर बाज़ार और सरकारी कंपनियों की नीलामी से मुनाफ़ा बटोर रहे हैं।

जो अडानी-अंबानी जैसे बड़े पूंजीपति तेज़ी से बढ़ रहे हैं, वे असल में उत्पादन या नवाचार के दम पर नहीं, बल्कि सरकार से मिली छूट, कर्ज़ माफी, औने-पौने दाम पर ज़मीन और सार्वजनिक संपत्तियों की बिक्री जैसी नीतियों के चलते समृद्ध हुए हैं। बाक़ी अधिकांश उद्योगपति इस हद तक निर्भर हैं कि अगर बैंक लोन देना बंद कर दें, तो उनका धंधा ठप हो जाए। परिणामस्वरूप, छोटे और मध्यम उद्योग तबाह हो रहे हैं, जबकि बड़े पूंजीपति भी आत्मनिर्भरता की बात करते हुए विदेशी तकनीक और कच्चे माल पर निर्भर हैं।

मज़दूरों की हालत और भी दयनीय है।आज 90% से अधिक मज़दूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, जहाँ न स्थायी नौकरी की गारंटी है, न सामाजिक सुरक्षा।दस में से आठ फैक्ट्रियाँ चालाकी से सिर्फ़ दस से कम कर्मचारियों को “दिखा” कर श्रम क़ानूनों से बच निकलती हैं। इसका मक़सद साफ़ है—ESI, PF, ओवरटाइम पेमेंट और यूनियन जैसे अधिकारों से मज़दूरों को वंचित रखना। ठेका व्यवस्था और कैजुअल लेबर के ज़रिए मालिक मज़दूरों को कभी भी निकाल सकते हैं—बिना किसी जवाबदेही के। 8 घण्टे का कार्यदिवस कागज़ों में ही रह गया है; असल ज़िंदगी में मज़दूर 12 घंटे काम करके भी दो वक़्त की रोटी के लिए जूझते हैं।

यूनियन बनाने की कोशिशें लगातार कुचली जाती हैं। मज़दूर यदि हक़ की आवाज़ उठाए तो उसे “अवांछित तत्व” बताकर नौकरी से निकाल दिया जाता है। कोरोना लॉकडाउन में पैदल लौटते मज़दूरों की तस्वीरें इस व्यवस्था की संवेदनहीनता का सबसे कड़वा सच थीं। आज भारत में पूँजीपति वर्ग के लिए मज़दूर कोई इंसान नहीं, सिर्फ़ ‘श्रम लागत’ है—एक ऐसा खर्च जिसे वो कम से कम रखना चाहता है, चाहे उसके बदले इंसान की ज़िंदगी क्यों न बर्बाद हो जाए।

ऐसे असंतुलन के बीच स्वतंत्र पूँजीवादी विकास असंभव है। आज साम्राज्यवादी अमेरिका कहता है: हम तुम्हारे बाज़ार में निवेश करेंगे, लेकिन बदले में तुम्हें हमारे कानून, हमारे हथियार और हमारी विदेश नीति का समर्थन करना होगा।

एक हालिया उदाहरण लें—जब भारत और पाकिस्तान के बीच बमबारी शुरू हुई थी, जिसे गोदी मीडिया और भक्तमंडली ने एक जश्न की तरह दिखाया, ऐसा ग़ुबार खड़ा किया गया जैसे पाकिस्तान पर भारत का कब्ज़ा हो गया हो, तभी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने “व्यापार की धमकी” और “युद्ध रोकने” का दवाब बनाया। इसके तुरंत बाद युद्धविराम की घोषणा हो गई। उसके बाद भी ट्रंप ने बार-बार सार्वजनिक रूप से दावा किया कि “मैंने मोदी से बात की और युद्ध रुकवाया।” मोदी ने अभी तक इस पर एक शब्द नहीं बोला। इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि भारत की विदेश नीति किस हद तक साम्राज्यवादी अमेरिका के दबाव में चल रही है?

दूसरी ओर, साम्राज्यवादी चीन ने भारतीय बाज़ार की नस-नस तक पकड़ बना ली है। उदाहरण के लिए EV (इलेक्ट्रिक व्हीकल) उद्योग को लीजिए: अगर चीन से rare earth magnets की आपूर्ति एक महीने के लिए भी रुक जाए, तो भारत का पूरा EV उद्योग ठप हो सकता है। विडंबना ये है कि भारत में ऐसे खनिज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं, और IREL जैसी सार्वजनिक कंपनियाँ 1950 से इनका खनन कर रही हैं। लेकिन निजीकरण की नीतियों और सार्वजनिक क्षेत्र की जानबूझकर की गई उपेक्षा की वजह से भारत अभी भी इसे उपयोग लायक परिष्कृत करने से कोसों दूर है, जिसने हमारे देश को साम्राज्यवादी चीन पर पूरी तरह निर्भर बना दिया है।

अब सवाल उठता है—भारत का पूँजीपति वर्ग इस आत्मघाती रास्ते पर क्यों चल पड़ा?

असल में, भारतीय पूंजीवाद की रीढ़ शुरू से ही कमज़ोर थी, लेकिन 2008 की वैश्विक मंदी और 2011 के बाद के घरेलू संकटों ने इसकी असलियत पूरी तरह उजागर कर दी। उस समय सरकार ने बैंकिंग सिस्टम के ज़रिए भारी मात्रा में कर्ज़ बाँटकर स्थिति को संभालने की कोशिश की, लेकिन ज़्यादातर कंपनियाँ लड़खड़ा गईं और बैड लोन बढ़ते गए। ऊपर से मोदी काल के जीएसटी, नोटबंदी और फिर लॉकडाउन जैसे फैसलों ने छोटे और मझोले उद्योगों को गहरी चोट पहुंचाई। उत्पादन महंगा हुआ, मांग गिरी, और भारत साम्राज्यवादी चीन, वियतनाम और बांग्लादेश जैसे देशों से प्रतिस्पर्धा करने में पिछड़ता चला गया।

आज भारतीय पूंजीपति खुद उत्पादन नहीं करना चाहते—या तो साम्राज्यवादी चीन का माल बेच रहे हैं, या विदेशों में निवेश कर रहे हैं, या सिर्फ़ सरकारी रेंट और सब्सिडी पर पल रहे हैं। यह “लकवाग्रस्त पूंजीवाद” भारत को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करता है, जहाँ न नया निर्माण हो रहा है, न ही नौकरियाँ बन रही हैं।

सामाजिक स्तर पर इसके भयावह नतीजे सामने हैं: एक ओर बेरोज़गार शहरी मज़दूर और कर्ज़ में डूबा मध्यवर्ग, दूसरी ओर कम उत्पादक ग्रामीण अर्थव्यवस्था। भारतीय पूंजीवाद न तो सामंती अवशेषों को खत्म कर सका, न ही आधुनिक उद्यमिता को जन्म दे सका। नतीजा: तीन परतों वाली अर्थव्यवस्था—कंगाल बहुसंख्यक, खोखला मध्यवर्ग, और अमीर अल्पसंख्यक।

मोदी की राजनीति इसी अपूर्ण और असंतुलित पूंजीवाद की ही उपज है। देश के भीतर शेर, विदेश में लोमड़ी। यह पूंजीवाद अपने सामान्य विकासक्रम से नहीं गुज़र रहा। जहां पूंजीवाद अपने शुरुआती दौर में शिक्षा, रोज़गार, आधारभूत संरचना और स्वतंत्रता का विस्तार करता है, वहीं भारतीय पूंजीवाद एक परजीवी रूप ले चुका है—जो साम्राज्यवादी अमेरिका और साम्राज्यवादी चीन दोनों के सामने झुका हुआ है, और अपने नागरिकों को केवल धर्म, राष्ट्रवाद और झूठा गौरव परोसता है।

आज भारत वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था की सबसे कमज़ोर कड़ी है। और इतिहास बताता है—श्रृंखला वहीं से टूटती है, जहाँ वह सबसे कमज़ोर होती है। देश के स्वस्थ विकास और मेहनतकश वर्ग के लिये यह एक संकट ही नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक अवसर भी है—भारत के भविष्य के लिए।

तो अब सवाल सिर्फ़ यह नहीं है कि यह व्यवस्था कब टूटेगी—सवाल यह है कि उसके बाद क्या?

जब तक उत्पादन, संसाधनों और नीतियों पर आम जनता का स्वामित्व नहीं होगा, तब तक वही होगा—कुछ लोगों का मुनाफ़ा, बहुसंख्यकों का शोषण और विदेशी इशारों पर चलती सरकार।भारत को ज़रूरत है मज़दूरों, किसानों की शक्ति, वैज्ञानिक सोच और उत्पादन-केंद्रित नीतियों की—न कि नारों, ग़ुलामी और घरानों पर आधारित तमाशे की। संक्षेप में: समाजवादी व्यवस्था ही एकमात्र रास्ता है।

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