इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका – एम.एन. राय : पंद्रहवीं किस्त

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एम.एन. राय (21 मार्च 1887 - 25 जनवरी 1954)

(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)

रब विद्वानों की यह विशिष्टता थी कि वे उत्साहपूर्वक अनुसंधान करके ज्ञान प्राप्त करते थे। उन्होंने दिखाऊ अनुमान के अहंकार को छोड़ दिया था और मजबूत आधार पर खड़े होते थे। अरबों की विद्वत्ता के संबंध में वयोवृद्ध अबेरोस का कथन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उसने लिखा है- ‘दार्शनिकों का मुख्य धर्म अध्ययन करना है। इससे अधिक उत्तम ईश्वर की और कोई आराधना नहीं हो सकती है, सिवाय इसके कि उसे अपने कार्यों का वह ज्ञान हो जिससे उसका ज्ञान और उसकी वास्तविकता का ज्ञान अर्जित होता है। उसकी दृष्टि में यह सबसे अच्छी बात है। सबसे अधम बात कर लगाना है, गलतियों और मिथ्या दावों के द्वारा आराधना का जो प्रयास किया जाता है वह अनुचित है। यह धर्म सभी अन्य धर्मों से सबसे शुद्ध है।’ जिस धर्म में ऐसे अधार्मिक विचारों के प्रचार की अनुमति हो, चाहे उन्हें पवित्र शब्दाडम्बर के द्वारा ही क्यों न प्रकट किया गया हो, उसमें असहिष्णुता और कठमुल्लापन के लिए कोई स्थान नहीं रहता है। इस प्रकार के विरोधी विचारों के कारण दार्शनिकों को पुरोहितों के क्रोध का सामना करना पड़ा था। इस प्रकार का व्यवहार ईसाई पुरोहितों ने मुसलमानों से कहीं अधिक किया था।

कुछ समय के लिए निकाले जाने के बाद अबेरोस को सुलतान अन्दालूसियाके दरबार में पुनः प्रतिष्ठित किया गया और उसकी पुस्तकों को इस्लामी क्षेत्र में नष्ट होने से बचा लिया गया। लेकिन उन पुस्तकों के लैटिन भाषा के संस्करणों से धर्म-विरोधी अंशों को निकाल दिया गया। फिर भी 12वीं, 13वीं और 14वीं शताब्दियों में यूरोप में धर्म-विरोधी विचारों के आंदोलनों से अरबी दार्शनिक की उन शिक्षाओं से प्रेरणा ली गयी जिनका दमन किया गया था। धर्म-विरोधी विचार आंदोलन ने कैथोलिक ईसाई संप्रदाय की जड़ें हिला दी थीं जिसका समूचे मध्ययुग में यूरोप में जोर था। 12वीं शताब्दी से आधुनिक ज्ञान की सफलता तक, अबेरोस के विचारों को ईसाई पवित्रता को नष्ट करनेवाले अधार्मिक विचार माना जाता था। उनका ऐसा व्यवहार अकारण नहीं था। ऊपर जो उद्धरण दिया गया है उससे यह संकेत मिलता है कि पूर्ण ज्ञान की खोज की प्रवृत्ति मतभेद का आधार था, जिससे अज्ञान के कूड़ा-करकट को साफ किया गया और विश्वास की पवित्रता स्थापित हुई और उस गौरवशाली गुण की स्थापना धार्मिक कथनों के आधार पर की गयी थी।

उस उद्धरण में अबेरोस ने अनुमानकारी पद्धति के मौलिक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया- उसे सच्चे ज्ञान का सही रास्ता बतलाया। यदि सृष्टि के रचनाकार की पूर्व-धारणा को अलग कर दिया जाय और यदि मानव उसे जानना चाहे (जो अंधविश्वास से भिन्न जिज्ञासा के आधार पर हो), तो उसकी वास्तविकता को प्रयोगसिद्ध ज्ञान के माध्यम से जानने का प्रयास किया जाना चाहिए। उसके इस कथन से प्रकृति और दैवी वस्तुएँ और पीछे हटती गयीं और अंत में वे शून्य में ही समाहित हो गयीं- उसके अस्तित्व के इस यथार्थ को प्रदर्शित किया जा सकता है। जो धर्म ईश्वर के ज्ञान के लिए इस प्रकार की जिज्ञासा उत्पन्न करता हो, वह मानव के सिद्धांत के महान विकास का प्रतिनिधित्व धर्म के आवरण में करता है। महान धर्मों में सबसे बाद में आया इस्लाम धर्म सबसे महान था। इसका ऐतिहासिक महत्त्व इसी बात में निहित है।

इस्लाम और अरब ज्ञान के केंद्र उन ऐतिहासिक क्षेत्रों में थे जहाँ पुरानी सभ्यताएँ- मिस्री, असीरियाई, यहूदी, फारसी और यूनानी सभ्यताएँ उठी थीं, उन्होंने संघर्ष किया था और अंत में उनका पतन हुआ था। पुरानी सभ्यताओं का प्रभाव अरब संस्कृति के निर्माण पर हुआ था और हजरत मुहम्मद के विशेष एक-ईश्वरवाद का सिद्धांत प्राचीन लोगों के धर्मों के सिद्धांत में निहित था। इस बात का अरब दार्शनिकों को श्रेय है कि उन्होंने पहली बार सभी धर्मों का उदय समान विचार के आधार पर स्वीकार किया था। उन्होंने केवल इस बात का दावा नहीं किया कि सभी धर्मों के द्वारा मानव-मस्तिष्क ने जीवन और प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने का प्रयास किया था। इससे आगे बढ़कर उन्होंने यह भी कहा कि तर्क के आधार पर ऐसा प्रयास अधिक महान, उत्तम और उदात्त है। यह विवेकपूर्ण दृष्टिकोण एबेरोस की शिक्षाओं में सबसे अधिक स्पष्ट है।

इस प्रकार एथेंस और सिकंदरिया के महान ऋषियों की आध्यात्मिक और वैज्ञानिक शिक्षाओं के आधार पर अरब लोगों ने आधुनिक सभ्यता की नींव रखने में अपना मौलिक योगदान किया। संशयवाद सभी विश्वासों का शक्तिशाली विलयन है। जैसे ही आलोचना किसी विश्वास को चुनौती देती है उसके साथ ही मानव-विकास का उषाकाल प्रकट होने लगता है। ‘तीन पाखंडी’ (थ्री-इंपोस्टर्स) नामक पुस्तक गुमनाम लेखक ने प्रकाशित की। उसका शंका और संशय के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उस पुस्तक के लेखक के रूप में ईसाई धर्म-विरोधी सम्राट फ्रेडरिक बारबोसा समझा जाता है अथवा मुसलमान दार्शनिक एबेरोस को उसका लेखक माना जाता है। तीन पाखंडियों में मूसा, ईसा और मुहम्मद की गणना की गई है। उसके लेखक के संबंध में यह संदेह है कि वह ईसाई था और दूसरे जिस व्यक्ति पर संदेह किया गया, वह मुसलमान था। निस्संदेह उन दिनों धर्म का अधःपतन हो गया था।

13वीं शताब्दी के पहले संशयवाद था, लेकिन उस पर सच्ची श्रद्धा नहीं थी। जिस सिद्धांत पर मतभेद था उसे रद्द कर दिया गया था, लेकिन ईसाई धर्म के आधार को छुआ नहीं गया था। जब यह बात कही गई कि सभी धर्मों का समान रूप से उदय हुआ तो उक्त आधार पर ही आघात किया गया। यदि सभी धर्म यथार्थ रूप में समान हैं तो फिर हर एक के सिद्धांत और कठमुल्लापन का, मानव-जाति की आध्यात्मिक एकता के मार्ग में बाधक मानकर, परित्याग कर दिया जाना चाहिए। लेकिन यदि धर्मों को उनके सिद्धांतों और मूढ़ाग्रहों से अलग कर दिया जाय तो वे अपने पैरों पर खड़े नहीं रह सकते। अरब दार्शनिकों ने पहली बार सभी धर्मों की समान उत्पत्ति के सिद्धांत को सामने रखा।

अरब ज्ञान का चरमोत्कर्ष अबेरोस के विचारों में हुआ था। वह 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी तक के महान विचारकों और दार्शनिकों की श्रेणी में महानतम और अंतिम था। उनके संक्षिप्त संदर्भ से उनमें से कुछ विचारकों की शिक्षाओं का उल्लेख करके उनकी उत्पत्ति और उनके क्रांतिकारी महत्त्व को समझा जा सकेगा, जो इस्लाम धर्म के आधारभूत सिद्धांतों के रूप में अंगीकार किए गए और उनकी सफलता में ‘अल्लाह की तलवार’ ने योगदान किया।

आध्यात्मिक एकता के आधार पर लौकिक एकता स्थापित करके उसके परिणामस्वरूप आर्थिक समृद्धि प्राप्त की गई और नए इस्लामी राष्ट्र ने मानव-संस्कृति के विकास की ओर अधिक ध्यान दिया। एक सौ वर्षों तक उसने विनम्रतापूर्वक दूसरों, विशेष रूप से यूनानी दार्शनिकों से सीखा। उसको सीखने के बाद अरब में विचार और ज्ञान के क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से मौलिक विचार विकसित हुए।


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