— मोतीलाल वोरा —
डा. राममनोहर लोहिया एक जनप्रिय नेता, कर्मठ राजनीतिज्ञ और कुशल विचारक थे। उनके भाषणों, वक्तव्यों, लेखों, जीवन-दर्शन तथा कार्य-कलापों आदि में समाजवादी विचारधारा साफ नजर आती है। लोहिया जी सही मायने में महान चिन्तक थे, जो भारत को हर हाल में संसार का एक आदर्श देश बनाना चाहते थे। वे समाज में समता और समानता के लिए जीवन भर संघर्ष करते रहे और कभी किसी से अपने सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं किया। कष्ट झेले, मुसीबतें उठायीं लेकिन कभी हार नहीं मानी ओर हमेशा हिम्मत के साथ आगे बढ़ते रहे तथा दूसरों को भी जनहित में आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करते रहे।
डा. राममनोहर लोहिया ने समाज से ऊंच-नीच, छुआछूत व अमीरी-गरीबी का भेदभाव समाप्त करने और धर्म, जाति, सम्प्रदाय, भाषा तथा क्षेत्रवाद से संबंधित विवादों को खत्म करने के लिए जो शानदार योगदान किया है, उसे हमेशा याद रखा जायेगा। वह बराबर कहते रहते थे कि पिछड़े वर्ग के लोगों, आदिवासियों, महिलाओं तथा अविकसित अल्पसंख्यकों को जब विशेष अवसर प्रदान किये जायेंगे, तभी वे तरक्की की बुलंदियों पर पहुंच पाएंगे। इसके लिए वह अपने पांच प्रमुख लक्ष्यों अर्थात समता, प्रजातंत्र, अहिंसा, विकेन्द्रीकरण और समाजवाद पर आधारित सिद्धांतों को केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण समझते थे। उनका मानना था कि इन्हीं सिद्धांतों पर चलकर ही मानव जाति को निजात मिलेगी।
महात्मा गांधी से उनका संबंध जैसे जन्मजात था। जितना स्नेह और आदर उनके मन में गांधी जी के लिए था उतनी ही प्रचुर मात्रा में गांधी जी ने उन्हें स्नेह दिया। नौ-दस साल की उम्र में जब वे गांधी जी से मिले तो न जाने किसी अंतःप्रेरणा से उन्होंने गांधी जी के पैर छुए। ऐसा वे किसी के लिए नहीं करते थे। उनके नेहरू जी, सरदार पटेल और जयप्रकाश नारायण जी से वैचारिक मतभेद थे। गांधी जी ने इनमें हमेशा लोहिया जी का समर्थन किया। जब उन्होंने गोवा में आंदोलन शुरू किया तो जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल इसके खिलाफ थे। पर गांधी जी ने इसे ठीक माना। भारत के विभाजन के समय गांधी जी और लोहिया जी ही इसके कट्टर विरोधी थे। नोआखाली में केवल लोहिया ही महात्मा जी के साथ थे।
१९४० में जब लोहिया जेल गये तो महात्मा जी ने कहाः ‘जब तक डा. राममनोहर लोहिया जेल में है तब तक मैं खामोश नहीं बैठ सकता। उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मालूम नहीं। उन्होंने हिंसा का प्रचार नहीं किया। जो कुछ किया है उससे उनका सम्मान और अधिक बढ़ता है।’ १९३९ में त्रिपुरा कांग्रेस में उन्होंने गांधी जी का साथ दिया। वे कांग्रेस में समाजवादी थे। पर सुभाष बोस का साथ उन्होंने नहीं दिया। त्रिपुरा में ही पंत प्रस्ताव का
उन्होंने नेताजी के किस समर्थन किया। १९४६ में जब वे दूसरी बार गोवा जा रहे थे तब गांधी जी के ही कहने पर नहीं गये केवल संदेश भेज दिया।
३० जनवरी १९४८ को गांधी जी ने उन्हें बुलाया था और कहा था कि आज पेट भर बातें करेंगे। जब लोहिया जी बिरला हाउस पहुंचे गांधी जी की हत्या हो चुकी थी। स्तब्ध लोहिया इतना ही कह पाये- ‘क्यों आपने मेरे साथ और देश के साथ ऐसी दगाबाजी की? क्यों आप इतनी जल्दी चले गये?’
पर उनका यह लगाव रूमानियत और अंधभक्ति पर आधारित नहीं था। यह प्रखर बौद्धिक विश्लेषण के आधार पर था। १९३२ में जर्मनी में पी. एच. डी. भी उन्होंने ‘नमक और सत्याग्रह’ विषय पर की थी। ‘मार्क्स, गांधी और समाजवाद’ में उन्होंने गांधी को तर्क की कसौटी पर कसा और खरा पाया। वे अक्सर कहते थे कि बीसवीं सदी में दो ही चीजें मौलिक हुई हैं-गांधी और अणु बम।
जैसा मैंने कहा वे विद्रोही थे पर अनुशासनबद्ध। जब वे लोकसभा में चुने गये तब लोगों को भय था कि वे हंगामा करेंगे और कार्रवाई में व्यवधान करेंगे। पर उन्होंने लोकसभा के नियमों को समझा। उन्हीं के अंदर काम कर तहलका मचा दिया। भारत में २७ करोड़ लोगों को रोजाना आमदनी तीन आना प्रतिदिन वाला उनका पैना भाषण तो आज भी लोग याद करते हैं।
किसी भी परिस्थिति में हों और दुनिया में कहीं भी हों उन्होंने साहसपूर्वक मक्कारी और अन्याय का प्रतिकार किया। १९३० में जब उन्हें पता चला कि जिनेवा में लीग आफ नेशन्स की बैठक हो रही है और उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में कई राजा भाग लेंगे, वे नाटक कर सफलतापूर्वक उस हाल में घुस गये जहां बैठक हो रही थी। जब राजा बीकानेर उठकर अंग्रेजों के गुण गाने लगे तो दर्शक दीर्घा से लोहिया जी ने सीटियां बजाकर सभा को भंग कर दिया। दूसरे दिन वहीं इस बारे में पर्चा छपवाकर बंटवाया। १९६४ में वे अमेरिका के एक होटल में बैठे थे। वहां उन्होंने कुछ श्वेतों को एक अश्वेत महिला से अभ्रदता करते देखा। वे उनसे भिड़ गये।
१९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन के समय उन्होंने पैम्फ्लेट निकाला ‘योद्धाओं’ आगे बढ़ों पर निश्चय किया कि पकड़े नहीं जाएंगे। बंबई, कलकत्ता और नेपाल से गुप्त रेडियो स्टेशन चलाये और खूब प्रसारण किया। नेपाल में जयप्रकाश नारायण के आजाद दस्ते से जुड़े। वहां पुलिस घेरे से कैसे निकले यह किसी रोमांचक उपन्यास से कम नहीं है। आखिर २० मई १९४४ को पकड़े गये। लाहौर किले में उनहें घोर यातनाओं का सामना करना पड़ा। १० दिन तक उन्हें सोनें नहीं दिया गया। पर वे टूटे नहीं। अभेद्य जेल से उन्होंने राजनैतिक विज्ञान के प्रसिद्ध प्रोफेसर हैरोल्ड लास्की को पत्र लिखा। जेल से छूट कर इतना थक गये थे कि आराम करने गोवा गये। पर वहां अन्याय देखकर फिर आंदोलन में जुट गये। गोवा में लोक गीतों में उनका नाम जुड़ गया।
पहिली माझी ओवी पहिले माझ फूल भक्ती ने अर्पिन लोहिया ना।।
लोहिया जी की विचारधारा के केन्द्र में समता थी। समाजवाद को उन्होंने समता और समृद्धि के रूप में परिभाषित किया था। इसीलिए वे जाति प्रथा के खिलाफ लड़े, नारी समानता के लिए उन्होंने आवाज उठाई और आर्थिक समता के लिए आह्वान किया। गांवों में उन्होंने खेतिहर मजदूरों और भूमिहीनों के उत्थान का सिद्धांत दिया। एक बार उन्होंने कहा थाः ‘धर्म का अर्थ सबके लिए व्यापक होना चाहिए और वह है दरिद्रनारायण वाला जो सब लोगों के हित का हो। इसीलिए मैं सोचता हूं गांधी जी ने भी धर्म या ईश्वर को या सत्य को दरिद्रनारायण में देखा था और विशेषकर दरिद्रनारायण की रोटी में।’
डा. राममनोहर लोहिया ने समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन तथा सामाजिक बराबरी कायम करने के लिए सात क्रांतियों का एक आदर्श सिद्धांत प्रस्तुत किया। समाजवाद क्या है? इस पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बताया कि ‘समाजवाद से एक सीढ़ी नीचे उतरो, उस सीढ़ी का नाम है बराबरी। उस बराबरी से एक सीढ़ी और नीची उतरो, आर्थिक बराबरी, सामाजिक बराबरी, धार्मिक बराबरी। तब उसके बाद आयेगी समता, सम्पूर्ण समता और संभव समता। उन्हें समाजवाद की स्थापना पर इतना ज्यादा पक्का यकीन था कि वह यहां तक कहते रहते थे कि ‘इंसान जिंदा रहेगा और आखिरकार जीत समाजवाद की ही होगी।’
डा. लोहिया के समता और समानता पर आधारित एक आदर्श समाज के निर्माण का जो सपना देखा था, उसे साकार करने में कोई कसर उठा न रखी जाए।
संदर्भ : मोतीलाल वोरा विचार यात्रा
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