डॉक्टर लोहिया को सुनते हुए

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Dr. Shubhnit Kaushik

— शुभनीत कौशिक —

डॉ. राममनोहर लोहिया की किताबें और मस्तराम कपूर द्वारा सम्पादित उनकी रचनावली तो पहले भी पढ़ी थीं। मगर पिछले एक बरस से डॉ. लोहिया को सुनने का अवसर मिला। घर के काम निबटाते हुए या बलिया से बनारस की यात्राएँ करते हुए यूट्यूब पर उपलब्ध डॉ. लोहिया के भाषण एक-एक कर सुनता गया। प्रायः साठ घंटे के भाषण इस बीच सुन चुका। लोहिया को सुनना उन्हें पढ़ने से एक बिलकुल अलग अनुभव रहा। जीवंत, विचारोत्तेजक और संवादी।

कह सकता हूँ कि आज़ादी के बाद हिंदुस्तान के मन को मथने का जैसा उद्यम लोहिया ने लगभग बीस सालों तक अनवरत किया, वैसा प्रयास नेहरू जैसे कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो शायद ही किसी दूसरे राजनेता ने किया हो। समाजवादी पार्टी के सम्मेलनों या युवजन सभाओं में दिए गए घंटे-घंटे भर के व्याख्यान। और इन व्याख्यानों में उभरकर आते हैं लोहिया के व्यक्तित्व के बहुत-से आयाम और उनके विविध राजनीतिक-सामाजिक सरोकार।

ऐसा क्या है इन व्याख्यानों में? इन व्याख्यानों में हिंदुस्तान के सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन में पनप रही जड़ता को तोड़ने का एक अटूट संकल्प है। संकल्प है निराशा के कर्तव्यों को याद रखने का। निश्चय है हिंदुस्तानी समाज की पीछे देखू प्रवृत्ति को आगे देखू प्रवृत्ति में बदलने का। हार, उपेक्षा, अवहेलना सबका सामने करते हुए अपनी जिजीविषा बचाए रखने का साहस है इन व्याख्यानों में। नाउम्मीदी के दौर में उम्मीदों की राजनीति की पैरोकारी करते हैं ये व्याख्यान।

जाति, जेंडर, वर्ग, धर्म के जिन सवालों से आज इक्कीसवीं सदी के हिंदुस्तान में नेता कतराते हैं, उन सवालों से टकराते हैं इन व्याख्यानों में लोहिया। बार-बार वे गैर-बराबरी के सवाल पर लौटते हैं। वे इन सवालों को सभाओं में उठाकर ही नहीं रुकते बल्कि नौजवानों का आह्वान करते हैं कि वे इन सवालों को लेकर अपने शहर, गाँव, क़स्बे, विश्वविद्यालय और कॉलेजों में लौटें और वहाँ संवाद का चक्र चलाएँ इन सवालों पर। लोगों के दिलो-दिमाग़ को झकझोरें इन सवालों से। कि वे उस जबदी हुई मनोवृत्ति को तोड़ें जिसमें हिंदुस्तान आज जकड़ा हुआ है।

इन व्याख्यानों को सुनिए। राजनीति, समाज, संस्कृति और धर्म जैसे विषयों पर जितनी गहराई से लोहिया ने सोचा, लिखा और बोला, वह अचरज में डालता है। अकारण नहीं कि लोहिया ने राजनीति को अल्पकालीन धर्म और धर्म को दीर्घकालीन राजनीति कहा था। हिंदुस्तान के राजनीतिक नेतृत्व की दिशाहीनता, शासक वर्ग के चरित्र को भी इंगित करते हैं लोहिया इन भाषणों में। भाषा के सवाल को लेकर रोज़गार और आर्थिक गैर-बराबरी के प्रश्न को लेकर उत्तर और दक्षिण के सूबों के सम्बन्ध जैसे तमाम सवालों की विस्तार से चर्चा है, इन व्याख्यानों में।

संगठन निर्माण और संगठन विस्तार से लेकर हिंदुस्तान के निर्माण का सवाल। यही नहीं इतिहास, साहित्य, कला से लेकर विज्ञान और तकनीकी की बदलती हुई दुनिया जैसे विषयों पर ख़ूब गहरे उतरकर बोलते हैं लोहिया। नदियों और हिमालय पर जितने दिल छू जाने वाले अंदाज़ में लोहिया ने बोला है, वैसा कम ही राजनेताओं ने बोला या लिखा होगा।

आंतरिक सुरक्षा से लेकर विश्व राजनीति के मसलों तक, निःशस्त्रीकरण, अहिंसा, अणु बम जैसे तमाम मुद्दों पर एक सुलझी हुई दृष्टि दिखती है लोहिया के इन भाषणों में। विश्व यारी और विश्व मैत्री के सिद्धांतों की बारीकियाँ समझाते लोहिया। हिमालय और दक्षिण एशिया की राजनीति के उलझे हुए सूत्रों को सुलझाते हुए लोहिया। ये भाषण ‘लोहिया वाणी’ नाम से यूट्यूब पर उपलब्ध हैं। सुनिएगा।

ये व्याख्यान सुनते हुए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता ‘लोहिया के न रहने पर’ का मर्म कुछ अधिक बेहतर समझ पाया। उसी कविता की पंक्तियाँ हैं :

बर्फ में पड़ी गीली लकड़ियाँ
अपना तिल-तिल जलाकर
वह गरमाता रहा,
और जब आग पकड़ने ही वाली थी
ख़त्म हो गया उसका दौर
ओ मेरे देशवासियों
एक चिनगारी और ।


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