— अरुण माहेश्वरी —
13 जून 2025 की सुबह, जब इज़राइल के स्टील्थ जेट्स ने इरान की परमाणु सुविधाओं, नटांज़ और फोर्डो, पर सटीक बमबारी की, तो यह एक सैन्य हमला नहीं था—यह एक चिंगारी थी, जो अमेरिकी साम्राज्य की आर्थिक नींव के नीचे बिछे बारूद को भड़काने के लिए काफी थी।
तीन दिन बाद, 16 जून को, इरान ने तेल अवीव और हाइफ़ा पर मिसाइलों और ड्रोनों की बौछार की, जिसने शुक हकारमेल बाज़ार को खंडहर में बदला और हाइफ़ा की तेल रिफाइनरी को आग के हवाले कर दिया। तीस लोग घायल हुए, और वैश्विक तेल की कीमतें चार डॉलर प्रति गैलन से छलाँग लगाकर आसमान छूने लगीं।
यह युद्ध, सतह पर, तेल और शक्ति का क्षेत्रीय टकराव दिखता है, लेकिन इसके गहरे में कहीं सभ्यता के चित्त की गाँठें बंधी हैं—वह उल्लासोद्वलन (जुएसॉंस) जो पूंजीवाद की अतृप्त, अतिशय भूख में बसता है, और वह होमियोस्टेसिस, जो मानव सभ्यता की संतुलन की आकांक्षा में साँस लेता है। लगता है जैसे इज़राइल की धृष्टता ने किसी बिछे हुए बारूद को पलीता लगा दिया है और अमेरिका, अपने मोहरे को बचाने की उत्तेजना में, युद्ध की आग में कूद पड़ने पर मजबूर हो रहा है ।
लेकिन इरान के पीछे खड़े चीन और रूस, जो मिसाइल रसायनों, एस-300 हवाई रक्षा, और साइबर सहायता के जरिए संतुलन की रक्षा कर रहे हैं, वे अंततः इस आग को ऐसी वैश्विक, विस्फोटक घटना की ओर ले जा सकते हैं जिसके परिणाम चमत्कारी हुआ करते हैं ।
यह युद्ध पूंजीवाद के चरम अंतर्विरोधों के अंत का चरितार्थ होना प्रतीत होता है, जैसा कार्ल मार्क्स ने देखा था । इससे विपरीत अर्थ में हंटिंगटन के ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ व फुकुयामा के ‘इतिहास के अंत’ का तात्त्विक अर्थ भी प्रकट कर सकता है ।
सतह पर, यह युद्ध मिसाइलों और ड्रोनों का खेल है। इज़राइल की नब्बे प्रतिशत हमलों को रोकने वाली मिसाइल रक्षा, अमेरिका की टीएचएएडी प्रणालियाँ, और तीन अरब अस्सी करोड़ डॉलर की सालाना सहायता इस संघर्ष से जुड़े तथ्यों की टोपोलॉजी तैयार करते हैं। लेकिन यह टोपोलॉजी मानवता के चित्त की गाँठों के विक्षोभ को बाँधे रखने में विफल हो रही है — वह विक्षोभ, जो पूंजीवाद के चरम रूप साम्राज्यवाद की अतिशयता और मानव सभ्यता की संतुलन की आकांक्षा के बीच फटा जा रहा है।
अमेरिका, सताईस ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था और तैंतीस ट्रिलियन के कर्ज के बोझ तले, अपनी जुएसॉंस में बिल्कुल विक्षिप्त अवस्था में है। यह वह अतृप्ति है, जो वैश्विक वाणिज्य के अट्ठासी प्रतिशत पर डॉलर के नियंत्रण, मध्य पूर्व के तेल मार्गों पर वर्चस्व, और सात सौ सत्तर अरब डॉलर के रक्षा बजट के बाद भी संतुष्ट नहीं है। इज़राइल, इस साम्राज्य के मोहरे के तौर पर परमाणविक सुविधाओं के फोर्डो के गहरे बंकरों पर हमला करके उसकी विक्षिप्तता को राक्षसी स्तर तक पहुँचा रहा है ।
चीन के मालों पर साठ प्रतिशत टैरिफ, चार प्रतिशत मुद्रास्फीति, और चरम आर्थिक असमानता, जहाँ एक प्रतिशत के पास आधी संपत्ति है – इन तथ्यों से पहले से ही यह साम्राज्य खोखला होता जा रहा है । इज़राइल के हमले से अब यह खोखलापन जग-जाहिर होने जा रहा है ।
इरान का जवाबी हमला, जिससे तेल अवीव के बाज़ार और हाइफ़ा की रिफाइनरी तबाह है, केवल एक सैन्य प्रतिक्रिया नहीं है। यह वैश्विक स्थिरता (होमियोस्टेसिस) की आकांक्षा है । वह संतुलन, जो पूंजीवादी अतिशयता के खिलाफ मानव सभ्यता की जीवित रहने की पुकार में निहित है।
इरान, चीन, और रूस आज इस ख़ास संघर्ष में इसी आकांक्षा के वाहक हैं। चीन, उन्नीस ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था और सत्तर प्रतिशत रेयर अर्थ मिनरल्स के नियंत्रण के साथ, इरान को साइबर सहायता दे रहा है । यह साइबर खुफियागिरी की शक्ति, जो इज़राइली सैन्य नेटवर्क की निगरानी और जवाबी साइबर हमलों में इरान को लगातार सक्षम बना रही है। यह सहायता आज अमेरिकी साम्राज्य की डिजिटल नींव को हिलाने की क्षमता रखती है ।
दूसरी ओर रूस, यूक्रेन युद्ध में उलझा होने के बावजूद, अपने एस-300 सिस्टम और संभावित एसयू-35 जेट्स के जरिए इरान के साथ खड़ा है।
ब्रिक्स और वैश्विक दक्षिण इरान के साथ है । ये सब प्रतिरोध की उस शक्ति के प्रतीक हैं जो दुनिया को एक प्रतिशत लोगों के लालच से नहीं, बल्कि बहुसंख्यक की आकांक्षा से विकसित करने के पक्ष में हैं।
सैमुअल हंटिंगटन ने सभ्यताओं के संघर्ष को धर्म-आधारित संघर्ष के रूप में देखा था। पश्चिमी ईसाई सभ्यता बनाम इस्लामी दुनिया। लेकिन यह पूरी व्याख्या तेल, शक्ति, और पूंजी के खेल पर्दा डालती थी। इरान-इज़राइल युद्ध को भी यहूदी-शिया टकराव कहना इसकी सभ्यतागत गहराई को नजरअंदाज करता है। इसके अलावा, फ्रांसिस फुकुयामा ने पूंजीवादी लोकतंत्र को इतिहास का अंतिम पड़ाव कहा, लेकिन वह भी बचकानेपन के अतिरिक्त कुछ नहीं था। शायद वे पूंजीवाद को ही इतिहास का पर्याय मानते थे ।
आज, जब तेल संकट विश्व अर्थव्यवस्था को ठप कर सकता है, और परमाणु जोखिम—अमेरिका के सात हजार और रूस के पचपन सौ पारमाणविक हथियारों, की छाया में मानव अस्तित्व ही दांव पर है, तब हंटिगंटन का “सभ्यतागत संघर्ष” और फुकुयामा के “इतिहास का अंत” का भ्रम साफ तौर पर टूटता दिखाई देता है ।
आज चीन ट्रंप को उसके टैरिफ़ वार में रत्ती भर रियायत देने तैयार नहीं है और रूस की सामरिक शक्ति बनी हुई है । यही बताता है कि फिर एक बार दुनिया दो शिविरों में बँट चुकी है, जिसमें साम्राज्यवाद पतन की ओर है और स्थिरता, समानता और स्वतंत्रता की शक्तियां विकासमान है । शीतयुद्ध का अंत अब समाजवाद के पतन के रूप में नहीं, शांति और स्थिरता के पक्ष में होता दिखाई देता है।
यह युद्ध सभ्यताओं के संघर्ष और इतिहास का अंत का तात्त्विक रूप है। यह सभ्यता का वह चौराहा है, जहाँ मानवता को चुनना है—विक्षिप्त साम्राज्यवाद की आग में जलना, या एक स्थिर विश्व की कामनाओं की छाँव में साँस लेना। यह युद्ध वह तात्त्विक क्षण है, जो सभ्यता की नियति तय करेगा।