जी रहे हैं बस
सट्टा, कांक्षा का दाँव-वाॅव
सपनों का रूपयों में बिकना,
डूबने को नहीं नयन झील,
निहारने को रूप नहीं, क्रीम-क्रीम,
जीत और हार में नहीं फर्क,
भागमभाग बनी है जिंदगी,
टेबल पर सुबह से शाम बैठना,
सुनना, सुनाना, मशीन बनी जिन्दगी ।
***
आंवां
सफेद सूरज
नहीं जानता तप रही है धरती ।
दीवारों पर लोट लगाती हैं किरणें ।
बना है कमरा आंवां ।
पसीना-पसीना लुंगी-बनियान
चेहरे पे हैं चिढ़ और आंखों में भी,
जिन्हें वह बंद किये है।
ट्रिट टिट टि यूई
गाती है बिजली के तार पर बैठी
गौरेया
पंख छोटे-बड़े करती, हिलाती ।
हिल उठते हैं तार
तार मन के
सकून देती है गौरया
***
धारा १४४ + संचार बंदी
अफसर चाहते हैं अपनी रोजी, महत्व
शासक बनाते, बचाते अपनी जागीर
एक दूजे का कान भरते, खुश होते दोनों ।
खुश होते, शासित को छकाने को
नई तुरप निकालते हैं, भावुकता को,
अधूरी बात.योजना से बरगलाते,ईंधन बना
रोटिया बर्बरता की सेक खुश होते हैं ।
अफसर-पुलिसः ( जो इंसान नहीं है यदि)
बाप को भी गालियां,माँ को लाठी बरसन
हविश, सपने ,बटोरते रुपया
साधते हैं नेता, देश ।
बीबी-चाबी भरी खिलौना,
व्यक्तित्व-अस्तित्व का अर्थ खोजती,
झेलती बलात्कार निगाहों का ।
कानूनों की अपनी अपनी व्याख्याएं
तरक्की का सट्टा खेलते हैं अफसर
अपना इंसान होना भूल जाते हैं, भूल
मंहगाई के मारे पति, बेटा, बाप हैं ये
बरसती लाठियों में उतारले नम्बर,
अपनी पहचान, पिल पड़ते हैं
सुरक्षा के नाम पर ।
देश-? हम कहते हैं वह देश है।
संस्कृति ? हम चीखते वह संस्कृति है,
मानवता ? बड़े पिछड़े हो,
बोलो किस शक्ति में जीते हो ?
शासन, शासन है, उसे छेड़ना तमाशा नहीं,
सात बरस के खूंखार पै लाठियां,
मूर्ख नारियों को ममता
दिखाने का मजा गोलियों से,
भागती भीड़, चीख-पुकार,
फेंके जाते हैं पत्थर तोड़-फोड़,
भावुकता में पगलाये जन,
जनतंत्र यह, अपना
सोच, चिंतन, दया, सदाश्यता, भाईचारा
सब हंकाले जाते हैं लाठी से,
स्थिरता के सब्जबाग
गति-प्रगति, उन्नति,
विकास सब उच्चारे जाते हैं।
नहीं है विरोधाभास १४४+ संचारबंदी में
लोकतंत्र को इसी भांति
बरसों से जिलाये जा रहे हैं।
गुरु-गोविंद
बासी
पठन
बंधा
सोचना
बड़बोलापन
खीस निपोरन
आगे चंदन टिपकी
पीछे चूना लगावत
कायर, कातर
पानी रंगी
बेढ़ब ढंगी
सब कुछ है
हैं नहीं जनतंत्री।
सह लेते हैं
आदत ठहरी
हया हीन,
बेबस हंस जाते।
प्रवाह
कल आज नहीं है,
आज आज है
आपकी दीप्ति से दीपित ।
कल कल ही रहेगा,
आज नहीं बनेगा,
आपके सपनों से रंगा-रंगा ।
(यदि आपके पास सपने हो तो)
कल-आज-कल
प्रवाह है-
अपनी समझसे
हर कोई बहाव देता है।
नाते – रिश्ते, ऋतु चक्र की धारा
रुढ़ रहा जो-
मोह के खाते मंड जाता हैं।
मोह में लगन हो कित्ती ही हो
उजास नहीं है, न है ताजगी।
दोनों हैं कर्म में, संघर्ष में
इसलिए आज, आज है।
***
*मंहगाई मान किये है!*
बड़े ठाकुर जुहार
गुहार करें नहीं, जुहार, जुहार ।
भरम बड़ी बात, हमको तो नहीं
आपके जाने हमको भी रहे, आपको
परदा रहे…
बड़े ठाकुर रामा चांदखां ईसरसी डेविड
कित्ते दिनों से करपाये नहीं आपसे बात,
मन की छोड़ें बतियाने की सही
आप बोल लिये वह मुस्करा दिया-इत्ता भर ।
बैलों का चारा पानी, ‘टेक्टर’ का भाड़ा
बीज खाद सिचाई निंदाई दवा कटाई
मशीन और बिजली पैसा चाभती है बड़े ठाकुर
अपनी मेहनत को मारो गोली
आपने कुछ झटका आपके कुछ जय जयकारी
बीस वसूलते हैं, ‘लोट’ पर चालीस
खा जाना सहज है, दुत्कार देते है
वही ‘लोट’ है आपके पास पकड़े रहो माथा
याद किये रहो मैय्या ।
जिनकी गल नहीं रही दाल
भाग दौड़ किये हैं, बेल रहे पापड़
निर्माण का भट्टा जमाये जा रहे
किसी का भट्टा तो जरूर बैठेगा
जनता जनार्दन है, जनता भोली है
कह देंगे हमें धरा है सीमेंट में
‘लम्बर’ बढ़ाने में दलाली में
कुंभ लगा है भिजवादेंगे वहां दे तूंबी
मंहगाई मंहगाई न चिल्लाओ यार
तुम्हारे बाप ने देखी थी- डामर सड़क
पुल बिजली खाद मशीनें
पैसा तो लगेगा ही हमारा, इनका
उठाये रहो खटिया, खड़ी नहीं करेंगे
धरम में धोक देंगे, वहाँ से लायेंगे दस्तूर
बड़े ठाकुर मान किये हैं मंहगाई
माया तुम्हीं समेटो इत्ते से भर पाये
कहें क्या, बड़े ठाकुर
जुहार, दूर से ही जुहार ।
(मार्च 86)
जी रहे हैं बस
सट्टा, कांक्षा का दाँव-वाॅव
सपनों का रूपयों में बिकना,
डूबने को नहीं नयन झील,
निहारने को रूप नहीं, क्रीम-क्रीम,
जीत और हार में नहीं फर्क,
भागमभाग बनी है जिंदगी,
टेबल पर सुबह से शाम बैठना,
सुनना, सुनाना, मशीन बनी जिन्दगी ।
आंवां
सफेद सूरज
नहीं जानता तप रही है धरती ।
दीवारों पर लोट लगाती हैं किरणें ।
बना है कमरा आंवां ।
पसीना-पसीना लुंगी-बनियान
चेहरे पे हैं चिढ़ और आंखों में भी,
जिन्हें वह बंद किये है।
ट्रिट टिट टि यूई
गाती है बिजली के तार पर बैठी
गौरेया
पंख छोटे-बड़े करती, हिलाती ।
हिल उठते हैं तार
तार मन के
सकून देती है गौरया
धारा १४४ + संचार बंदी
अफसर चाहते हैं अपनी रोजी, महत्व
शासक बनाते, बचाते अपनी जागीर
एक दूजे का कान भरते, खुश होते दोनों ।
खुश होते, शासित को छकाने को
नई तुरप निकालते हैं, भावुकता को,
अधूरी बात.योजना से बरगलाते,ईंधन बना
रोटिया बर्बरता की सेक खुश होते हैं ।
अफसर-पुलिसः ( जो इंसान नहीं है यदि)
बाप को भी गालियां,माँ को लाठी बरसन
हविश, सपने ,बटोरते रुपया
साधते हैं नेता, देश ।
बीबी-चाबी भरी खिलौना,
व्यक्तित्व-अस्तित्व का अर्थ खोजती,
झेलती बलात्कार निगाहों का ।
कानूनों की अपनी अपनी व्याख्याएं
तरक्की का सट्टा खेलते हैं अफसर
अपना इंसान होना भूल जाते हैं, भूल
मंहगाई के मारे पति, बेटा, बाप हैं ये
बरसती लाठियों में उतारले नम्बर,
अपनी पहचान, पिल पड़ते हैं
सुरक्षा के नाम पर ।
देश-? हम कहते हैं वह देश है।
संस्कृति ? हम चीखते वह संस्कृति है,
मानवता ? बड़े पिछड़े हो,
बोलो किस शक्ति में जीते हो ?
शासन, शासन है, उसे छेड़ना तमाशा नहीं,
सात बरस के खूंखार पै लाठियां,
मूर्ख नारियों को ममता
दिखाने का मजा गोलियों से,
भागती भीड़, चीख-पुकार,
फेंके जाते हैं पत्थर तोड़-फोड़,
भावुकता में पगलाये जन,
जनतंत्र यह, अपना
सोच, चिंतन, दया, सदाश्यता, भाईचारा
सब हंकाले जाते हैं लाठी से,
स्थिरता के सब्जबाग
गति-प्रगति, उन्नति,
विकास सब उच्चारे जाते हैं।
नहीं है विरोधाभास १४४+ संचारबंदी में
लोकतंत्र को इसी भांति
बरसों से जिलाये जा रहे हैं।
गुरु-गोविंद
बासी
पठन
बंधा
सोचना
बड़बोलापन
खीस निपोरन
आगे चंदन टिपकी
पीछे चूना लगावत
कायर, कातर
पानी रंगी
बेढ़ब ढंगी
सब कुछ है
हैं नहीं जनतंत्री।
सह लेते हैं
आदत ठहरी
हया हीन,
बेबस हंस जाते।
प्रवाह
कल आज नहीं है,
आज आज है
आपकी दीप्ति से दीपित ।
कल कल ही रहेगा,
आज नहीं बनेगा,
आपके सपनों से रंगा-रंगा ।
(यदि आपके पास सपने हो तो)
कल-आज-कल
प्रवाह है-
अपनी समझसे
हर कोई बहाव देता है।
नाते – रिश्ते, ऋतु चक्र की धारा
रुढ़ रहा जो-
मोह के खाते मंड जाता हैं।
मोह में लगन हो कित्ती ही हो
उजास नहीं है, न है ताजगी।
दोनों हैं कर्म में, संघर्ष में
इसलिए आज, आज है।
मंहगाई मान किये है!
बड़े ठाकुर जुहार
गुहार करें नहीं, जुहार, जुहार ।
भरम बड़ी बात, हमको तो नहीं
आपके जाने हमको भी रहे, आपको
परदा रहे…
बड़े ठाकुर रामा चांदखां ईसरसी डेविड
कित्ते दिनों से करपाये नहीं आपसे बात,
मन की छोड़ें बतियाने की सही
आप बोल लिये वह मुस्करा दिया-इत्ता भर ।
बैलों का चारा पानी, ‘टेक्टर’ का भाड़ा
बीज खाद सिचाई निंदाई दवा कटाई
मशीन और बिजली पैसा चाभती है बड़े ठाकुर
अपनी मेहनत को मारो गोली
आपने कुछ झटका आपके कुछ जय जयकारी
बीस वसूलते हैं, ‘लोट’ पर चालीस
खा जाना सहज है, दुत्कार देते है
वही ‘लोट’ है आपके पास पकड़े रहो माथा
याद किये रहो मैय्या ।
जिनकी गल नहीं रही दाल
भाग दौड़ किये हैं, बेल रहे पापड़
निर्माण का भट्टा जमाये जा रहे
किसी का भट्टा तो जरूर बैठेगा
जनता जनार्दन है, जनता भोली है
कह देंगे हमें धरा है सीमेंट में
‘लम्बर’ बढ़ाने में दलाली में
कुंभ लगा है भिजवादेंगे वहां दे तूंबी
मंहगाई मंहगाई न चिल्लाओ यार
तुम्हारे बाप ने देखी थी- डामर सड़क
पुल बिजली खाद मशीनें
पैसा तो लगेगा ही हमारा, इनका
उठाये रहो खटिया, खड़ी नहीं करेंगे
धरम में धोक देंगे, वहाँ से लायेंगे दस्तूर
बड़े ठाकुर मान किये हैं मंहगाई
माया तुम्हीं समेटो इत्ते से भर पाये
कहें क्या, बड़े ठाकुर
जुहार, दूर से ही जुहार ।
(मार्च 86)
***
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.
















