हिमालय में पारिस्थितिकी संकटों की भरमार

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— रवि चोपड़ा —

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नागधिराजः।

पूर्वापरौ  तोयनिधी विगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥

“उत्तर दिशा में, पर्वतों का सर्वोच्च देवता, दिव्य प्रकृति का स्वामी, हिमालय के रूप में जाना जाता है, जो पूर्वी और पश्चिमी महासागरों से उभरा है, मानो वह पृथ्वी का मापक हो।” (कालिदास की कृति कुमारसंभवम् से))

हिमालय बहुत दूर और भू-विज्ञान की दृष्टि से नाजुक है। वह ईकोलॉजी (पारिस्थितिकी) की विविधता  का धनी है और उसकी आबोहवा बहुत कठोर है। भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) की ये विशेषताएं हैं।  इन विशेषताओं के कारण वहाँ कभी इन्सान पहुँच नहीं पाया। नतीजा यह हुआ कि इस क्षेत्र के प्राचीन जंगल और संस्कृति जैसे थे वैसे ही बने रहे।  इसके प्रमुख सांस्कृतिक मूल्य थे -प्रकृति के प्रति श्रद्धा और उसका कम से कम उपयोग करने की आदत। लेकिन पिछले कुछ दशकों में वहाँ  हिमालय क्षेत्र में धड़ल्ले से  इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया जा रहा है, जैसे, हाई-वे, बाँध, रेलवे आदि। – शहरीकरण, पर्यटन और मैदानी इलाकों में औद्योगीकरण की दौड़ के कारण आर्थिक विकास की गति में उछाल आया है जिसने इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी, समाज और संस्कृति को गंभीर रूप से खतरे में डाल दिया है। 

परिचय

IHR में चार अलग-अलग पर्वत शृंखलाएँ शामिल हैं जो चार प्रमुख फॉल्ट-लाइनों से निकलती हैं: शिवालिक (हिमालय फ्रंटल फॉल्ट से), लघु हिमालय (मुख्य फॉल्ट लाइन से), उच्च हिमालय (मुख्य केंद्रीय फॉल्ट लाइन से) और ट्रांस-हिमालय (भारत और-तिब्बत को जोड़ने वाली पट्टी।

वैसे तो, हिमालय दूर से ख़ौफ़नाक दिखता है, लेकिन पास में जाएं तो पता चलता है कि किसी प्राचीन युग में जब भारतीय प्लेट यूरेज़ियन प्लेट से टकराई और उसके नीचे रगड़ खाती रही उस कारण उसके टुकड़े होते रहे जिसका ढेर लगता रहा और ऊँचे उठता रहा, उसके उपर जंगल बन गये, बर्फ़ की परतें चढ़ती रहीं और नीचे का मलबा ऊबड़-खाबड़ चट्टान में बदल गया।

हिमालय की ऊँची-ऊँची चोटियों ने  दुनिया भर की हवाओं के साथ दूरदराज़ के प्रदेशों से आए  पराग कणों और बीजों को अपने आँचल में सहज लिया और एक अभूतपूर्व जैव विविधता का ज़ख़ीरा सजा दिया।

इसमें उष्णकटिबंधीय (ट्रोपिकल) शुष्क पर्णपाती वनों (मॉनसूनी  वन जहाँ बारिश 70 से 100 से. मी. होती है) से लेकर समशीतोष्ण (टेम्परेट) उप-अल्पाइन (पहाड़ियों के निचले प्रदेश) और अल्पाइन (पहाड़ियों के ऊँचे प्रदेश जहाँ तक पेड़ ऊगने की गुंजाईश रहती है) की वनस्पतियां शामिल थीं, जिनमें लगभग 3000 मीटर  की ऊंचाई तक के पेड़ थे। अधिक ऊंचाई पर, अल्पाइन घास के मैदान जंगलों की जगह ले लेते हैं। महत्वपूर्ण बड़े जंगली जीवों में हिम तेंदुआ, कस्तूरी मृग, ऊदबिलाव, बारहसिंघा, बाघ, हाथी, घड़ियाल, महाशीर, मोनाल, हॉर्नबिल और तीतर पश्चिमी ट्रैगोपैन शामिल हैं। हिम तेंदुआ, हिमालयी भूरा भालू और पश्चिमी ट्रैगोपैन के अस्तित्व की सीमाएं इस क्षेत्र में हैं। हिमाचल प्रदेश में कालेसर वन्यजीव अभयारण्य हाथियों का आख़िरी मुकाम है, उसके पश्चिम में एशिया में कहीं भी हाथी नहीं पाए जाते हैं। 

पर्वत श्रृंखलाओं को चीरते हुए हिमनदों  से और बारिश में बह निकलते हज़ारों सोते और नदियाँ हिमालय की शृंखलाओं से  गुजरते हैं। विशाल ब्रह्मपुत्र, गंगा और सिंधु और उनकी सहायक नदियाँ ऐसे ही बनी हैं। ग्लेशियरों से कई नदियों को पूरे साल पानी मिलता है, लेकिन बारिश के कारण बनी धाराएँ, झरने और भूमिगत रिसाव मुख्य रूप से नदियों के वार्षिक जल मात्रामें बड़ा योगदान देते हैं।

हिमालय की पारंपरिक अर्थव्यवस्था में मुख्य रूप से तो गुज़ारे भर की खेती, वन संसाधनों, कारीगरी, कुछ खनन जैसे काम हैं और तिब्बत के साथ सीमा पार कुछ व्यापार भी चलता था।  वनों का नियंत्रण किसके पास है – राज्य के पास, या समुदाय के पास – उस आधार पर, वनों का या तो राज्य द्वारा शोषण किया जाता था या समुदाय को आजीविका के लिए संसाधन मिलते थे और  समुदाय नाजुक पर्यावरण की रक्षा भी करते थे। 1857 के बाद, बर्तानवी क़ानून- साज़ साज़ों और भारतीय रियासतों ने अपने क्षेत्रों में वनों पर एकाधिकार स्थापित करने के लिए क़ानून बनाए, और अक्सर स्थानीय समुदायों को पीढ़ी-दर-पीढी जो हक़ मिले थे उसमें सेंध लगाई।

स्वतंत्रता के बाद,  उपनिवेशवादी शासन की जगह देश के ही वाणिज्यिक हितों ने ले ली। वन राज्य के लिए प्रमुख आमदनी का ज़रिया  बन गए और वनों पर समुदाय का नियंत्रण धीरे-धीरे कमज़ोर हो गया। वनों की कटाई से मवेशियों के लिए चारा कम हो गया, कृषि उत्पादकता में गिरावट आई और ग़रीबी बढ़ गई। चूँकि पहाड़ी इलाक़ों में में खेती की पैदावार इतनी तो नहीं थी कि बेची जा सके, इसलिए विकास की योजनाएं बनाने वालों ने यहाँ खेती में पूँजी नहीं लगाई, भले ही ज़्यादातर पर्वतीय परिवार किसान थे। लोग अपने परिवार के लिए ज़रूरी अनाज भी पैदा नहीं कर पाते थे, इसलिये सक्षम पुरुषों का  काम की तलाश में  गाँव छोड़ना आम बात हो गई और पीछे रह गई महिलाएं।  अब उन पर ज़्यादा  बोझ आ गया। समुदाय संसाधनों का प्रबंधन करते थे, वह प्रणाली गिरती चली गई।

1970 के दशक की शुरुआत के लगभग दो दशकों बाद, उत्तराखंड में चिपको आंदोलन ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय जागरूकता बढ़ाई कि पहाड़ के पर्यावरण और उसके निवासी समुदायों को बनाए रखने के लिए एक सामंजस्यपूर्ण जन-वन संबंध बहुत ज़रूरी था। लेकिन बाद के दशकों में, इसके विनाशकारी प्रभाव के बढ़ते सबूतों के बावजूद राज्य और केंद्र सरकारों ने पारिस्थितिकी और स्थानीय संस्कृतियों को नज़रअंदाज़ कर के तेज़ आर्थिक विकास को प्राथमिकता दी। 

वनों की कटाई से पलायन में तेज़ी 

हिमालय की ईकोलॉजी का हृदय, वन हैं। वर्तमान पर्यावरण विरोधी आर्थिक विकास मॉडल के सबसे बुरे शिकार ये वन हैं। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ बचाव  में वनों की भूमिका अहम है। प्राकृतिक वनों का संहार एक बहुमुखी  आपदा है। प्राकृतिक वन और मिट्टी CO2 को अवशोषित करते हैं जबकि पौधे ऑक्सीजन छोड़ते हैं; वे वनस्पतियों और जीवों को आश्रय देते हैं, मिट्टी के कटाव और भूस्खलन को कम करते हैं। वे भूजल जल को रिचार्ज करने में मदद करते हैं जो झरनों, पहाड़ी धाराओं और घाटियों में नदियों के  प्रवाह का मूल आधार है। वन से स्थानीय समुदाय ईंधन, चारा, भोजन, जड़ीबूटियाँ  और आजीविका के अन्य साधन पाते हैं। वनों को पहुँचाए जा रहे इन  ज़ख़्मों पर मरहम की तरह पेड़ लगाए जाते हैं, जिसे अफोरेस्टेशन या प्रतिपूरक वनीकरण कहते हैं। लेकिन इन पेड़ों को बड़े होने में तो सालों लग जाते हैं। जितना कार्बन डायोक्साइड काट दिये गये पेड़ सोख सकते थे, उतना ये नए पेड़ नहीं सोख सकते। नए पेड़ बड़े  न हो जाएं तब तक  पेड़ों और जंगलों की कटाई से वार्षिक संसाधनों को जो नुक़सान होता है उसे भरपाई नहीं किया जा सकता है।

2021 में, भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग (Forest Survey Of India) ने अनुमान लगाया कि जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के वन विभागों के तहत भौगोलिक क्षेत्र की 22 प्रतिशत भूमि है। लेकिन इस भौगोलिक क्षेत्र में केवल 18.45 प्रतिशत भूमि पर वन हैं। इसमें हिमाचल के निजी वनों को शामिल करें तो यह संख्या भी बढ़ जाती है।

आज़ादी के बाद हिमालय शृंखला में वनों के आवरण के प्रमाण और गुणवत्ता में लगातार कमी आती रही है। राज्यों के वन विभागों ने बहुत बड़े क्षेत्र में चौड़ी पत्ती वाले बांज (ओक) और बुरांस (रोडोडेंड्रोन) के जंगलों का सफाया कर के औद्योगिक लकड़ी और राल के लिए चीड़ के वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया है। 1950 में महात्मा गांधी की सहकर्मी मीरा बेन ने वन विभागों से चीड़ के वृक्षारोपण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी, क्योंकि ये प्राकृतिक वनों जैसी पर्यावरणीय सेवाएं नहीं दे सकते हैं। 

1962 के भारत-चीन सीमा युद्ध के बाद, सेना कीआवाजाही को आसान बनाने के लिए सरहदों तक राजमार्ग बनाए गए । इसके बाद भारी मात्रा में वन काटे गये। वनों की कटाई ने स्थानीय आबादी को ग़रीब बना दिया। कई लोग पलायन कर गए, जिससे सरहद पर रक्षा की दूसरी पंक्ति – स्थानीय आबादी – कमज़ोर हो गई। चिपको आंदोलन के प्रभाव में उत्तराखंड में 1000 मीटर की ऊँचाई से ऊपर के जंगलों की कटाई को 1981 में अंततः रोक दी गई थी। 

केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) के आंकड़ों से पता चलता है कि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में 1991 से 2021 के बीच 71,684 हेक्टेयर वनों को  मुख्य रूप से बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए ग़ैर-वन ज़मीन ठहराया गया। इसके अलावा, कई जंगल ऐसे थे जिसको कहीं दर्ज़ नहीं किया गया था, वे सड़क बनाने या चौड़ी करने से हुए भूस्खलन के कारण नष्ट हो गए। उत्तराखंड में विवादास्पद चार धाम सड़क चौड़ीकरण परियोजना की निगरानी के लिए सुप्रीम कोर्ट की उच्चाधिकार प्राप्त समिति (एचपीसी) ने पहाड़ी कटाई के 12 महीनों के भीतर एनएच-125 पर 127 किलोमीटर के हिस्से में 44 भूस्खलन दर्ज़ किए। भूवैज्ञानिक जाँच और ढलान को बचाने के उपाय पूरी तरह से नाकाफ़ी थे। कई स्थानों पर निर्माण की वजह से हुए भूस्खलनों में  लोगों की जानें गईं, घरों, पहाड़ी झरनों, आजीविका संसाधनों और अन्य भौतिक बुनियादी ढाँचे  को नष्ट या क्षतिग्रस्त हो गये। इन्फ्रास्ट्रक्चर योजनाओं और शहरी क्षेत्रों के विस्तार के कारण वन्य जीवों  के बसने की जगह सिकुड़ने लगीं और परिणाम यह है कि मानव-वन्यजीव संघर्ष  बढ़ गये। 

हिमालय की पारिस्थितिकी नष्ट होने का कारणः पनबिजली

पनबिजली परियोजना (HEP) के लाभों का सत्ता में बैठी सरकारें नियमित रूप से ढींढोरा पीटती हैं। लेकिन हिमालयी HEP के गंभीर नकारात्मक पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव भी हैं, जैसे,  वनों की कटाई, नदी के प्रवाह में रुकावट, इकोसिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) को नुकसान, इकोसिस्टम से मिलने वाली सेवाओं में कमी, ढलानों की अस्थिरता, जल, वायु और ध्वनि प्रदूषण तथा निर्माण के विभिन्न चरणों और कमीशनिंग के बाद भूमि, घरों और आजीविका का नुक़सान। पर्यावरणीय प्रवाह को बनाए रखने, अफोरेस्टेशन (प्रतिपूरक वनरोपण), मछलियों को प्रवाह के विरुद्ध उपर की ओर जाने में सहायता के लिए सीढ़ीनुमा व्यवस्था का अभाव  और विस्थापित आबादी के पुनर्वास जैसे उपाय आम तौर पर आधेअधूरे या असंतोषजनक रहे हैं।

HEP आमतौर पर बाँध और बिजलीघर के बीच अधिकतम मात्रा में पानी खींचते हैं और नदी तल को दो या तीन किमी से लेकर लगभग 30 किमी तक के विस्तार में सुखा देते हैं। हिमालय की कई बड़ी नदियों में, HEP ने पानी के जीवों को ख़त्म कर दिया है और तटों की जैव विविधता को नुक़सान पहुँचाया है। कई बाँधों या बैराजों की शृंखला की योजनाएं बनाई गई हैं लेकिन उनका कुल मिला कर  क्या पर्यावरणीय प्रभाव होगा इसका व्यापक आकलन नहीं किया गया है, जैसे नदी का विभाजन और निरंतर स्थान बदलने वाली मछली  की प्रजातियों  को  ख़ास हिस्सों में अलग करना। मनेरी और कोटेश्वर के बीच भागीरथी नदी पर 110 किमी के अंतर में छह परियोजनाओं ने गंगोत्री से देवप्रयाग तक, जहां यह अलकनंदा से मिलती है, इसके मार्ग के 60% से अधिक मुक्त प्रवाह को बाधित कर दिया है । पांच प्रमुख जल विद्युत परियोजनाएं और एक बैराज सिक्किम और पश्चिम बंगाल में तीस्ता की 305 किमी लंबाई के मुक्त प्रवाह को बाधित करती हैं। 

पानी की अविरल धारा में रुकावट आने से प्राकृतिक जल की गुणवत्ता खराब हो जाती है। गंगाजल का गुण यह है कि वह अपने आप निर्मल हो जाता है लेकिन राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (NEERI) का एक गहन अध्ययन्बताता है टिहरी बाँध के कारण  इसकी यह क्षमता को गंभीर क्षति पहुँची है। 

बाँध बनाने के काम में ओवरबर्डन (ज़मीन से ऐसी कई चीज़ें निकलती हैं जिसको फिर से इस्तेमाल में लिया नहीं जा सकता), कीचड़ और मलबे की बड़ी मात्रा को नियमित रूप से नदियों में डाला जाता है, जो पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के नियमों का खुला उल्लंघन है। इससे पानी  गंदला हो जाता है जो  जलीय जीव-जंतु वहाँ से दूसरे स्थान पर चले जाते हैं।

IHR में भूस्खलन एक प्राकृतिक घटना है। लेकिन बाँध बनाने में चट्टानी ढलानों को तोड़ने के लिए डाइनेमाइट का उपयोग होता है जिससे अक्सर नाजुक ढलानें और कमज़ोर जाती हैं,  मौजूदा लोगों के मकानों को और अन्य स्थानों को नुक़सान पहुंचता है और झरनों का प्रवाह कम हो जाता है। उत्तराखंड में NHPC की धौलीगंगा (पूर्व) परियोजना में बड़े पैमाने पर भूस्खलन हुआ है। उत्तराखंड में NHPC की धौलीगंगा (पूर्व) परियोजना और अलकनंदा पर विष्णुप्रयाग HEP में 2007 में बड़े पैमाने पर भूस्खलन हुआ था।  हाल ही में, 20 अगस्त, 2024 को सिक्किम में NHPC की तीस्ता-V HEP साइट पर हुए भारी भूस्खलन के कारण तीस्ता चरण 5 और 3 को बंद करने की माँग उठी है। 

परियोजनाओं से प्रभावित आबादी का पुनर्वास और जीवन में पुनःस्थापन हमेशा एक समस्या बना रहे हैं। टिहरी जलाशय का किनारा ढलान ढहने के कारण भूस्खलन एक बड़ी समस्या है क्योंकि जलाशय का जल स्तर हर साल बढ़ता और घटता रहता है। प्रभावित समुदाय के लोग मोटे तौर पर सुरक्षित  मैदानी इलाकों में बसना चाहते हैं। लेकिन राज्य सरकार ने अदालती आदेशों के बावजूद ऐसा नहीं किया है। प्रभावित लोग न्याय के लिए संघर्ष  करते हैं, और इस कारण  IHR में कई परियोजनाएं लागू नहीं की सकी हैं।

धार्मिक पर्यटन तीर्थयात्राओं पर  भारी

उत्तराखंड में पवित्र तीर्थस्थलों की यात्राएं  आदि शंकराचार्य (लगभग 8वीं शताब्दी ई.) के बाद शुरू हुई। ये पारंपरिक तीर्थयात्री बहुत ही सीधेसादे थे। वे केवल उतना ही लेकर आते थे जिसे लंबी दूरी तक ढोना आसान होता था। वे अपने पदचिह्नों केअलावा कुछ नहीं छोड़ते थे। वे रास्ते में मंदिरों में ठहरते थे, मंदिर के कुंडों में स्नान करते थे और संतों से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करते थे। 15वीं या 16वीं शताब्दी के दौरान, स्थानीय शासकों और ग्रामीणों ने रास्ते में चट्टी या धर्मशालाएं बनवाईं, लेकिन 1950 के दशक तक भी, केवल कुछ हज़ार घुमक्कड़ साधु-संन्यासी और धनी भक्त ही कठिन चार धाम पदयात्रा करते थे। 

1962 में भारत-चीन सीमा संघर्ष के बाद, मोटर के लिए सड़कें बनीं, जिससे तीर्थस्थलों तक पहुँचना आसान हो गया। जल्द ही बसों, जीपों और कारों के क़ाफिले हज़ारों भक्तों को तीर्थस्थलों के बिल्कुल क़रीब के स्थानों तक पहुँचाने लगे। आज तो, बदरीनाथ और गंगोत्री के मंदिरों तक गाड़ियाँ चलती हैं और पैसे वाले यात्री तो हेलीकॉप्टर से केदारनाथ तक जाते हैं। 

भारत की वर्तमान परिवहन और संचार क्रांति के कारण धार्मिक पर्यटन में उछाल आया है। बदरीनाथ आने वाले श्रद्धालुओं और पर्यटकों की संख्या 2006 में 75000 थी जो  2019 में  बढ़कर 12 लाख पर पहुँच गई। पर्यटन उद्योग  पवित्र तीर्थयात्रा  पर हावी हो गया है। 

विडंबना यह है कि उत्तराखंड में चार धाम परियोजना, जिसे धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया है, राज्य में प्रकृति को बचाने की संस्कृति और परंपराओं को सबसे ज़्यादा भ्रष्ट किया है। अगर वर्तमान योजनाओं को लागू किया जाता है, तो भागीरथी के इको-सेंसिटिव ज़ोन में – गौमुख से उत्तरकाशी तक 11 किमी के दायरे में लगभग 10,000 देवदार के पेड़  काटे जाएंगे। यहाँ के लोग इस जंगल को गंगोत्री मंदिर के रखवाली करने वाले बाबा भैरव नाथ का रूप मानते हैं। लोहाघाट और चंपावत कस्बों में, एचपीसी की सिफारिश के खिलाफ, देवदार के जंगलों को चीर कर ग़ैरज़रूरी बाईपास बनाए जा रहे हैं । लोहाघाट का जंगल शहर के भूजल को रिचार्ज करता है,  और स्थानीय वन पंचायत ने इसकोर बनाए रखा  है। इस जंगल को काटने के बाद इन लोगों को प्रकृति को बचाने का उत्साह भी नहीं रहेगा।

अंधाधूँध शहरी विकास और पर्यटन में तेजी के कारण शिमला से लेकर शिलॉंग तक लोकप्रिय पर्यटन स्थलों पर जितने लोगों की पानी जैसी प्राथमिक ज़रूरत को पूरा किया जा सके उसे कहीं बड़ी संख्या में पर्यटक पहुँच जाते हैं। हर साल शिमला, धर्मशाला, मसूरी, नैनीताल, दार्जिलिंग, आइजोल और कोहिमा में गर्मियों में पानी का संकट सुर्खियों मे रहता है। जोशीमठ, धर्मशाला, शिमला, उत्तरकाशी, मसूरी, गोपेश्वर, नैनीताल, गंगटोक और दार्जिलिंग जैसे शहरों में भारी इमारतें बन रही हैं, जिसके दबाव से पहाड़ों की ढलानें नीचे धँस रही है और फिसल रही हैं।

राज्य सरकारें शहरी सड़कों को तेजी से चौड़ा कर रही हैं, पेड़ों से लदे रास्तों को खत्म कर रही हैं। देहरादून शहर में लगभग 65,000 पेड़, जिनमें साल और फलों से लदे  पक्के पेड़ शामिल हैं, काटे जा रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव

हाल के वर्षों में हिमालयी राज्यों में चरम मौसमी घटनाओं के कारण भूस्खलन और हिमस्खलन बहुत होने लगे हैं। जैसे-जैसे ग्लेशियर टूट रहे हैं और उच्च हिमालय में झीलें बन रही हैं, ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ) का खतरा बढ़ रहा है। अक्टूबर 2023 में एक जीएलओएफ ने सिक्किम की सबसे बड़ी पनबिजली परियोजना, 1,200 मेगावाट की तीस्ता -3 बाँध को कभारी नुक़सान पहुंचाया। 88,000 से अधिक लोग सीधे प्रभावित हुए- 40 लोगों की जान चली गई, 76 लापता हो गए और 33 पुल, दो सरकारी भवन और 16 सड़कें और राजमार्ग क्षतिग्रस्त हो गए। 

मुख्य केंद्रीय फॉल्ट के उत्तर में पैराग्लेशियल घाटियों में छोटी पहाड़ी धाराएं भारी तबाही मचा सकती हैं। फरवरी 2021 में, छोटी रौंथी गाड ​​धारा के ऊपर एक ग्लेशियल दीवार ढह गई और हिमस्खलन हुआ। 200 से ज़्यादा मज़दूर मारे गए या लापता हो गए। कई स्वतंत्र वैज्ञानिकों का मानना ​​है कि इस आपदा के बाद जोशीमठ में ज़मीन धँसने और ज़मीन खिसकने की समस्या और विकराल हो गई है। 

सर्दियों में बर्फबारी कम होने और गर्मियों में नदियों में पानी कम होने से घरेलू इस्तेमाल, सिंचाई और बिजली उत्पादन के लिए पानी कम मिलने लगा है। गर्मी के मौसम में हिमाचल में कभी ग्लेशियर पिघलने और बर्फ़बारी से बहने वाली नदियों से ज़्यादा बिजली पैदा होती थी।अब, कभी-कभी बिजली खरीदनी पड़ती है। जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान के कारण सेब के पेड़ों पर फूल आने में देर होने लगी है और हिमाचल और सिक्किम की सेब-आधारित अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। 

2024 की गर्मियों में, हिमालयी राज्यों में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी का दौर देखने को मिला। हर साल हजारों हेक्टेयर वन क्षेत्र में आग सुलग उठती है, जो फरवरी और मार्च की शुरुआत में शुरू होती है और पहली भारी बारिश के दौरान मिट्टी को सुखा देती है जो बह जाती है।। इसका एक कारण यह है कि चीड़ के वृक्षों को उगाने पर ज़ोर दिया जाने लगा, इस वजह से ये विविधता से भरे जंगल थे इसकी जगह पर चीड़ ही चीड़ मिलता है। हिमाचल में, अब 30 प्रतिशत जंगल में सिर्फ चीड़  के पेड़ हैं।

पर्यावरण विरोधी आर्थिक नीतियों को त्यागने का समय 

देश में अन्य जगह का जो विकास मॉडल  है वही हिमालय क्षेत्र में भी लागू किया गया है। यह मॉडल हिमालय क्षेत्र की ख़ुबियों और खामियों को नज़रअंदाज़ करता है। ठेकेदारों और भ्रष्ट या डरपोक अधिकारियों का एक शक्तिशाली गठजोड़  बन गया है और सिर्फ़ पांच साल के दृष्टिकोण वाले अदूरदर्शी राजनेताओं उनके नेता हैं। इन्होंने मिलकर आर्थिक विकास का विनाशक साँड  दौड़ा रखा है। पारिस्थितिकी और वन्यजीव क्षेत्रों की रक्षा करने या नदियों में स्वच्छ और पर्याप्त पानी के प्रवाह के लिए कई नियम बनाए गये हैं लेकिनअक़्सर ग़लत आँकड़ों के ज़रिए  इन नियमों को दिया जाता है। ज़्यादातर सरकारी नियंत्रक संस्थाएं  महज रबर-स्टॅम्प बन कर रह गई हैं।

तेज़ आर्थिक विकास के लिए राज्य की जद्दोजेहद हिमालय के पर्यावरण और विरासत के ख़िलाफ़ युद्ध का एलान है। केंद्र सरकार ने पर्यावरण की सुरक्षा के लिए बनाए गए मौजूदा क़ानूनों, नियमों और विनियमों को कमजोर करने के लिए संसद के माध्यम से विभिन्न विधेयकों को जल्दबाजी में पारित किया है। केंद्र के पर्यावरण के दुरुपयोग से उत्साहित होकर, क्षेत्र की राज्य सरकारें भी पर्यावरण नियमों का उल्लंघन करती हैं।

पर्यावरण संरक्षण हिमालय क्षेत्र में समान आर्थिक विकास और सीमावर्ती गांव लोगों के वहाँ टिके रहने के लिए एक अनिवार्य शर्त है ताक़ि भारत के पास रक्षा की एक मजबूत दूसरी पंक्ति हो। हिमालय क्षेत्र में समान और सतत आर्थिक विकास वन संरक्षण और जंगलों, झरनों और पर्वतीय नदियों के पुनर्जनन से शुरू होता है। वित्तीय ऋण और जलवायु के अनुकूल विज्ञान आधारित प्रथाओं -जैसे फसल गहनता की प्रणाली को बढ़ावा देने के साथ-साथ, यह लाभकारी कृषि और बागवानी को बढ़ावा दिया जा सकता है। प्रशिक्षित युवा प्राकृतिक पर्यटन के माध्यम से और हर जगह होम स्टे बना कर आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। ये पर्यटन तभी फल-फूल सकते हैं जब जंगल और नदियाँ स्वस्थ हों।

हिमालय के राज्यों में पेड़ों की कटाई और बाँध जैसे विनाशकारी इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्टों ख़िलाफ बढ़ते जन विरोध का नेतृत्व युवा लोग कर रहे हैं। यह महसूस करते हुए कि आज का पारिस्थितिक विनाश जल्द ही उनकी समस्या बन जाएगा, वे वनीकरण, नदियों की सफाई और सार्वजनिक शिक्षा के सकारात्मक अभियानों का साथ ले कर लड़ रहे हैं। आम नागरिक जन,  भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ और विकेंद्रीकृत शासन के अपने मुद्दों पर लड़ाई करने के लिए एक रणनीति बनाए यह निहायत ज़रूरी है।  पुराने कार्यकर्ताओं को भी  साथ में रखने से ऐसे बहुत जरूरी अभियानों को चालू ज़रूरीरखने के लिए राजनीतिक परिपक्वता आ सकती है।

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