27 महीने बाद मणिपुर, अभी भी अशांत !

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Manipur still in turmoil after 27 months!

पीयूसीएल द्वारा पिछले साल गठित एक स्वतंत्र ट्रिब्यूनल ने मणिपुर में जारी जातीय संघर्ष के कारणों और राज्य के मौजूदा हालात पर बुधवार 20 अगस्त को एक रिपोर्ट पेश की, जिसमें न्याय, शांति और जवाबदेही के लिए कुछ सिफारिशें भी की गई हैं. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश कुरियन जोसेफ की अध्यक्षता वाली जूरी ने हिंसा में जीवित बचे लोगों और प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों के आधार पर कहा कि राज्य की संस्थाओं और प्राधिकृत अधिकारियों ने संरक्षण देने के बजाय स्थानीय लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया. केंद्र सरकार मणिपुर में कानून के शासन और संविधान की व्यवस्था बनाए रखने की अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाने में विफल रही. ट्रिब्यूनल के सामने बड़े पैमाने पर साक्ष्य प्रस्तुत किए गए.

जूरी ने साक्ष्यों के आधार पर संघर्ष के कई मूल कारणों को पहचाना. इनमें ऐतिहासिक जातीय विभाजन, सामाजिक-राजनीतिक हाशिये पर डालना और ज़मीन विवाद जैसे पहले से मौजूद कारक शामिल थे. अविश्वास और शत्रुता को बढ़ाने के लिए डिजिटल मीडिया पर चलाया गया घृणा अभियान और राजनीतिक नेतृत्व के बयानों ने भी बड़ी भूमिका निभाई.

27 मार्च 2023 को मणिपुर हाईकोर्ट का वह निर्देश, जिसमें मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की सिफारिश की गई थी, कुकी-ज़ो और नागा समूहों द्वारा उनके संवैधानिक संरक्षणों के लिए खतरे के रूप में देखा गया. इसी चिंगारी ने पहाड़ी ज़िलों में विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया. नतीजतन 3 मई 2023 को बड़े पैमाने पर विरोध दर्ज किया गया. प्रारंभ में ये आंदोलन अधिकतर शांतिपूर्ण थे, लेकिन कुछ स्थानों पर हिंसा भड़क उठी, जिसने बाद में पूरे राज्य को घेर लिया.

पलायन के ठोस प्रमाण नहीं : मैतेई पक्ष की गवाहियों में अक्सर यह दावा किया गया कि म्यांमार से कुकी-ज़ो समुदाय का लगातार पलायन हो रहा है. परंतु जूरी ने आंकड़ों के अध्ययन से पाया कि इस दावे के ठोस प्रमाण नहीं हैं.

अफीम (पॉपी) की खेती की कथा : इसे तत्कालीन मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह की “ड्रग्स विरोधी युद्ध” नीति से जोड़कर कुकी समुदाय को अपराधी ठहराने का प्रयास किया गया. कुकी गवाहों ने इसे षड्यंत्र करार देते हुए कहा कि असली खिलाड़ी विभिन्न समुदायों से थे और सरकारी तंत्र में भी बैठे थे. गवाहों ने यह भी संदेह जताया कि इस संघर्ष के पीछे बड़े भू-राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं. मीडिया की भूमिका को भी जूरी ने गंभीर रूप से चिन्हित किया. प्रिंट मीडिया पक्षपाती रहा जबकि डिजिटल और सोशल मीडिया ने अप्रमाणित व भड़काऊ सामग्री फैलाई.

हिंसा की प्रकृति और राज्य की भूमिका : रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि यह हिंसा स्वतःस्फूर्त नहीं थी, बल्कि नियोजित, जातीय रूप से लक्षित और राज्य संस्थाओं की विफलता की देन थी. पीड़ितों में गहरी धारणा बनी रही कि राज्य ने या तो हिंसा को होने दिया या उसमें सक्रिय भाग लिया. पूर्व मुख्यमंत्री बीरेन सिंह के कुछ निर्णयों एवं प्रशासनिक कार्यवाही को हिंसा की चिंगारी मानकर बार-बार उल्लेख किया गया. उग्रवादी संगठनों अरामबाई तेंगगोल और मैतेई लीपुन के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई. लंबे समय तक सार्वजनिक विरोध के बावजूद बीरेन सिंह ने फरवरी 2025 तक पद नहीं छोड़ा.

यौन हिंसा और मानवीय संकट : जूरी गहराई से व्यथित रही कि हिंसा के दौरान लोगों की हत्या, अंग-भंग, निर्वस्त्र करना और सामूहिक यौन हिंसा तक हुई. सोशल मीडिया पर इन अत्याचारों को प्रसारित भी किया गया. गवाहियों में यह दर्ज है कि यौन हिंसा की कई घटनाएं भय और संस्थागत सहयोग की कमी के कारण दर्ज ही नहीं हुईं. महिलाओं ने बताया कि पुलिस और सुरक्षा बलों ने न केवल उनकी मदद करने से इनकार किया बल्कि कई बार भीड़ के हवाले तक कर दिया.

राहत और पुनर्वास : राहत व पुनर्वास के प्रयास बेहद अपर्याप्त, विलंबित और असमान थे. राहत शिविरों में स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवा, मानसिक स्वास्थ्य समर्थन और आजीविका-शिक्षा की पुनर्स्थापना लगभग न के बराबर रही. संयुक्त त्वरित आवश्यकता मूल्यांकन (जेआरएनए) और गीता मित्तल समिति की सिफारिशें भी ज्यादातर लागू नहीं हुईं.

स्वास्थ्य व्यवस्था का पतन : स्वास्थ्य तंत्र पूरी तरह ध्वस्त हो गया. अस्पतालों और एम्बुलेंसों पर हमले हुए, उपकरण लूट लिए गए और सुरक्षा संकट के कारण डॉक्टर व स्टाफ भाग खड़े हुए. आंतरिक रूप से विस्थापित लोग जो राहत शिविरों में पहुंचे, वे और भी खराब हालात में रहे. महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों और दिव्यांगों की स्थिति सबसे अधिक प्रभावित हुई. मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं भी दर्ज की गईं.

न्यायपालिका और विधि-व्यवस्था : रिपोर्ट में बताया गया है कि न्यायिक और संवैधानिक तंत्र हिंसा के दौरान पूरी तरह विफल रहा. इसमें अदालतों द्वारा त्वरित निर्देशों का अभाव, चयनित एफआईआर दर्ज करना, गंभीर अपराधों की जांच का अभाव और पुलिस की संलिप्तता स्पष्ट की गई है. केंद्र और राज्य दोनों सरकारें कानून के शासन को लागू करने में विफल रहीं.

जूरी की सिफारिशें : मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में हाईकोर्ट की स्थायी बेंच की स्थापना, एक स्वतंत्र विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन, जो हजारों मामलों की जांच करे और सुरक्षा बलों की भूमिका पर भी पूछताछ करे. घृणा-प्रचार और भड़काऊ भाषण देने वालों व उन्हें रोकने में विफल अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई. स्थायी शांति के लिए ढांचागत बदलाव, समुदायों के बीच संवाद, कानूनी जवाबदेही और नैतिक नेतृत्व अनिवार्य हैं

जातीय हिंसा के 27 महीने बाद भी मणिपुर अब तक अशांत ही है. यह सामूहिक विफलता है, जिसे अब नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.


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