दोस्ती के दिन

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friendship day

Parichay Das

— परिचय दास —

चपन की वह एक तस्वीर अब भी धुँधली-सी आँखों के कोर में अटकी है — गाँव की पीली धूप, मिट्टी की महक, खपरैल का स्कूल और उस खपरैल की ओट में बैठकर बाँटे गए कागज़ के चिप्स। बाद में वह स्कूल खूबसूरत पाठशाला की पक्की बिल्डिंग के रूप में बदला। आज वह सबसे सुंदर इमारत है- यूपी के मऊ के देवलास का प्राइमरी स्कूल।

उस दिन किसी ने कहा था — “आज फ्रेंडशिप डे है।” हममें से किसी को ठीक से पता नहीं था कि इसका मतलब क्या होता है। पर जब मेरी जेब से मेरी माँ की लायी छोटी-सी कलाई घड़ी निकाल कर मेरे सबसे प्यारे दोस्त ने पहन ली थी और फिर झेंपते हुए कहा था — “हम दोस्त हैं ना?”, तब शायद पहली बार महसूस हुआ था कि दोस्ती में चीज़ें साझा नहीं होतीं, आत्मा बाँटी जाती है।

मेरा एक दोस्त था जो बाएँ हाथ से लिखता था। उसकी लिखावट को देखकर लगता था जैसे फूलों की पंखुड़ियाँ एक सीध में सज रही हों। पर मुझे उसकी लिखावट में चुप्पी का सौंदर्य दिखता था। हम दोनों अक्सर बेंच पर एक-दूसरे के पास बैठते और वह मेरी हिंदी की कॉपी पर कविताएँ लिख देता। एक बार उसने लिखा था: “जो दोस्त चुप रहें, वही सबसे ऊँचा बोलते हैं।” तब समझ में नहीं आया था, पर आज जब वर्षों बाद फ्रेंडशिप डे पर सब व्हाट्सएप स्टेटस और इंस्टाग्राम स्टोरीज से दोस्ती जताते हैं, तो वह पंक्ति तीर की तरह लौटती है — चुप दोस्त, ऊँचा बोलने वाला।

मेरी जिंदगी में दोस्ती एक घटना नहीं, एक यात्रा रही है। एक रेल यात्रा, जिसमें कुछ दोस्त किसी स्टेशन पर उतर जाते हैं, कुछ चढ़ते हैं, और कुछ छाया बनकर पूरे रास्ते साथ चलते हैं। कॉलेज व गोरखपुर यूनिवर्सिटी के दिनों की याद अब भी ताज़ा है, जब लाइब्रेरी के पीछे व रेलवे की कैंटीन में बैठकर हम ‘निजी’ और ‘सार्वजनिक’ दोस्तियों की चर्चा करते थे। मेरा एक साथी, जो हर बात में मार्क्सवाद और अस्तित्ववाद लाता था, एक बार मुझसे पूछ बैठा — “दोस्ती एक सामाजिक करार है या निजी उत्कंठा?” और मैं हँस पड़ा था !

हमने साथ मिलकर कविताएँ पढ़ीं, आंदोलन किए, पोस्टर चिपकाए, लेकिन इन सबके बीच जो सबसे मजबूत धागा बना रहा — वह था विश्वास। न फोन का नेटवर्क ज़रूरी था, न कोई ऐप। जब मन उदास होता, हम बिना बोले एक-दूसरे के कमरे में चले जाते, कुछ देर बैठते और फिर चुपचाप लौट आते। वह चुप्पी संवाद से ज़्यादा घनी होती थी।

एक बार विश्वविद्यालय के गेट पर पुलिस लाठीचार्ज हुआ। मैं घायल हुआ। कई लोग भाग गए, लेकिन एक मित्र वहीं रुका रहा। उसने मुझे ऑटो में डालकर अस्पताल पहुँचाया। बाद में जब पूछा कि क्यों नहीं भागा तो बोला— “क्योंकि दोस्त सिर्फ कविता में नहीं, चोट में भी साथ होता है।” तब मुझे पहली बार लगा कि दोस्ती एक कविता है, जिसमें जीवन के सबसे कठिन छंद भी लय में ढल जाते हैं।

मेरे पत्रकार जीवन की पहली फील्ड रिपोर्टिंग भी दोस्ती से ही जुड़ी थी। एक बार मुझे एक छोटे से गाँव के स्कूल में बच्चों के बीच पढ़ाई की स्थिति पर रिपोर्ट करनी थी। वहाँ जाकर मैंने जो देखा, वह एक कहानी बन गया। वहाँ दो बच्चे थे — राजू और इकबाल। एक हिंदू, दूसरा मुसलमान। पूरे गाँव में जब दंगे की फुसफुसाहट चल रही थी तब वे दोनों मिट्टी में गड्डे खोद कर उसमें बाँस की पतंगें गाड़ते और एक-दूसरे से कहते — “जब हमारी पतंगें एक ही आसमान में उड़ती हैं तो हम क्यों नहीं?” उस दृश्य ने मुझे हिला दिया था। मैंने अपनी रिपोर्ट में लिखा: “गाँव का भविष्य इन बच्चों की दोस्ती में गढ़ा जा रहा है, न कि किसी की घृणा में।”

एक और संस्मरण आज भी मन को पिघला देता है। लॉकडाउन का समय था। अकेलेपन ने सबको घेर लिया था। एक दिन दरवाज़े पर दस्तक हुई — एक पुराने मित्र थे। बिना कुछ कहे, वह चुपचाप दाल, चावल और अचार लेकर आए। बोले — “तेरी आवाज़ ठीक नहीं लग रही थी, फोन पर। चला आया।” और उस दिन समझ में आया कि दोस्ती सिर्फ शब्दों का व्यापार नहीं, संवेदनाओं की उपस्थिति है।

अगर मैं दोस्ती की तस्वीर बनाऊँ तो उसमें किसी गली के कोने में बैठा दो चाय के कुल्हड़ पकड़े दो लड़के होंगे या किसी पुरानी दीवार पर टिककर गिटार बजाते दोस्त या फिर किसी स्कूल की क्लास में अंतिम बेंच पर अपनी कॉपी का आधा हिस्सा बाँटता एक बालक। यह तस्वीरें स्थिर नहीं, चलायमान होती हैं। इन रेखाओं में भावों का प्रवाह होता है।

आज जब फ्रेंडशिप डे के अवसर पर सोशल मीडिया पर दोस्ती के नाम ट्रेंडिंग हैशटैग देखता हूँ तो लगता है कि शायद आज की दुनिया में दोस्ती को दिखाना ज़रूरी हो गया है, निभाने से ज़्यादा पर कुछ दोस्त ऐसे भी होते हैं जो दिखते नहीं लेकिन जब दिल भारी होता है तो सबसे पहले याद आते हैं। मेरे होस्टल का एक दोस्त अब विदेश में है। सालों से बात नहीं हुई पर जब भी परेशानी आती है, एक छोटा सा मैसेज कर देता हूँ — “Are you free?” और जवाब आता है — “Always for you.”

आज की पीढ़ी की दोस्ती ज्यादा वर्चुअल हो गई है, इंस्टेंट मैसेजिंग, स्नैपचैट स्ट्रीक्स और डिजिटल ग्रीटिंग्स तक सिमट गई है लेकिन गांव के किसी कोने में आज भी दो लड़के या लड़कियाँ खेत की मेंड़ पर बैठकर एक आम चखते हुए दोस्ती को जी रहे होंगे — बिना कैमरे, बिना पोस्ट के और वही दोस्ती असल है जो समय की तरह बहती है गीली मिट्टी सी गंध छोड़ती है।

दोस्ती किसी तारीख की मोहताज नहीं। यह किसी औपचारिकता का बंधन नहीं है। यह अनकहे का साझा, अनसुने का सहचर और अदृश्य का आलंबन है। जब दुनिया किसी भीड़ में धकेल रही हो, तब एक दोस्त ऐसा हो जो पूछे — “तू ठीक है ना?” — यही शायद दोस्ती का सबसे सुंदर रूप है।

जब जीवन के सफ़र में समय की घड़ी थोड़ी थमती है, तब यादों के एल्बम खुलते हैं — और उनमें से कुछ पन्ने ऐसे होते हैं, जिनपर दोस्ती की चिट्ठियाँ चिपकी होती हैं। कोई नीले पेन से लिखा हुआ “तेरा यार”, कोई अंतिम पन्ने पर स्केच बना देता था — “दोस्ती का चिह्न”, और हम इसे म्यूजिक सिस्टम या मोटरसाइकिल के स्टिकर से ज्यादा कीमती मानते थे।

गोरखपुर विश्वविद्यालय में शोध में बिताए गए चार साल मेरे लिए किसी विश्वविद्यालयीय डिग्री से कहीं ज़्यादा एक ‘मित्रता विश्वविद्यालय’ थे। कभी आर्ट्स फैकल्टी के सामने की रैलियों में तो कभी कैंपस की गलियों में, वो दोस्तियाँ बनीं, जो आगे चलकर या तो किताबों की पात्र बन गईं या जिंदगी के असली स्तंभ।

मेरा एक मित्र बिहार से आया था, मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश से। भाषा, लहजा, खान-पान सब कुछ अलग लेकिन पहली मुलाक़ात में ही हम दोनों को लगा — “यह आदमी मेरी चुप्पी को समझता है।” मित्र का अंदाज़ अजीब था — वह जब हँसता था तो उसकी आँखें पहले हँसती थीं और आवाज़ बाद में आती थी। उसे लड़कियों की परवाह नहीं थी, न ही लड़कों की होड़ की। वह क्लास में सबसे आख़िर में आता, लेकिन हर विषय पर सबसे ज़्यादा पढ़ा होता और जब कभी मैं अपने प्रेम, परिवार या भविष्य को लेकर उलझ जाता, वह चुपचाप मुझे एक दुकान पर ले जाता और कहता — “समोसे खा। सब ठीक हो जाएगा।”

आज फ्रेंडशिप डे पर जब मैं अपने नालंदा के आवासीय पार्क में बैठा हूँ, तो मन में समोसे की खुशबू तैरती है, वही बातें, वही हँसी — जैसे कोई पुरानी रील चल रही हो। और लगता है, दोस्ती दरअसल कोई भाव नहीं, वह गंध है जो वक़्त के साथ भी फीकी नहीं पड़ती।

दोस्ती को उकेरना एक बड़ा साहसिक कार्य है। क्योंकि यह वह रिश्ता है जो किसी भी फ्रेम में पूरी तरह नहीं समाता। कभी वह क्लासरूम के बेंच की कोर पर बने दो नामों के बीच की खरोंच में छुपा होता है, कभी किसी पुराने खत में इस्तेमाल की गई एक स्माइली में। अगर मैं चित्र बनाऊँ तो उसमें एक सर्द रात होगी, चार मित्र होंगे — दो चाय पी रहे होंगे, एक किसी किताब से कुछ पढ़ रहा होगा और चौथा बस चुपचाप आसमान देख रहा होगा। और सबके बीच होगी — एक मौन सहमति, एक अनकहा भरोसा।

पत्रकार के तौर पर मेरी एक रिपोर्ट थी — “शहर की दीवारों पर लिखी दोस्ती।” यह रिपोर्ट मैंने गाँव की झुग्गी बस्तियों में बनाई थी, जहाँ पढ़ाई के लिए एक ही स्लेट को पाँच दोस्त बारी-बारी से इस्तेमाल करते थे। एक ने दीवार पर लिखा था — “हम पाँच, पाँच उंगलियों की तरह, मिलकर मुट्ठी बनते हैं।” और जब मैंने पूछा कि आप दोस्त क्यों हैं — उन्होंने जवाब दिया: “क्योंकि कोई भी अकेला डरता है, हम पाँच मिलकर साहस हो जाते हैं।” इस रिपोर्ट को मैंने ‘मुट्ठी की दोस्ती’ शीर्षक दिया, और आज भी वह लाइन मेरे दिमाग में टिकी है।

एक बार बिहार के एक सुदूर गाँव में एक मेले की रिपोर्टिंग करने गया था। वहाँ एक लड़का मिला। छोटा सा, साँवला, मुँह में पान लेकिन आँखों में चमक। उसकी उम्र 14 साल रही होगी, लेकिन ज़ुबान में पकी हुई परिपक्वता थी। उसके साथ एक और लड़का था । जब मैंने पूछा, “तुम्हारी सबसे बड़ी ख़ुशी क्या है?” तो उसने कहा — “जब शेरू के पापा मुझे भी अपने बेटे जैसा समझते हैं।” यह कहने के बाद वह चुप हो गया और मुझे लगा, दोस्ती केवल सहकर्म नहीं होती, वह स्वीकार भी होती है।

बचपन में एक और दोस्त था। वह मेरे घर के पास का था पर मेरी उम्र का ही था। हम दोनों नंगे पाँव खेलते, तालाब में कूदते, आम के बाग़ में छुपते। मेरी माँ को यह दोस्ती पसंद नहीं थी । पर मुझे उसका व्यवहार व हँसी पसंद थी तथा उसकी ईमानदारी। मैंने जाना, दोस्ती का पहला लक्षण होता है — पहचान देना।

फ्रेंडशिप डे को लेकर शहरों में जो बाजारवाद है — वह अलग कहानी है। रबर के बैंड, रंगीन टैग, कैफ़े ऑफर्स और हैशटैग्स लेकिन गाँव में अब भी दोस्ती के लिए केवल दो चीजें चलती हैं — कंधे और खेत। कोई एक कहता है — “आज हल मैं उठाऊँगा, तू बस बीज डाल देना।” और दूसरा बिना कहे साथ लग जाता है। मैं जब भी अपने गाँव लौटता हूँ तो अपने एक पुराने दोस्त से मिलने जाता हूँ। वह चिता मोटा काम करता है लेकिन आज भी मेरी पुरानी कहानी की कटिंग अपने रिक्शा में चिपकाकर रखता है। कहता है — “तेरा नाम जब भी दिखता है, मेरा सीना चौड़ा हो जाता है।” और मैं सोचता हूँ — दोस्ती वह आईना है, जिसमें हम खुद को अपने सबसे साफ रूप में देख सकते हैं।

एक बार पटना रेलवे स्टेशन पर एक दृश्य देखा — दो वृद्ध लोग, शायद 70 के आसपास, एक-दूसरे के काँधे पर हाथ रखे खड़े थे। चायवाले ने कहा — “बचपन से दोस्त हैं। एक गया में रहता है, एक रांची में। हर साल एक बार यहीं मिलते हैं, स्टेशन पर।” और मैं सोचने लगा — “कितनी खूबसूरत बात है कि जहाँ लोगों की ज़िंदगी जगहों पर टिकती है, वहाँ कुछ दोस्तियाँ एक प्लेटफॉर्म पर सालों से रुकती हैं, बिना थकीं।”

इन अनुभवों से गुज़रते हुए बार-बार यही महसूस होता है कि दोस्ती का रिश्ता सबसे अधिक मानवीय है, सबसे अधिक सहज। न इसमें खून का संबंध है, न जाति का, न उम्र का — यह केवल संवेदना का प्रवाह है। और यही प्रवाह ही उसे इतना शक्तिशाली बनाता है कि वह युद्ध की पृष्ठभूमि में भी दो सैनिकों के बीच शांति ला सकता है, चुनावी तनाव के बीच दो ग्रामीणों को गले मिलवा सकता है, और महानगर की भीड़ में दो अजनबियों को मुस्कुराने पर मजबूर कर सकता है।

जब मैं आज के फ्रेंडशिप डे पर कॉलेजों में घूमता हूँ तो एक द्वंद्व देखता हूँ — सच्ची मित्रता बनाम दिखावटी नेटवर्किंग। कुछ युवा केवल इसीलिए दोस्त बनते हैं ताकि नोट्स मिल जाए, ग्रुप प्रोजेक्ट आसान हो जाए, या किसी पार्टी में इनवाइट मिल जाए। वहीं कुछ युवा अब भी दोस्ती के पुराने अर्थ को थामे हैं — वो अर्थ जिसमें साथ बैठना, दुःख बाँटना, बिना किसी लाभ के सिर्फ साथ होने का भाव होता है।

आज के दिन मुझे एक पंक्ति याद आती है जो शायद मैंने अपने एक मित्र के जन्मदिन पर लिखी थी:
“तू मेरा आईना नहीं, मेरी आँख है — जिससे मैं दुनिया को देखता हूँ।”
यही मित्रता है — जिसे हम स्वयं की सीमाओं के पार किसी दूसरे में ढालकर पहचानते हैं।

साहित्य और कला की मित्रताएँ भी दोस्ती की परिभाषा को नए आयाम देती हैं। ऐसी कई मित्र जोड़ियाँ हैं, जिनके आपसी संबंधों ने साहित्य, चिंतन और संस्कृति के क्षेत्र में गहरे प्रभाव डाले हैं।

निराला और पंत की मित्रता एक ऐसा उदाहरण है, जहाँ विचारधाराओं के अंतर के बावजूद आत्मीयता बनी रही। निराला जितने अक्खड़, विद्रोही और बेचैन प्रकृति के कवि थे, पंत उतने ही सौम्य, प्रकृतिपरक और आत्मलीन। फिर भी इन दोनों की मित्रता में एक रचनात्मक सम्मान था। एक संस्मरण में पंत लिखते हैं — “निराला जब मेरे घर आते थे तो चाय ठंडी हो जाती थी पर बातचीत गर्म।” यह पंक्ति दोस्ती में वैचारिक असहमति के बावजूद भावनात्मक सामीप्य की मिसाल है।

प्रेमचंद और बनारसीदास चतुर्वेदी के बीच की दोस्ती भी ऐसी थी, जहाँ संवादों की जगह मौन अधिक था। जब प्रेमचंद के अंतिम दिनों में आर्थिक कठिनाई बढ़ी, तो बनारसीदास बिना कुछ कहे उनकी सहायता करते रहे। यही असली मित्रता है — जो बिना कहे, कह जाती है।

फिल्मों में अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र की जोड़ी ने भी ‘शोले’ जैसी फिल्मों के बाहर एक प्रगाढ़ मित्रता को जीया। धर्मेन्द्र ने एक बार कहा था — “अमित जी जितने सख्त पर्दे पर लगते हैं, उतने ही नरम दिल दोस्त हैं।” दोस्ती को अगर एक सदी की सिनेमाई आवाज़ देनी हो तो “ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे…” जैसा गीत उसकी आत्मा है।

मीर और ग़ालिब या फिर कबीर और रैदास — ये जो नामों में भिन्न पर आत्मा में एक थे। कबीर और रैदास का संवाद दो सत्यों की मुलाकात है — निर्गुण और भक्तिपथ की। कबीर कहते हैं — “हमन है इश्क मस्ताना,” और रैदास कहते हैं — “प्रेम पियाला जो पिए, शीश दई ले जाए।” दोनों की चेतना मित्रता के उस स्तर पर पहुँची थी जहाँ अहं की कोई जगह नहीं होती।

कुछ दृश्य कभी-कभी मन में स्थायी चित्र की तरह अंकित हो जाते हैं। जैसे — एक अस्पताल का गलियारा, जहाँ एक लड़के के पाँव में प्लास्टर है और दूसरा लड़का बिना जूते के, उसके पास बैठा है, बस चुप। या फिर किसी मेले में दो छोटे बच्चे, जिनमें से एक का गुब्बारा छूट गया है और दूसरा अपना भी छोड़ देता है — साथ रोने के लिए। ऐसी रेखाएँ कागज़ पर नहीं, स्मृति पर बनती हैं।

आजकल जब हम कहते हैं कि हमारा नेटवर्क बहुत स्ट्रॉन्ग है तो ज़रा सोचना चाहिए — क्या हमारा संबंध भी उतना ही मज़बूत है जितना नेटवर्क का संकेत? क्या दोस्ती केवल रीलों और स्टोरीज़ का विषय रह गई है? क्या वह दिन दूर नहीं, जब हम किसी के कंधे पर सिर रखकर रोने से पहले कैमरा ऑन करेंगे?

पर आज भी कुछ लोग हैं, जिनकी दोस्तियाँ इन तमाम डिजिटल आडम्बरों से परे हैं। वे दोस्त जो रोज़ साथ नहीं होते लेकिन ज़रूरत के समय पहले खड़े मिलते हैं। वे जो बर्थडे नहीं मनाते पर परीक्षा के दिन सेंटर तक छोड़ने आते हैं। वे जो आपके दुख में साथ गालियाँ देते हैं और ख़ुशी में चुपचाप पीछे खड़े रहते हैं।

मैंने एक बार एक वृद्धाश्रम में एक जोड़ी बुज़ुर्ग मित्रों को देखा था — एक नेत्रहीन थे, दूसरे पैर से लाचार। एक ने कहा — “हम दोनों मिलकर एक आदमी बन जाते हैं। मैं देखता हूँ, वो चलता है।” यह मित्रता का अंतिम और पूर्ण स्वरूप है — पूरकता।

आज फ्रेंडशिप डे है। हर कोई रंगीन कलाईबैंड बाँध रहा है, तस्वीरें डाल रहा है लेकिन कहीं किसी कोने में कोई दोस्त अकेला बैठा है, जिसे कोई याद नहीं कर रहा और वही असल परीक्षा है हमारी। अगर हम उस दोस्त को एक छोटा-सा मैसेज भी भेज दें — “याद आया तू,” तो शायद वह दिन किसी एक इंसान के लिए त्योहार बन जाए।

दोस्ती कोई बंधन नहीं, बल्कि एक खुली खिड़की है — जहाँ हवा आती है, धूप आती है और कभी-कभी बारिश भी।
दोस्ती वह किताब है, जिसे बार-बार पढ़ने पर भी कोई नया वाक्य मिल जाता है। दोस्ती वह वाद्य है, जो बिना छुए भी बजता है।और दोस्ती वह कविता है, जिसे कोई कवि नहीं लिखता — वह खुद लिखी जाती है — जीवन की स्याही से, और भरोसे की कलम से।


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