— अरुण कुमार गोंड —
पढ़ना दरअसल महसूस करना है; और जब बात अपने आस-पास की हो, तो वो बात सीधे दिल में उतरती है। “ऑनलाइन डेटिंग” अब कोई किसी से छिपी हुई चीज़ नहीं रही, अब हमारे गांव-गली, शहर तक इसका असर दिखने लगा है। टेरी युलिक और एलीसा वोड्टके की पुस्तक Truth, Lies, and Online Dating: Secrets to Finding Romance on the Internet, 2005 को पढ़कर यह प्रतीत होता है कि इस बदलती दुनिया “ऑनलाइन डेटिंग” को समझने की एक सच्ची, सार्थक और ज़मीन से जुड़ी हुई जानकारी देने की कोशिश है।
एक समय था जब प्यार (Love) मेलों की रौनक, नदि/तालाबो के किनारे, गाँव की गलियों/बगीचों, कॉलेज की सीढ़ियों/कैंटीन या मोहल्ले की चाय की दुकानों पर अक्सर होता था। लोग आमने-सामने मिलते थे, नज़रें मिलती थीं, धीरे-धीरे बातें होती थीं, फिर दिल जुड़ते थे और रिश्ता बनता था। उस दौर में हीर-रांझा, लैला-मजनूं, सोहनी-महिवाल जैसे आशिक़ भी हुए, जिनका प्यार इतना सच्चा था कि वे समाज की बंदिशों से लड़ते हुए भी अपने रिश्ते को ज़िंदा रख पाए। उनका इश्क़ सिर्फ़ मुलाक़ातों का नहीं, बल्कि जज़्बातों और समर्पण का प्रतीक था। आज भी लोगों की चाहतें वही हैं- अपनापन, सच्ची दोस्ती, साथ निभाने वाला रिश्ता। लेकिन अब ज़माना बदल गया है। अब लोग मोबाइल की स्क्रीन पर, सोशल-मीडिया या डेटिंग ऐप्स के ज़रिए प्यार ढूंढते हैं। अब रिश्ते चैटबॉक्स की “Hii” से शुरू होते हैं, और आगे बढ़ते हैं प्रोफाइल की फोटो, अबाउट सेक्शन, पसंद-नापसंद और इमोजी तक। पहले किसी को देखने, उसकी बात सुनने से पहचान होती थी, अब प्रोफाइल बायो, फॉलोअर्स और ऑनलाइन एक्टिविटी देखकर लोग एक-दूसरे को समझते हैं। पहले दिल की बातें आँखों में होती थीं, अब वही बातें मोबाइल की स्क्रीन पर लिखी जाती हैं।
ऑनलाइन डेटिंग आज की सच्चाई है। अब किसी “बार” में हिम्मत जुटाकर किसी अनजान को अप्रोच करने की ज़रूरत नहीं रही। अब बस प्रोफाइल बनाइए, तस्वीर लगाइए और इंतज़ार करिए कि कोई से “मैच/मिलाप” हो जाए। सुनने में भले ही आसान लगता है, लेकिन असल में यह एक उलझा हुआ रास्ता की तरह है। ये अनुभव ऐसा है जैसे हम किसी बड़े बाज़ार में घूम रहे हों- जहाँ हर तरह की चीज़ मिलती है, पर भीड़ इतनी ज़्यादा है कि असल में ज़रूरत की चीज़ें खो जाती हैं। ऑनलाइन डेटिंग की दुनिया भी ऐसी ही है। यहां हर कोई है; कोई सच्चा साथी ढूँढ़ रहा है, तो कोई बस टाइमपास कर रहा है। कुछ लोग सिर्फ़ देखने/घुमने आए हैं, जैसे मॉल में लोग कपड़े देख कर लौट जाते हैं। कभी-कभी लगता है कि जैसे रिश्ते भी एक उपभोग की वस्तु बन गए हैं- “लाइक” करो, “कमेंट” करो, “फॉलो” करो, “स्क्रॉल” करो, “नेक्स्ट” करो। पहले लोग व्यक्ति को समझते-परखते थे, अब उनकी प्रोफाइल और बायो को पढ़ते हैं। पर ये भी सच है कि इस डिजिटल भीड़ में कुछ लोग वाकई सच्चे मिल जाते हैं; जो समय, दूरी और समाज की सीमाओं से परे जाकर सच्चा रिश्ता बनाते हैं। कुछ कहानियाँ कामयाब होती हैं, और वही उम्मीदें बाकी लोगों को इस दुनिया में बनाए रखती हैं।
हम सब कैसे प्राणी बनते जा रहे हैं?, जो आज के डिजिटल ज़माने में अपने प्यार की तलाश ऑनलाइन कर रहे हैं। लेकिन सच्चाई ये है कि जब दिल टूटता है, तो हम सब अंदर से बच्चे जैसे ही हो जाते हैं- डरते हैं, सहमते हैं, और फिर प्यार में दोबारा पड़ने से कतराते हैं। प्यार का सपना सब देखते हैं- किसी अपने को पाने का, पहली मुलाकात का, पहली बात का, और फिर उस एहसास का कि हाँ, शायद यही है वो इंसान जिसकी हमें तलाश थी। लेकिन उसी के साथ एक डर भी होता है- कहीं फिर से धोखा न मिल जाए, कहीं फिर से गलत इंसान से दिल न लग जाए। ऑनलाइन डेटिंग इस डर को थोड़ा आसान बना देती है- बिना मिले ही आप सामने वाले को थोड़ा-बहुत जान सकते हैं, उसके विचार, तस्वीरें और बातें पढ़ सकते हैं। लेकिन ये सब सच्चा तभी लगता है जब सामने वाला खुद के बारे में सच लिख रहा हो।
अफसोस की बात ये है कि ज़्यादातर लोग ऑनलाइन प्रोफाइल में अपनी सच्चाई नहीं बताते। पुरानी या एडिट की गई तस्वीरें डालते हैं, शादीशुदा होते हुए भी खुद को सिंगल बताते हैं, अपने जॉब या उम्र को लेकर झूठ बोलते हैं- और सब कुछ सिर्फ़ इसीलिए करते हैं ताकि कोई उन्हें कोई पसंद कर ले। पर सोचिए अगर आप किसी से झूठ बोलकर रिश्ता शुरू करेंगे, तो जब हकीकत सामने आएगी तो क्या वो रिश्ता टिक पाएगा? नहीं। सच कभी भी छुप नहीं सकता। सच पूछो तो यह बदलाव वैसा ही है जैसे मौसम बदलता है। रिश्तों का मौसम। पहले हवाओं में ख़त/चिट्ठी उड़ते थे, अब डिलिटेड मैसेजेस की परछाईयाँ दिखती हैं। पहले प्यार धीरे-धीरे होता था, अब “मैच” के बाद चैट शुरू होते ही अगले दिन “मिलना है या नहीं?” की बात आ जाती है।तो सवाल यह नहीं है कि “ऑनलाइन डेटिंग” सही है या ग़लत- सवाल यह है कि हम इस नई दुनिया को कैसे समझते हैं? क्या हम भीड़ में खोए एक चेहरे की तलाश में हैं, या बस भीड़ का हिस्सा बन चुके हैं?
कुछ सकरात्मक रूप में जब आपने “ऑनलाइन डेटिंग” साइट्स को खंगाल लिया, प्रोफाइल देख लीं, और कुछ चेहरे भी अच्छे लगे, तो अब वक्त है असली तलाश शुरू करने का। यानी अब “सर्च” का समय है। ज़्यादातर डेटिंग साइट्स पर खोजने की सुविधा होती है- आप उम्र, लिंग, स्थान, आदतें जैसे कि स्मोकिंग या व्यक्ति की स्थिति तक सब चुन सकते हैं। ये ठीक वैसे ही होता है जैसे किसी लाइब्रेरी में मनपसंद किताब ढूंढना। पहले आप सामान्य खोज करते हैं: जैसे 35 साल की महिला, जो स्मोकर न हो, पास ही रहती हो- ये सब सुनकर प्रोफाइल देख सकते हैं। लेकिन अगर आपको सही मैच चाहिए तो “रिफाइंड सर्च” ज़रूरी है। इसमें आप बहुत बारीक पसंदें तय कर सकते हैं- जैसे कद, रंग, राशि, वैचारिक झुकाव, जीवनशैली, यहां तक कि पालतू जानवर पसंद हैं या नहीं। हालांकि, जितना ज़्यादा आप छाँटेंगे, उतने ही कम परिणाम आएँगे। इसलिए थोड़ी लचीलापन रखना ज़रूरी है। कुछ साइट्स रजिस्ट्रेशन के बाद ही खोजने देती हैं, और कुछ मुफ़्त में भी प्रोफाइल दिखा देती हैं लेकिन अगर आप गंभीर हैं, तो सटीक सर्च से ही आप सही व्यक्ति तक पहुँच सकते हैं।
हर इंसान चाहता है कि कोई उसे उसके असली रूप में अपनाए; बिना किसी दिखावे के, बिना किसी बनावटी फिल्टर के। लेकिन आज की इस भाग-दौड़ और अकेलेपन भरी दुनिया में, ऐसा साथी ढूँढ पाना बहुत मुश्किल हो गया है। हम सब बहुत कुछ चाहते हैं, पर समझ नहीं आता कि उसे कहाँ और कैसे खोजें। इसी ज़रूरत ने हमें “ऑनलाइन डेटिंग” दी; एक नया रास्ता, एक नई उम्मीद। लेकिन ये रास्ता सीधा नहीं है। ये सिर्फ़ “Hi” बोलकर बात शुरू करने जितना आसान नहीं है। यहाँ हर प्रोफाइल के पीछे एक कहानी है, और हर मुस्कुराती तस्वीर के पीछे सच्चाई छिपी हो सकती है। इसलिए सबसे पहली और ज़रूरी बात है सच ही बोले- खुद से झूठ मत बोलिए, और सामने वाले से भी नहीं। अगर आपका वज़न थोड़ा ज़्यादा है, उम्र बढ़ रही है, या ज़िंदगी में कुछ उतार-चढ़ाव हो रहे हैं- तो वो बताने से रिश्ता मजबूत हो सकता है। झूठ की बुनियाद पर कुछ भी टिकता नहीं सकता है।
इस प्रकार आज का समाज डिजिटल रिश्तों की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है। “ऑनलाइन डेटिंग” ने रिश्तों की परिभाषा को बदला है- यह अब नज़रों से नहीं, प्रोफाइल और एल्गोरिद्म से तय होने लगा है। पहले जहाँ सामाजिक रिश्ते परिवार, जाति, वर्ग और परंपराओं से संचालित होते थे, अब व्यक्ति की “च्वाइस” और “डिजिटल प्रेज़ेन्स” इनकी दिशा तय कर रही है। लेकिन इस परिवर्तन के अपने संकट भी हैं। ऑनलाइन स्पेस में झूठ बोलना आसान हो गया है- लोग अपनी उम्र, रूप, या भावना को छिपाकर एक आभासी छवि बनाते हैं। इससे विश्वास का संकट पैदा होता है। संबंध तेज़ बनते हैं, पर उतनी ही तेज़ी से टूटते भी हैं, जिससे मानसिक असुरक्षा, अवसाद और अकेलापन बढ़ता है। गाँवों/शहरो में अब स्मार्टफोन और डेटिंग ऐप्स के ज़रिए युवा सीमाएँ पार रहे हैं, जो एक ओर उन्हें आत्मनिर्भर बना रहा है, लेकिन दूसरी ओर पारंपरिक मूल्यों में टकराव भी ला रहा है। प्रेम अब खुले मंच पर है, लेकिन परिवार, समुदाय और समाज इसके लिए अब भी पूरी तरह तैयार नहीं हैं। इसलिए, ऑनलाइन डेटिंग को केवल एक तकनीकी सुविधा नही मान सकते। यह हमारे समाज, रिश्तों, नैतिकता और विश्वास की संरचना को धीरे-धीरे पुनःगठन कर रहा है। ज़रूरत है कि हम तकनीक के साथ संवेदनशीलता, नैतिकता और जिम्मेदारी भी जोड़ें, ताकि डिजिटल प्रेम सतही न होकर सार्थक बन सके।
काफी अच्छा आर्टिकल है।