शिक्षा के सवाल पर नोट

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2000 के वर्ष में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तब मुकेश अंबाणी के नेतृत्व में व्यापार संबधी परामर्श के लिए व्यापार मंत्रालय के तहत एक कौंसिल बनाई गई थी। कौंसिल के कन्वीनर मुकेश अंबाणी और एक सदस्य कुमार मंगलम बिड़ला ने उच्च शिक्षा में सुधार के लिए अपने सुझाव दिये। अंबाणी-बिड़ला रिपोर्ट का सारा ध्यान उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पूँजीनिवेश पर था।

रिपोर्ट में कहा गया कि सरकार को उच्च शिक्षा निजी क्षेत्र कें सौंप देनी चाहिए। सरकार उच्च शिक्षा पर जो ख़र्च करती है उसे प्राथमिक शिक्षा की ओर मोड़ना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा मुफ्त और अनिवार्य होनी चाहिए।

प्राथमिक शिक्षा के लिए अच्छी दिखने वाली यह सिफ़ारिश उच्च शिक्षा को अपने हाथों मे लेने की ही सिफारिश थी। अंबाणी-बिड़ला ने कहा कि शिक्षा को इस तरह मोड़ना चाहिए कि शिक्षित लोग देश के अर्थतंत्र में उपयोगी बने। छात्र शिक्षा पूरी करके employable – रोज़गार के लायक बनना चाहिए। इसका अर्थ यह होता है कि समाजविज्ञान, इतिहास,  साहित्य, भाषा और सैद्धांतिक विज्ञान के छात्र employable नहीं होते।इसलिए स्किल डेवलपमेंट के कार्यक्रम चलाए जाते हैं। मार्केट को जो चाहिए वही सच्ची शिक्षा है।

उच्च शिक्षा संस्थानों को स्वावलंबी बनाने पर भी इन उद्योगपतियों ने ज़ोर दिया। इसका मतलब कॉलेज ख़ुद कमाए। इसके साथ उनको अपने शिक्षा कर्मी अध्यापकों को पसंद करने की और उनको दी जाने वाली तनख़्वाह आदि का निर्णय करने की स्वतंत्रता भी होनी चाहिए।

पिछले कई सालों से सरकारी कॉलेजों में भर्ती बंद है। जो अध्यापक काम करते हैं वे ऍडहॉक हैं। अब ऍडहॉक भी नहीं होते, गेस्ट लेक्चरार होते हैं, जिन्हें दिहाड़ी मिलती है। हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय में भर्तियाँ हुई हैं, जिसका कोई मान्य  नहीं है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का – common sense rules – का उल्लंघन हुआ है। जैसे, 10 साल से ऍडहॉक स्टेटस के साथ काम करने वाला अध्यापक कॉलेज पहुँचता है तब उसे पता चलता है कि उसकी जगह एक नियमित अध्यापक की नियुक्ति ‘कल रात को’ कर दी गई।  ज़ाहिर है, आर एस एस से जुड़े हुए व्यक्ति को यह जगह मिल गई। इस तरह लाखोँकरोडों रुपये आर एस एस तक पहुँचा दिये गये।

देश के दो बड़े उद्योगपति अंबाणी और बिड़ला को जीवन में पढ़ाई के बाद शिक्षा से क्या नाता रहा होगा यह कोई कह नहीं सकता लेकिन पिछले 24 साल में इसके बाद जो भी सरकारी नियम बने, जो भी नीतियाँ आईं, सब अंबाणी-बिड़ला रिपोर्ट को लागू करने की दिशा में लिए गये क़दम थे।

नई शिक्षा नीति, NEP, भी अंबाणी-बिड़ला रिपोर्ट की कोख से पैदा हुई है।तमिल नाड़ु के मुख्य मंत्री श्टालिन ने तो इसके एक पहलू के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है, जो फेडरल सिद्धांत के ख़िलाफ़ है। बात यह है कि त्रि-भाषा फ़ार्मूला ग़ैर-हिन्दीभाषी राज्यों को हिन्दी अपनाने के लिए मजबूर करने का ज़रिया है। ऐसा न करने पर विकास फंड रोक लिया जाता है।

लेकिन NEP में बहुत सारी कमियाँ हैं। कमियाँ शब्द ग़लत है, क्योंकि इसमें एक खुली साजिश है। कोई सब्ज़ीवाला, बढ़ई, कारपेंटर,  कुम्हार, धोबी अपने बच्चे को इसलिए स्कूल भेजता है कि आगे चल कर उसे बाप के काम से मुक्ति मिले। प्राथमिक स्कूल से ही नई शिक्षा नीति में बचपन से ही स्किल सिखाई जाएगी। मिट्टी से खेलना, लकडी से खेलना,  खेत में जाना और सब्ज़ी के दो-चार पौधे लगाना, बच्चों को अच्छा लगेगा लेकिन उच्च वर्ग का बच्चा तो दो साल के बाद यह खेल छोड़ देगा। स्कूल के अधिकारियों को कुम्हार के बच्चे में मिट्टी के इस्तेमाल की, कारपेंटर के बच्चे में आरी चलाने की ‘नेचुरल स्किल’ दिख जाएगी और उसे उसी स्ट्रीम में भेजा जाएगा, जहाँ से उसका बाप उसे निकालना चाहता है।

अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच (AIFRTE) ने नई शिक्षा नीति का विरोध करने के 51 कारण बताए हैं जिनमें से कुछ यहाँ दिये हैं:

NEP 2020 तथाकथित ‘मेरिट’ की भ्रामक अवधारणा के माध्यम से प्रवेश, भर्ती और पदोन्नति में आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान की और सामाजिक न्याय के अन्य विधिवत प्रावधानों, जैसे छात्रवृत्ति, फैलोशिप, हॉस्टल, सब्सिडी आदि की अनदेखी करता है।
नीति में ‘मेरिट’ को शिक्षकों की योग्यता और पात्रता शर्तों के रूप में नहीं बल्कि “संस्था और समाज के प्रति प्रतिबद्धता और नेतृत्व गुणों को दिखाने” के रूप में समझा गया है। इससे ‘राजनीतिक रूप सेप्रतिबद्ध’ व्यक्तियों को शैक्षणिक संस्थानों में प्रशासन क व दूसरे ऊँचे पदों पर लाने की गुंजाइश बनती है।
NEP 2020 में भेदभाव से पीड़ित अनुसूचित जाति /जनजाति /अन्य पिछड़ा वर्ग/विकलांग और अन्य वंचित वर्गों को सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान का कोई उल्लेख नहीं है।
नीति जानबूझकर ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ शब्द की अनदेखी करती है जो आज़ादी की लड़ाई की विरासत का हिस्सा हैं
इसमें कहीं भी सभी बच्चों के लिए या वंचित वर्गों के लिए “मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा” के संवैधानिक जनादेश का उल्लेख नहीं है।
प्राथमिक शिक्षा

भारत में लगभग 1.5 मिलियन प्राथमिक स्कूल हैं

प्राथमिक स्कूलों में लगभग 35% शिक्षकों के पद खाली हैं।

– 2019-20 में, प्राथमिक स्कूलों में लगभग 14.8 करोड़ छात्र थे।

माध्यमिक शिक्षा

भारत में लगभग 2.5 लाख माध्यमिक स्कूल हैं

माध्यमिक स्कूलों में लगभग 50% शिक्षकों के पद खाली हैं।

– 2019-20 में, माध्यमिक स्कूलों में लगभग 3.4 करोड़ छात्र थे।

उच्च शिक्षा

भारत में लगभग 50,000 उच्च शिक्षा संस्थान हैं।

उच्च शिक्षा संस्थानों में लगभग 70% शिक्षकों के पद खाली हैं।

– 2019-20 में, उच्च शिक्षा संस्थानों में लगभग 3.7 करोड़ छात्र थे।

जो पद खाली हैं, उस पर शिक्षकों को ठेके पर रखा जाता है। आदिवासी और छोटे गाँवों में ठेके वाला शिक्षक स्कूल जाता ही नहीं है। वह किसी ओर को भेज देता है।सरपंच, ठेकेदार, शिक्षा विभाग के अधिकारी का एक जाल बुना हुआ है।

दिल्ली जैसे शहर में भी अब ‘नेबरहूड स्कूल’ जैसे पुराने प्रयासों को अलविदा कह दिया जाता है। दो स्कूलों को मिला दिया जाता है। इससे किसी एक एरिया के बच्चों के लिए स्कूल दूर हो जाता है। वहाँ जाकर पढ़ने के लिए वाहन की ज़रूरत होती है। गरीबों का ख़र्च बढ़ जाता है, इस कारण वह बच्चों को, और ख़ासकर लड़कियों को स्कूल से हटा रहे हैं।

2025 के बजट में शिक्षा के क्षेत्र के लिए आबंटित राशि पिछले वर्ष के मुक़ाबले 11,000 करोड़ रुपया ज़्यादा है लेकिन यह GDP का 1.55 प्रतिशत है। दुनिया में औसतन हर देश अपनी GDP 4 से 6 प्रतिशत शिक्षा के पीछे ख़र्च करता है।

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