गीता गैरोला की ‘ये मन बंजारा रे’

0

himanshu Joshi

— हिमांशु जोशी —

‘ये मन बंजारा रे’ केवल एक यात्रा वृत्तांत नहीं, बल्कि सामाजिक ढांचे, पर्यावरण, लैंगिक असमानता और सांस्कृतिक विरासत पर गहरे विचारों का संग्रह है। गीता गैरोला अपनी यात्राओं के माध्यम से समाज की परतों को उधेड़ती हैं। ‘मैं उन सब में बड़ी शादीशुदा होने की सामाजिक सुरक्षा वाले हथियार से लैस थी’ जैसी पंक्तियाँ सामाजिक ढांचे पर सवाल उठाती हैं। संभावना प्रकाशन से प्रकाशित यह किताब हिमालय भ्रमण के लिए गाइडबुक भी है।

‘चढ़ाई चढ़ने के साथ सूरज हिम श्रृंखलाओं को अपनी लाली से रंगने लगाया था। यह अक्टूबर का महीना था इस वक्त हिमालय दर्शन अवर्णनीय होता है।’ ऐसी पंक्तियाँ पाठकों को हिमालय की सैर कराती हैं। उत्तराखंड के मेलों का इतिहास और विवरण किताब को सांस्कृतिक धरोहर का दस्तावेज बनाता है।

पहाड़ी संसाधनों का अनकहा दर्द

गीता गैरोला पहाड़ के संसाधनों के दुरुपयोग को उजागर करती हैं। ‘अरे भूली कौन आता है यहाँ माल्टे खरीदने।’ यह पंक्ति संसाधनों की अनदेखी को दर्शाती है। पृष्ठ 16 पर वह लिखती हैं, ‘मुझे अचानक याद आया कि उद्यान विभाग फलों से जूस, अचार बनाना भी सिखाता है। इस बारे में उस वक्त वहां के दुकानदारों को कोई जानकारी नहीं थी।’ यह पहाड़ी उत्पादों के प्रति उदासीनता को रेखांकित करता है।

किताब में जलवायु परिवर्तन का जिक्र भी अहम है। ‘1987 की राजजात में शामिल लोगों ने बताया कि कभी ये झील इससे दुगुनी बड़ी थी।’ यह पंक्ति पर्यावरणीय बदलाव की गंभीरता को सामने लाती है। गैरोला की लेखनी पर्यावरण और संसाधनों के प्रति संवेदनशीलता जगाती है।

पितृसत्ता और लैंगिक असमानता पर प्रहार

गीता गैरोला पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देती हैं। ‘उसके बाबा ब्याह के सालों बाद पैदा हुए बैठे को छाती तान के शान से गोद में लिए घूमते थे। सोचा जरा देखभाल कर के बाप होने का फर्ज निभाने का मौका उन्हें भी दिया जाए।’ यह पंक्ति पुरुषों की जिम्मेदारी पर कटाक्ष है। वह लैंगिक असमानता पर भी सवाल उठाती हैं, ‘नन्दा भी तो औरत ही है माई जी और औरत होने के नाते उसको भी जरूर माहवारी होती होगी। एक औरत का इतना सम्मान और दूसरी तरफ जीती जागती औरतों के लिए यात्रा को वर्जित करना कहाँ का न्याय है।’

दलित महिलाओं का दर्द भी उनकी लेखनी में झलकता है, ‘हमारे समाज में आज भी दलित महिलाएँ दो तरह से प्रताड़ित होती हैं। दलित होने के नाते और औरत होने के नाते।’

सांस्कृतिक विरासत और अनचीन्हे रत्न

किताब उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को सहेजती है। सेवादास जैसे ढोलसागर पवाड़ों के ज्ञाता की चर्चा करते हुए गैरोला लिखती हैं, ‘हमें अपनी क्षेत्रीय प्रतिभाओं की पहचान कर कद्र करने की समझ कब आएगी? हमारे पहाड़ों में जाने कितने ऐसे रत्न अनचीन्हे रह जाते हैं और उनकी विद्या भी उनके साथ ही समाप्त हो जाती है।’ यह पंक्ति स्थानीय प्रतिभाओं की उपेक्षा पर चोट करती है।

गढ़वाली गीतों और उनके अनुवाद पाठकों को पहाड़ों से जोड़ते हैं। राजजात यात्रा का वर्णन, ‘गढ़वाल के चमोली जिले में नन्दा देवी की जात यूँ तो हर साल होती है पर बारहवें साल में की जाने वाली जात को राजजात (राजयात्रा) कहा जाता है,’ सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित करता है।

यात्रा का सलीका और व्यक्तिगत परिवर्तन

गीता गैरोला यात्रा का सलीका सिखाती हैं। ‘गर्म कपड़े, कैमरे के सैल, दो जोड़ी मोजे, विंडचिटर, टोपी, कुछ बेसिक दवाइयां, बोरोलीन, पानी का गिलास वाला फिल्टर, सुई धागे की रील, एक बड़ी पॉलीथिन शीट और एक डिबिया में नमक, सब चीजें याद कर के पिट्ठू में रख दी।’ यह सूची यात्रियों के लिए उपयोगी है। वह अपने अनुभव साझा करती हैं, ‘हमारे पास बदलने के लिए ज्यादा कपड़े नहीं थे, दिन भर जो कपड़े मोजे गीले हो जाते उन्हें रात को उतारकर पिट्ठू में रखे सूखे कपड़े और मोजे पहन लेते।’

राजजात यात्रा में पहली पांच महिलाओं में शामिल गैरोला लिखती हैं, ‘आज मैं कह सकती हूं स्त्रियाँ चाहें तो अपने लिए कुछ भी करने के लिए समर्थन जुटा सकती हैं।’ यह उनके व्यक्तिगत परिवर्तन को दर्शाता है।

सामाजिक चेतना और लेखन की सीमाएँ

गीता गैरोला की लेखनी सामाजिक चेतना से भरी है। पहाड़ी महिलाओं का कठिन जीवन, ‘अरे बाबा हमारे पहाड़ी लोग अपने बेटे के लिए बहु के रूप में मजदूर लाते थे। पहाड़ की हर औरत खेती के काम के साथ घास, लकड़ी काटकर सारी जिंदगी बाप का कर्जा ही तो चुकाती है,’ जैसी पंक्तियों में उजागर होता है।

उनकी केरल यात्रा में मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश और आर्टिकल 370 जैसे विषय उठते हैं। हालांकि, कुछ घटनाएँ, जैसे ‘मेरा हाँफता काँपता मन कह रहा था कि चढ़ाई चढ़ते कमल को पीछे से एक डंडे से सटाक मार दूं,’ किताब को अनावश्यक रूप से लंबा करती हैं। वह प्रकृति और वास्तुकला का वर्णन, जैसे ‘यहाँ पर स्थानीय लकड़ी, पत्थर की वास्तुकला से बने पत्थर की स्लेटों वाली छत के मकानों की बसावट देखने लायक है,’ को और विस्तार दे सकती थीं। फिर भी, उनकी सरल भाषा और साहित्यिक शैली, जैसे बकरी चरा रही लड़कियों को ‘तीन अप्रतिम सौंदर्य से पूर्ण वन कन्यायें’ कहना, पाठकों को बांधे रखती है।

Leave a Comment