साझा नागरिक मंच जमशेदपुर (झारखंड) में चल रहा एक सांगठनिक प्रयोग है, और यह लगभग 6-7 साल से बखूबी चल रहा है। इस मंच के अधिकांश नेतृत्वकारी साथी किसी न किसी परिवर्तनवादी संगठन से जुड़े हुए हैं। वे अलग अलग मार्क्सवाद लेनिनवाद की धारा से, सम्पूर्ण क्रांति विचारधारा से, अम्बेडकर विचार से और सर्वोदय की धारा से जुड़े हुए हैं। लेकिन इस मंच के नीचे हर व्यक्ति एक नागरिक के रूप में मौजूद है। साझा नागरिक मंच के पहले भी इस समूह के अनेक कॉमन साथी प्रगतिशील नागरिक मंच, लोकमंच जैसे बैनर से एक्टिव रहे हैं।
इस मंच के विचार और एक्शन का दायरा बहुत फैला हुआ है। जब धारा 370 लगभग हटा दिया गया और जम्मू कश्मीर का प्रांत का दर्जा खत्म कर दिया गया, तब यहां किसी पार्टी तक ने कोई बैठक नहीं की थी। अकेले साझा नागरिक मंच ने बैठक की थी और मोदी सरकार के उस कदम का विरोध किया था। रूस युक्रेन युद्ध, हमास हमला, गजा पट्टी में इजराइली जनसंहार का सड़क पर उतर कर विरोध किया है। टाटा स्टील द्वारा किए गये सबलीज घोटाले का विरोध किया है। 2019 और 2024 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भाजपा विरोधी अभियान चलाया है। किसान आंदोलन के समर्थन में और सी ए ए-एन आर सी के विरोध में चले स्थानीय व्यापक अभियान में साझा नागरिक मंच के रूप में हिस्सा लिया है।
इसी साझा नागरिक मंच की पहल पर 21 जुलाई 2025 को मंच के प्रमुख साथियों की एक गहन चर्चा चली। 22 साथियों के सहभाग में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्थिति पर 3 घंटे तक चली इस चर्चा में विश्लेषण और निष्कर्ष के अनेक आयाम उभरे।
अभी दुनिया की हालत को कवि राजेश जोशी की एक पंक्ति में समेटा जा सकता है – इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था। दुनिया के नक्शे पर जगह जगह दक्षिणपंथी उभार है। और भारत फासिज्म की जकड़ में जा रहा है। इटली में एक ऐसी पार्टी सत्ता में आयी है, जो अपने को मुसोलिनी का समर्थक बताती है। गौरतलब है कि ठीक 100 साल पहले 1922 में मुसोलिनी का मार्च हुआ था। अभी इटली में पुतिन का साथ देने और यूरोपीय यूनियन से बाहर होने की मांग हो रही है। फ्रांस में दक्षिणपंथी ताकत तेजी से बढ़ रही है। 1950 के दौर में अनेक देशों में बनी दक्षिणपंथी सरकारें भी मजदूरों के दबाव के कारण बने कानूनों को हटाना तो दूर , छू भी ना सकीं थीं। और आज की कोई भी सरकार मजदूर पक्षीय कानूनों को बचा नहीं रही, कमजोर ही कर रही है। ट्रम्प का शासन अमेरिका के इतिहास का सबसे भयावह शासन है। 90 दिन के शासन में 120 से ज्यादा एक्जीक्यूटिव ऑर्डर निकाले गये हैं। प्रातिनिधिक संस्थानों को दरकिनार किया जा रहा है। लॉस एंजिल्स के आंदोलन को दबाने के लिए ट्रम्प ने वहां के गवर्नर की असहमति के बावजूद सीधे सैनिक भेज दिए। अमेरिका की व्यवस्था की मजबूती का संकेत है कि 30 प्रांतों ने ट्रम्प के इस कदम का विरोध किया। जब ट्रम्प शासन अवैध आप्रवासियों को हथकड़ी में भारत भेज रहा था तो भारत में दो स्वर था। एक स्वर हथकड़ी के विरोध में था। मोदी समर्थक हथकड़ियों के पक्ष में कुतर्क दे रहे थे। लेकिन अमेरिका में नागरिक मुखर होकर कह रहे थे कि आप्रवासी अमेरिका पर बोझ नहीं, अमेरिका के विकास के हिस्सेदार हैं।
आज पुरानी अंतर्राष्ट्रीय और विभिन्न देशों के बीच की व्यवस्थाएं बिखर रही हैं। नये व्यवस्थाओं के बनने की कसमसाहट है। बीच के दौर की अस्त-व्यस्तता है। चीन की पहल से ब्रिक्स, एससीओ जैसे समूह बन रहे हैं। ट्रम्प इनके खिलाफ चेतावनी दे रहे हैं। अब अमेरिकी राष्ट्रपति का रुतबा घट रहा है। ट्रम्प ने कहा था सत्ता में आने के 2 दिन के अंदर दुनिया में चल रहे युद्ध खत्म करेंगे। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उल्टे उनके सत्ता में आने के बाद इसराइल ने ईरान पर हमला किया और अमेरिका भी एक तरह से उसमें शामिल हुआ। सिर्फ 6 साल के अंदर भारत दुनिया के सबसे खराब निर्वाचित ऑटोक्रेसी के रूप में शुमार हो गया है। भारत में पुलवामा कांड के समय से अंधराष्ट्रवाद का एक दौर चला। पीओके लेने के नारे में मगन लोग बेरोजगारी, ग़रीबी, अभाव भूल बैठे थे। लेकिन एन आर सी-सी ए ए के दौर में हालत बदलने लगे। देश विरोध में उठने लगा। 2024 का चुनाव देखें। राममंदिर बनाने,पाक विरोधी उत्तेजना घोलने के बाद भी भाजपा अकेले बहुमत से दूर रह गयी। आज हम मोदी सरकार की जो आक्रामकता देख रहे हैं, वह घायल शेर की आक्रामकता है। इमरजेंसी और मोदी शासन के बीच फर्क यह है कि इस बार ब्यूरोक्रेसी और न्यायपालिका से कोई विरोध नहीं बना है। दवे का यह कहना गौरतलब है कि टी एस ठाकुर (2015-17) को छोड़ कोई इन्टिग्रिटी वाला जज नहीं रहा। अजीत अंजुम का बिहार वीडियो आज का सच बताता है। परिस्थिति बड़े आंदोलन की मांग करती है। मजदूरों, वामपंथी शक्तियों, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, महिला, दलित, आदिवासी सबों के अन्दर जनतंत्र लेने की चेतना जगाकर जनांदोलन बनाना होगा।
आज सरकार बहुसंख्यकवाद की भावना को उभार कर चल रही है। पहले की और आज की सरकार में फर्क यह है कि यह सरकार 80% की भावना को छेड़कर दो बिजनेसमैन और दो राजनीतिक व्यक्तियों को किसी भी तरह से सत्ता में बनाए रखना चाहती है। असल में यह सरकार बहुसंख्यक का भला नहीं चाहती। साम्राज्यवाद कोई नई भावना नहीं है, यह वर्चस्व की भावना है, जो कबीलों के समय से जारी है। विरोध आज जिंदा रहने की शर्त है।
महाशक्तियों ने एशियाई देशों में आंतरिक उलझाव डाल दिया है । पश्चिमी देशों ने पूर्वी देशों को दबा कर रखा है। आज ऐसे युद्ध चल रहे हैं जिसमें फौजी नहीं, जनता मर रही है। इसराइल पूरे मध्य पूर्व एशिया को तबाह किए हुए हैं। आज समाज का सबसे खतरनाक पक्ष यह है कि पढ़े-लिखे लोग हाशिये पर हैं और असामाजिक तत्व हावी हैं।
अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्थिति में एक अंतर्संबंध होता है। जब से पूंजी का निर्यात होने लगा, पूंजी की रक्षा के लिए बहुत सारी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाएं बनानी पड़ीं। अभी की दुनिया में पूंजीवाद का सरगना अमेरिका ही है। पूरे दुनिया के जीडीपी का 34% अमेरिका के पास है। चीन भी आगे बढ़ा है। उसके हिस्से पूरी दुनिया के जीडीपी का 16% है। मेक्सिको के बेरोजगार रोजगार के लिए अमेरिका आते हैं। अटलांटा में मैक्सिकन भरे पड़े हैं। ट्रम्प ने मैक्सिकनों को भगाने का वादा किया था, लेकिन अटलांटा के गवर्नर ने उस पर रोक लगा दी। आज 8-10% अमेरिकी बेरोजगार हैं। बहुत सारे देशों में स्थापित सैन्य अड्डों पर अमेरिका का भारी खर्च होता है। अमेरिका अभी भारी कर्ज में है। सत्ता पाने के लिए ट्रम्प ने ‘अमेरिका फर्स्ट’ का अंधराष्ट्रवादी नारा दिया। अमेरिका की इसराइली लॉबी ने ट्रम्प को राष्ट्रपति बनने में काफी मदद की। विश्व व्यापार संगठन की धारणा थी कि पूरी दुनिया का मार्केट एक होना चाहिए यानी टैरिफ की बाधा नहीं होनी चाहिए। आज ट्रम्प के द्वारा छेड़ा गया टैरिफ हमला विश्व व्यापार संगठन की मान्यताओं के खिलाफ है। फिलिस्तीन का वेस्ट बैंक तो लगभग खत्म हो चुका है, गजा में भी फिलिस्तिनियों के छोटे-छोटे भूखंड ही बचे हैं। अमेरिका ने इजराइल के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अदालत में जाने पर रोक लगाया। चीन का पहला ओवरसीज मिलिट्री बेस अफ्रीका में 2017 में बना। धीरे धीरे चीन भी एक विश्व शक्ति बन रहा है। भारत के सीमा पर एयरबेस बनाना, ब्रह्मपुत्र पर बांध बनाना आदि उसके गलत कदम हैं । चीन में मजदूरी कम है और उत्पादन बहुत है। आज अपने देश में फासीवादी सरकार है। जीडीपी गिर रहा है। हमारे देश का मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर बहुत कमजोर है। सिर्फ सर्विस क्षेत्र ही आगे है। जबकि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर ज्यादा रोजगार देता है। सरकारी क्षेत्र में 90 लाख वैकेंसी है। हाथरस, सहारनपुर, चंदौली को छोड़ दें तो छोटे और पारंपरिक रोजगारों की हालत बहुत खराब है। मुसलमानों के पास से सारे संसाधन छिने जाते रहे हैं। वक्फ बोर्ड ही बचा था, अब मोदी ने उस पर भी हमला कर दिया है। यह लोकतंत्र दमन तंत्र बन गया है। अब परमानेंट नौकरी की व्यवस्था खत्म हो गई है, ठेका पर रखने की व्यवस्था बन गई है। अब 18000 रु. से ज्यादा कमाने वालों को मजदूर नहीं माना जाएगा। बिहार में चल रहे एस आई आर का इरादा जाहिर है। पहले चरण में ही यह घोषणा कर दी गई है कि 41 लाख लोग घरों में नहीं मिले।
मोदी सरकार के एजेंडे में आम आदमी नहीं है। सिर्फ उनके प्रिय पूंजीपति और हिंदू धार्मिक संस्थाएं हैं। 85 करोड़ लोग मुफ्त अनाज पर जिंदा हैं। महंगाई काफी बढ़ गई है। इस सरकार का जाना निहायत जरूरी है। यह सरकार प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को हटाने की बात कर रही है। भारत कभी भी एकधर्मी देश नहीं रहा। लोकतंत्र के बिना कुछ नहीं रहेगा। और चुनाव के बिना लोकतंत्र नहीं होगा। आज बहुसंख्यक नागरिकों को हिंदू भीड़ के रूप में तब्दील किया जा रहा है।
पहले भी शासक शोषण की नीतियों पर चलते थे , लेकिन उनमें उदंडता नहीं थी। आज पूरी दुनिया में शासक उदंड हो गये हैं। ट्रम्प उदंडता की मिसाल हैं। कोई शासक अपने देश का कितना नुकसान कर सकता है, यह मोदी के बाइडेन के दबाव में आकर ईरान के साथ बन रही चाबहार योजना रोक देने से जाहिर है। सिर्फ जापान को खुश कर जापान का पैसा लेने के लिए बुलेट ट्रेन की योजना मोदी सरकार ने स्वीकार की। बुलेट ट्रेन की मूल योजना में 70% लाइन ऊपर से और 30% लाइन भूमिगत जानी थी। लेकिन भारत ने ठीक उल्टा किया। 70% नीचे और 30% जमीन के ऊपर। जापान ने इस उल्लंघन को देखते हुए बुलेट ट्रेन योजना पर रोक लगा दी है। अब मोदी सरकार अपनी जनता के बीच अपनी नाक बचाने के लिए बुलेट ट्रेन के रास्ते पर कुछ ट्रेन चलाने की सांकेतिक कवायद कर रही है। शिक्षा के क्षेत्र में भयावह बदहाली है। न्यू एजुकेशन पॉलिसी ने उच्चतर शिक्षा को बर्बाद कर दिया है। भारत गणित में सबसे अच्छा था। अब सिलेबस कमजोर कर, कमर्शियल अर्थमैटिक्स सरकारी पाठ्यक्रम से हटा कर , किताबें और सिलेबस कम कर गणित की पढ़ाई चौपट कर दी गयी है। वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के चलन के कारण पढ़ने की जरूरत ही कम हो गई है। शिक्षा ही विकास का मूल है और शिक्षा को खत्म करके विकास की उम्मीद को खत्म किया जा रहा है । आज विश्व भर में मानवीय संवेदना समाप्त हो गई है। गाजा में अस्पताल पर हमला हुआ पर दुनिया चुप रही।
आजादी के ठीक बाद के दौर में और आज के दौर में एक स्पष्ट फर्क देखने को मिलता है। पहले हर क्रांतिकारी संगठन अकेले पूरा देश बदलने की बात सोचता था । औरों को कम और अपने को श्रेष्ठ समझता था। आज खासकर 2019 के बाद से लगभग सारी शक्तियां अपने को अधूरी मान रही हैं और भारतीय जनता पार्टी के शासन को हटाने के लिए एक साथ आने की जरूरत समझ रही हैं। ऐसे में एक ऐतिहासिक प्रश्न हाजिर है। क्या उस वक्त कॉमन कार्यक्रम के तहत विविध जनपक्षीय शक्तियों एकजुटता जरूरी नहीं थी? अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अगर देखें तो संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रासंगिकता और सकारात्मकता आज भी समझ में आती है। संयुक्त राष्ट्र संघ को अमेरिका की अधीनस्थ संस्था मानना सही नहीं। अधिकांश अंतरराष्ट्रीय मामलों में जनरल असेंबली में अमेरिका को मुंह की खानी पड़ती है। दुनिया के अधिकांश देश अमेरिका के कदमों के खिलाफ होते हैं। अमेरिका सिर्फ वीटो के बल पर उस बहुमत को कारगर होने से रोक पाता है। यहां भी एक ऐतिहासिक प्रश्न सामने आता है। कि क्या सोवियत संघ और चीन के द्वारा वीटो का अधिकार स्वीकार करना सही था ? क्या वह अंतरराष्ट्रीय दादाओ में अपनी एक जगह बनाकर संतुष्ट होने का अलोकतांत्रिक कदम नहीं था? क्या उसकी जगह पर वीटो व्यवस्था को खत्म कर सभी देशों को समान मत देकर बहुमत के आधार पर फैसला लेने की व्यवस्था के लिए इन दोनों देशों को आवाज नहीं उठानी चाहिए थी ? आज हमें वीटो अधिकार को समाप्त करने के लिए अंतरराष्ट्रीय अभियान चलाना चाहिए। आज अंतर्राष्ट्रीय जनमत बनाने वाले व्यक्तित्वों की कमी दिखती है। अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट सामूहिकताएं काफी कमजोर दिखती हैं। भारत में आज समग्र प्रतिक्रांति का दौर है। आर्थिक राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में अल्पतांत्रिक वर्चस्व का दौर है। पूरी सरकार दो-तीन व्यक्तियों में सिमट गई है। पूरी आर्थिक व्यवस्था में दो तीन सरकारी पूंजीपतियों का बोलबाला है। और सांस्कृतिक स्तर पर सांस्कृतिक विविधता को समाप्त कर कुछ समूह का वर्चस्व स्थापित करने का दौर है। विविधता, फेडरेलिज्म, नागरिक समता,आर्थिक समानता जैसे मुद्दों पर दलित, आदिवासी, महिला, मुस्लिम, ईसाई, मजदूर, किसान और अन्य प्रकृतिजीवी समुदायों की एकता से लोकतंत्र को बचाने और फैलाने के लिए एक बड़े आंदोलन की दिशा में बढ़ना होगा।
आज के दौर में यह सवाल सालता है कि वामपंथी पार्टियों बंटी क्यों हैं, उनमें लचीलेपन की कमी क्यों है?
हर युग का मूल्य का अपना मानदंड होता है। उस मानदंड पर आमतौर पर सवाल नहीं बनता। आज कुछ अंतरराष्ट्रीय मानदंड भी बने हैं। लीग ऑफ नेशंस को हिटलर ने खत्म कर दिया था। और संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रासंगिकता को अमेरिका ने खत्म करके रख दिया है। किसी भी सोशलिस्ट को वीटो पावर का विरोध करना चाहिए। लेनिन ने कहा था, जो जनवादी(जनतांत्रिक)नहीं होगा, वह समाजवाद से बहुत दूर होगा। समाजवाद तो एक नए मनुष्य का सृजन है। ट्रम्प ने अमेरिकी अंधराष्ट्रवाद को पैदा कर ‘अमेरिका इस ग्रेट’ के नारे पर सत्ता हासिल की। अब अमेरिका में भारतीयों को रहने का मौका मिलेगा भी तो सेकंड ग्रेड सिटिजन के तौर पर।दुनिया में अनेक साम्राज्यवादी देश हैं, पर अधिकांश साम्राज्यवादी देश क्षेत्रीय हैं। अभी भी सबसे बड़ा और खतरनाक साम्राज्यवादी देश अमेरिका है। अपनी ताकत के कारण, ट्रम्प जैसे शासक के कारण अमेरिका सबसे खतरनाक है। भारत में सभी दलों में वंशतंत्र है, सभी भ्रष्ट हैं, फिर भी सबसे खतरनाक भाजपा है।
आदर्श के बिना कोई व्यक्ति त्याग के लिए क्यों तैयार होगा। भारत में सांप्रदायिक फासीवाद के खतरे को, और दुनिया के स्तर पर अमेरिका के खतरे को थोड़ा भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। 1974 में आज से कम संकट था लेकिन जन आंदोलन हो गया। आज ज्यादा संकट है पर आंदोलन नहीं हो पा रहा। क्योंकि सांप्रदायिकता के बंटवारे के कारण जनता के बीच की एकता नहीं बन पा रही है। आज के संकट को वैचारिक और सांगठनिक दोनों स्तर पर लेना होगा। सिर्फ वैचारिक चेतना बनेगी तो वह लागू कैसे होगी। उसे लागू कौन करेगा। और बिना विचार के संगठन कितना भी बड़ा होगा, वह अंदर से लुंजपुंज होगा, टूटा टूटा होगा। एक बड़े आंदोलन के लिए वैचारिक और सांगठनिक दोनों स्तरों पर काम करने की, लगातार काम करने की जरूरत है।
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