राहुल सांकृत्यायन सृजन पीठ एवं जन संस्कृति मंच के संयुक्त प्रयास से साहित्यकार व संस्कृतिकर्मी अजय कुमार जी की स्मृति में सृजनपीठ के सभागार में ‘कविता का समाज और समाज की कविता’ विषय पर रविवार को एक विचार गोष्ठी व काव्य-संध्या का आयोजन किया गया। गोष्ठी के आरंभ में डॉ.रामशिरोमणि व उनके साथी तथा आँचल व जाह्नवी ने ‘तू जिंदा है तो जिंदगी पर यकीन कर,अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर’ गीत प्रस्तुत किए।
गोष्ठी के प्रथम सत्र में आधार वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए डॉ. जयप्रकाश ‘धूमकेतु’ ने बताया कि अजय कुमार एक कवि के साथ-साथ रंगकर्मी भी थे। उनका नाता राजनीति, साहित्य और संस्कृति तीनों से था। उन्होंने हिंदी और उर्दू की एकता पर बड़ा काम किया। प्रगतिशील आंदोलन को आगे बढ़ाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
मुख्य वक्ता डॉ. दिनेश कुशवाह ने अजय कुमार को याद करते हुए कहा कि वो मेरे बहुत आत्मीय थे। जहाँ तक कविता की बात है तो कविता बहुत सरस होती है जबकि काव्यशास्त्र नीरस होता है। हमें समाज की कविता का मूल्यांकन उसकी सरसता के आधार पर करना चाहिए। भारत में कविता को कथनी और करनी दोनों में समानता व विश्वास की कसौटी पर कसा जाता है। अगर हम वैचारिक दृष्टिकोण से आज के समाज की बात करें तो उसके वैचारिकी में बौनापन आ गया है। ये दौर विचार शून्यता का दौर है। ऐसे में समकालीन कवियों के समक्ष बड़ी चुनौती है। मेरा ऐसा मानना है कि कविता की भाषा मानव मूल्य की रक्षा करती है। आदमी का जब सांस्कृतिक विकास होता है तब जाकर वह इंसान बनता है। कविता को समाज की कविता तब कहा जा सकता है जब वह मनुष्य के जीवन प्रसंगों में काम आए। आज की कविता हमको इसलिए आकर्षित नहीं कर पा रही क्योंकि वह जीवन संघर्षों से दूर हो चुकी है।
डॉ० रघुवंशमणि ने कहा कि कविता का एक समाज होता है। वेदों की ऋचाओं में उस समय के कृषक प्रधान और पशुपालन पर निर्भर समाज का चित्रण मिलता है। तथ्यों के साथ-साथ मानव जगत की संवेदनाएं भी कविता में परिलक्षित होती हैं।कवि के लिए अपनी संवेदनाओं का सीधा प्रतिबिंबन जरूरी है लेकिन तकनीकी के प्रयोग के कारण यह सीधा नहीं रह जाता। कविता तभी मूल्यवान मानी जा सकती है जब उसमें मानवीय सार्थकता का समावेश हो। साहित्य अपने-आप में समाज के सापेक्ष अधिक स्वतंत्र होता है। समाज कविता को तैयार करता है लेकिन कविता समाज का अतिक्रमण कर जीवन संघर्षों का प्रतिबिंबन करती है।दिवाकर सिंह ने कहा कि वर्तमान में मानव जीवन बहुत त्रासदी भरा है। आज भी समाज का बहुत बड़ा हिस्सा बहुत धैर्य के साथ दुःख भरा जीवन व्यतीत कर रहा है। ये चिंता का विषय है।
सुप्रसिद्ध कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने कहा कि आज की कविताओं में वो आवेग और तेवर नहीं है जो पहले की कविताओं में हुआ करता था। कवि भविष्यद्रष्टा होता है उसे सत्ता नहीं बल्कि समाज के लिए कविता लिखनी चाहिए। शिवकुमार पराग ने कविता की रचना प्रक्रिया के संदर्भ बात करते हुए बताया कि कविता तब बनती जब आप उसे हृदय से महसूस करते हैं। लोहर पर लिखी अपनी कविता की रचना प्रक्रिया की चर्चा करते हुए वो भावुक हो गए। उन्होंने बताया कि जब भी मैं उधर से गुजरता हूँ मेरी आँखें उस लोहार के पाँव को चूमती हैं। मनोज कुमार सिंह ने कहा कि कविता केवल किसी विशेष समाज की नहीं होती। वह उस समाज का अतिक्रमण कर सर्व समाज की हो जाती है। अजय कुमार जनसरोकार से जुड़े हुए व्यक्ति थे। साहित्य के साथ-साथ सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दृष्टि से भी समृद्ध थे। विशाल श्रीवास्तव ने दिनेश कुशवाह के वक्तव्य से सहमत होते हुए कहा कि जिस कविता में मानव के जीवन संघर्षों का अभाव है वो शब्द-मात्र है उसे कविता नहीं कह सकते।
कार्यक्रम के द्वितीय सत्र काव्य-संध्या में स्वप्निल श्रीवास्तव, दिनेश कुशवाह, शिवकुमार पराग, राघवेंद्र सिंह, विशाल श्रीवास्तव, मनोज सिंह, सुनीता, जितेंद्र मिश्र ‘काका’ ,धनञ्जय शर्मा, अनुपमा, पंडित राजेश, योगेंद्र पाण्डेय ,इम्तियाज तथा बृजेश ने अपनी-अपनी कविताओं का पाठ किया।
कार्यक्रम में उपस्थित सभी लोगों ने कवि अजय कुमार को श्रद्धासुमन अर्पित किया। गोष्ठी का संचालन डॉ. रामनरेश आज़मी तथा धन्यवाद ज्ञापन ओमप्रकाश सिंह ने किया।
गोष्ठी में मुख्य रूप से, अनुभवदास शास्त्री,बाबूराम पाल रामावतार सिंह, अब्दुल अज़ीम खां, रामकुमार भारती, अरविन्द मूर्ति, डा. त्रिभुवन शर्मा, बसंत कुमार, डॉ० अजय गौतम, डॉ.तेजभान, डॉ.प्रवीण यादव, रामजी सिंह, रामहर्ष मौर्य, ओमप्रकाश गुप्ता, साधु, विद्या कुशवाहा, नीतू यादव, निशा यादव आदि उपस्थित रहे.
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