राम और रावण के बीच का मनुष्य

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Dussehra

Parichay Das

— परिचय दास —

क्वार मास की शरद ऋतु की हवा में जब आकाश निर्मल होकर नीलाभ हो उठता है और धरा अपने भीतर संचित पीड़ा और उल्लास को एक साथ साँस की तरह छोड़ती है, तभी दशहरा आता है। यह पर्व केवल एक अनुष्ठान नहीं बल्कि समूचे भारतीय मानस का वह उत्सव है जिसमें विजय और करुणा, शक्ति और शांति, संघर्ष और समाधान सब एक साथ धड़कते हैं। शरद की पावन ऋतु में जब गोधूलि का समय लंबा होता है और पके धानों की बालियाँ अपने स्वर्णिम बोझ से झुक जाती हैं, तब गाँव-नगर, गलियाँ-चौराहे, सब एक दिव्य कथा के रंगमंच में बदल जाते हैं।

दशहरा की छाया में रामकथा बहती है—वह कथा जिसमें वानर और भालू केवल पात्र नहीं रहते, वे जनमानस की आकांक्षाओं का रूपक बन जाते हैं। हर गाँव में रामलीला होती है, हर पंडाल में प्रकाश और छायाओं का खेल सजता है। बच्चे हाथों में धनुष-तीर लेकर खेलते हैं, स्त्रियाँ गीतों में विजय की कामना गाती हैं और बूढ़ी आँखें देखती हैं कि कैसे पीढ़ी दर पीढ़ी यह पर्व मानव के भीतर की अंधकारमय वासनाओं को पराजित करने का संकल्प जगाता है।

रावण का पुतला जब खड़ा होता है तो वह केवल रावण नहीं होता। उसमें हमारी ही दुर्बलताएँ, हमारी ही कामनाएँ और हमारे ही अंतर्विरोध ऊँचाई पाकर धधक उठते हैं। जब वह अग्नि की लपटों में भस्म होता है तो एक क्षण को लगता है कि हम अपने भीतर के लोभ, अहंकार और क्रोध को जलते देख रहे हैं। बच्चे ताली बजाकर उछलते हैं, स्त्रियाँ आँखें मींचकर मन ही मन प्रार्थना करती हैं और पुरुषों के भीतर एक विचित्र गर्व भर उठता है—यह गर्व केवल राम का नहीं बल्कि मनुष्य के धर्म का है जो असत्य पर सत्य की विजय रचता है।

दशहरा की रात में गगन दीयों से उज्ज्वल हो उठता है। हवा में धुएँ और गंधक की गंध तैरती है पर उसके बीच भी एक अजीब पवित्रता का अनुभव होता है। यह पवित्रता न केवल धार्मिक है बल्कि सांस्कृतिक भी है। वर्षों से वही कथा, वही पुतले, वही तीर और वही लपटें—फिर भी हर बार नया लगना, यही भारतीय जीवन का आश्चर्य है। मानो समय स्वयं उस क्षण को पुनः रचता है और हर बार हमें स्मरण कराता है कि मनुष्य का होना संघर्ष है और संघर्ष का अंतिम अर्थ विजय है।

किसी गाँव की चौपाल में जब रामलीला होती है तो वहाँ मंच साधारण होता है—बाँस और कपड़ों से बना हुआ, पर उसके भीतर कल्पना का स्वर्ण महल खड़ा हो जाता है। छोटे-छोटे कलाकार जब राम, लक्ष्मण और हनुमान का अभिनय करते हैं तो वे केवल अभिनय नहीं करते, वे भारतीय आत्मा की निरंतरता को जीवित रखते हैं। लोग जानते हैं कि यह खेल है पर उसमें खेल नहीं है। यह जीवन है, जो बार-बार इस पर्व के बहाने अपने को पुनः गढ़ता है।

शरद की चाँदनी में जब विजयादशमी की रात बीतती है तो ऐसा लगता है मानो पूरी प्रकृति ने भी इस उत्सव में भाग लिया हो। गंगा का जल और स्वच्छ हो उठता है, हवा में नमी और शीतलता घुल जाती है, आकाश में तारे चमकते हैं, मानो वे भी इस विजय के साक्षी बने हों। धरा अपने संताप को भूल जाती है और मानव का हृदय नए उत्साह से भर उठता है।

दशहरा का मर्म केवल रावण दहन नहीं बल्कि यह है कि जीवन में चाहे कितनी ही कठिनाइयाँ क्यों न हों, मनुष्य में उन पर विजय पाने की क्षमता है। यह पर्व हमें यह स्मरण कराता है कि असत्य क्षणिक है और सत्य चिरंतन। यही कारण है कि दशहरा बार-बार लौटकर आता है, बार-बार वही कथा कहता है और बार-बार हमें भीतर से नया करता है।

यह पर्व हमें हमारे भीतर की आस्था से जोड़ता है। जब भी हम रावण दहन देखते हैं तो भीतर ही भीतर अपने छोटे-छोटे रावणों को जलाने का संकल्प लेते हैं। जब भी हम रामलीला देखते हैं तो अपनी साधारणताओं में असाधारण खोजने की प्रेरणा पाते हैं। जब भी हम विजयादशमी मनाते हैं, तो जीवन की अनगिनत पराजयों के बीच भी यह विश्वास संजोते हैं कि अंतिम विजय हमारी ही होगी।

दशहरा इस तरह केवल एक पर्व नहीं बल्कि वह निरंतर स्मृति है कि मनुष्य का जीवन एक महान कथा है—जिसमें अंधकार है पर उजाला भी है; जिसमें पराजय है पर विजय भी है; जिसमें रावण है, पर राम भी है और जब तक यह कथा हमारे भीतर जीवित है, तब तक मनुष्य की आत्मा कभी पराजित नहीं होगी।

जब दशहरा की सुबह उगती है तो आकाश की नीलिमा और धरा की हरियाली मानो एक नए आरंभ का संदेश देती है। शरद की शीतल हवा में एक अद्भुत ताजगी होती है, जिसमें खेतों से आती धान की गंध और आँगन में बने पकवानों की सुवास मिलकर वातावरण को और भी जीवन्त कर देती है। बच्चे पहले ही से उत्सव की तैयारी में मग्न होते हैं—कहीं बाँस के धनुष-तीर बनते हैं, कहीं रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर वे स्वयं को राम, लक्ष्मण, सीता या हनुमान के रूप में सजाने लगते हैं।
गली-मोहल्लों में रामलीला के गीत और संवाद गूँजने लगते हैं। हर घर, हर द्वार, हर आँगन में इस पर्व की प्रतीक्षा एक अनकहे उल्लास के साथ होती है।

दिन ढलने पर जब संध्या उतरती है, तब वातावरण सचमुच एक अद्भुत रंगमंच में बदल जाता है। दूर-दूर तक ढोल-नगाड़ों की थाप, शंख की ध्वनि और आरती की गूँज एक साथ मिलकर एक ऐसा सामूहिक संगीत रचते हैं, जिसमें धर्म और कला दोनों का संगम होता है। चौक-चौराहों पर खड़े रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले मानो आसमान छूते हैं। उनमें लगी हुई कागज़ और रंग-बिरंगी सजावट चमकती हुई बिजली के बल्बों और आतिशबाज़ियों के बीच और भव्य लगती है। लोग दूर-दूर से इकट्ठा होकर इस दृश्य को देखने आते हैं। आँखों में कौतूहल है, मन में प्रतीक्षा है—वह क्षण कब आएगा जब बुराई का प्रतीक अग्नि में समर्पित होगा और मानव-मन एक बार फिर से सत्य की विजय का गीत गाएगा।

रात ढलते-ढलते जब अग्निबाण छोड़ा जाता है और विशाल रावण धधक उठता है तब लोगों की आँखों में चमक आ जाती है। धुएँ, चिंगारियों और गंधक की गंध के बीच बच्चों की तालियाँ, स्त्रियों की प्रार्थनाएँ और पुरुषों की गर्वपूर्ण दृष्टि मिलकर ऐसा दृश्य रचते हैं जिसे शब्दों में बाँधना कठिन है। वह क्षण केवल एक उत्सव का चरम नहीं होता, वह मनुष्य की आत्मा का उत्कर्ष होता है। हर कोई भीतर ही भीतर अपने छोटे-बड़े रावणों को जलते हुए देखता है और अनुभव करता है कि विजय केवल बाहर की नहीं, भीतर की भी होनी चाहिए।

दशहरा की यह रात बीत जाने के बाद भी उसका प्रकाश मनुष्य के भीतर देर तक रहता है। अगले दिन भी हवा में वही उल्लास बना रहता है, वही विश्वास कि जीवन चाहे कितना भी कठिन क्यों न हो, सत्य अंततः विजय पाता है। खेतों की मेड़ पर चलते हुए किसान भी इस विश्वास को अपने श्रम में ढालते हैं, स्त्रियाँ इसे अपने गीतों में गूँजाती हैं और बच्चे अपने खेलों में इसे दोहराते हैं। इस प्रकार दशहरा केवल एक पर्व नहीं बल्कि जीवन का वह शाश्वत संदेश है जो हर पीढ़ी को एक ही स्वर में कहता है—असत्य का अंत निश्चित है और सत्य का उजाला अमर।

दशहरा का गूढ़ अभिप्राय केवल एक पर्व के उल्लास में सीमित नहीं है। यह हमें बार-बार यह स्मरण कराता है कि जीवन का वास्तविक संघर्ष बाहरी रावण से नहीं, भीतर के रावण से है। हर मनुष्य के अंतःकरण में कहीं न कहीं वासना, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या और अहंकार के रूप में अनेक मुखों वाला रावण छिपा बैठा है। पुतले का दहन तभी सार्थक है जब हम अपनी आत्मा की अग्नि में उन दुर्बलताओं को जलाने का साहस करें। यही दशहरा का मर्म है—भीतर और बाहर दोनों ओर से सत्य की विजय।

यह पर्व हमें यह भी बताता है कि सामूहिक स्मृति ही संस्कृति को जीवित रखती है। छोटे-से गाँव की चौपाल पर मंचित रामलीला भी उतनी ही महान है जितना भव्य नगर का उत्सव, क्योंकि दोनों में एक ही भाव बहता है—अन्याय पर न्याय का, अंधकार पर प्रकाश का और असत्य पर सत्य का विजयगीत।

अभिप्राय यही है कि दशहरा केवल धार्मिक आस्था का आयोजन नहीं, बल्कि जीवन की शाश्वत सीख है। वह हमें यह विश्वास देता है कि चाहे कितनी ही बार रावण हमारे सामने खड़ा हो, अंततः जलना उसी का है। मनुष्य का साहस और सत्य की आस्था ही सबसे बड़ी धनुष-बाण है। इसीलिए दशहरा हर वर्ष लौटकर आता है, ताकि हम भूल न जाएँ कि विजयादशमी केवल एक दिन नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक संकल्प है।

दशहरा के अभिप्राय को समझना हो तो सबसे पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि यह पर्व केवल एक धार्मिक कथा का उत्सव नहीं है। इसका अर्थ उससे कहीं गहरा और व्यापक है। यह उस अदृश्य संवाद की अभिव्यक्ति है, जो मनुष्य अपने भीतर और समाज अपने सामूहिक चेतना में निरंतर करता आया है। जब हम रावण का पुतला देखते हैं, तो वह कागज़, बाँस और आतिशबाज़ियों से बना हुआ एक खिलौना मात्र नहीं होता। उसमें हमारी सभ्यता की स्मृतियाँ, हमारे जीवन की कठिनाइयाँ और हमारी आत्मा के प्रश्न जीवित होते हैं। वह खड़ा रहता है हमारे सामने, जैसे एक दर्पण, जिसमें हम अपनी ही परछाई देख पाते हैं।

मनुष्य के भीतर अनेक मुख हैं—लोभ का, क्रोध का, अहंकार का, मोह का, ईर्ष्या का। यह मुख ही तो रावण के दस सिर हैं। वह रावण बाहर खड़ा न भी हो तो भी भीतर हर दिन हमें घेरे रहता है। यही कारण है कि पुतले का दहन केवल बाहरी दृश्य नहीं, एक आंतरिक अनुष्ठान है। जब अग्निबाण रावण के सीने में धँसता है, तब वह तीर हमारे अंतःकरण की अंधकारमय वासनाओं पर भी चलाया जाता है। वह जलता हुआ रावण हमें याद दिलाता है कि मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु कोई और नहीं, बल्कि उसका अपना ही अधम रूप है।

यही दशहरा का पहला गहन अभिप्राय है—बुराई का उन्मूलन बाहर नहीं, भीतर होना चाहिए। यदि भीतर रावण जीवित रहेगा, तो बाहर का पुतला जलाने से कुछ नहीं होगा। यह पर्व हमें आत्मदर्शन का अवसर देता है।

दूसरा अभिप्राय है—सत्य की शाश्वत विजय। यह पर्व हमें सिखाता है कि असत्य कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, उसकी जड़ें खोखली हैं। सत्य भले ही क्षणभर के लिए कमजोर लगे, पर उसका अस्तित्व अनंत है। इतिहास गवाह है कि जो असत्य पर आधारित था, वह ढह गया, और जो सत्य पर आधारित था, वह शताब्दियों तक जीवित रहा। यही कारण है कि हम राम को केवल एक राजा के रूप में नहीं याद करते, बल्कि एक आदर्श के रूप में पूजते हैं। उनकी विजय हमें यह आश्वासन देती है कि जीवन में कितनी भी बाधाएँ हों, अंततः सत्य ही विजयी होगा। यही विजयादशमी का वास्तविक संदेश है।

तीसरा अभिप्राय है—सामूहिकता और संस्कृति का उत्सव। दशहरा केवल व्यक्तिगत साधना नहीं, यह सामूहिक चेतना का उत्सव भी है। जब गाँव-गाँव, शहर-शहर में लोग इकट्ठे होकर रामलीला देखते हैं, रावण दहन करते हैं, तब यह केवल मनोरंजन नहीं होता। यह हमारी संस्कृति की धड़कन है। छोटे-से मंच पर खड़े कलाकार जब राम और हनुमान का अभिनय करते हैं, तो वे केवल अभिनय नहीं कर रहे होते बल्कि हमारे भीतर सदियों से गूँजते आदर्शों को जीवित कर रहे होते हैं। यही संस्कृति की निरंतरता है—एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचना। हर बार वही कथा सुनाई जाती है, पर हर बार वह नई लगती है। यह नयापन ही सामूहिकता का चमत्कार है।

दशहरा का चौथा अभिप्राय है—मानव जीवन की जिजीविषा। खेतों में किसान कठिन श्रम कर रहा है, जीवन में दुख और विषमता है, पर दशहरा उसे यह कहता है कि संघर्ष के बाद विजय है। यही कारण है कि विजयादशमी का नाम ही विजय से जुड़ा है। जीवन चाहे कितना भी कठिन क्यों न हो, अंततः उसमें सफलता और आलोक का क्षण अवश्य आता है। इस पर्व की छाया में मनुष्य यह विश्वास करता है कि उसकी मेहनत व्यर्थ नहीं जाएगी, उसका संघर्ष फलहीन नहीं होगा।

दशहरा का पाँचवाँ और अत्यंत गूढ़ अभिप्राय है—भीतर के संतुलन की आवश्यकता। रावण केवल बुराई नहीं था; वह विद्वान भी था, पराक्रमी भी था, शिव का भक्त भी था। उसका पतन इस कारण हुआ कि उसने अपने सामर्थ्य का संतुलन खो दिया। यही शिक्षा दशहरा हमें देता है—असंतुलन ही विनाश का कारण है। मनुष्य के भीतर यदि शक्ति है पर विवेक नहीं, ज्ञान है पर करुणा नहीं, श्रद्धा है पर संयम नहीं, तो वह भी रावण की तरह पतन को प्राप्त होता है। अतः यह पर्व केवल बुराई के नाश का प्रतीक नहीं, बल्कि संतुलित जीवन की आवश्यकता का भी संदेश है।

अब सोचिए—क्यों यह पर्व हर वर्ष मनाया जाता है? इसका कारण यही है कि यह केवल एक ऐतिहासिक स्मृति नहीं बल्कि जीवन का निरंतर सत्य है। हम हर वर्ष रावण को जलाते हैं, क्योंकि हर वर्ष हमारे भीतर नए रावण पैदा होते हैं। लालच के, ईर्ष्या के, स्वार्थ के, अन्याय के। उन्हें बार-बार जलाना पड़ता है। और यही इस पर्व का शाश्वत महत्व है।

अभिप्राय का एक और पक्ष है—प्रकृति का सहभाग। दशहरा शरद ऋतु में आता है, जब आकाश निर्मल होता है, धान की बालियाँ पककर झुक जाती हैं, और धरती पर स्वर्णिम आभा छा जाती है। यह ऋतु ही मानो इस पर्व का आलंकारिक रूप है—अंधकार के बाद प्रकाश, संघर्ष के बाद फल, परिश्रम के बाद उत्सव। यही कारण है कि दशहरा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि कृषि-प्रधान समाज का भी पर्व है। किसान इसे अपनी मेहनत के प्रतिफल के रूप में देखता है, स्त्रियाँ इसे घर-आँगन की समृद्धि से जोड़ती हैं, और बच्चे इसे अपने खेलों और सपनों में रच लेते हैं।

सबसे व्यापक अभिप्राय यह है कि दशहरा जीवन जीने का एक दृष्टिकोण है। यह हमें याद दिलाता है कि हमारा जीवन केवल व्यक्तिगत साधनाओं और संघर्षों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामूहिक और सांस्कृतिक भी है। यह हमें आत्मावलोकन का अवसर देता है और बताता है कि विजय का अर्थ केवल शत्रु को हराना नहीं, बल्कि स्वयं को जीतना है।

यदि हम इसे गहराई से देखें तो पाएँगे कि हर दिन एक छोटा दशहरा है। हर सुबह हम अपने भीतर के रावणों से लड़ने का संकल्प लेकर उठते हैं। कभी जीतते हैं, कभी हारते हैं। पर हर बार दशहरा हमें याद दिलाता है कि हार स्थायी नहीं, विजय ही अंतिम है। यही वह विश्वास है जो जीवन को अर्थ देता है और हमें भविष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा।

दशहरा का अभिप्राय केवल एक धार्मिक कथा का स्मरण नहीं है, बल्कि जीवन का शाश्वत दर्शन है। यह दर्शन हमें यह कहता है कि—
अंधकार चाहे कितना भी गहरा हो, एक दीपक पर्याप्त है।
असत्य चाहे कितना भी व्यापक हो, सत्य की एक किरण उसे चीर सकती है।
और बुराई चाहे कितनी भी शक्तिशाली हो, अच्छाई की आस्था अंततः उसे पराजित कर देती है।

दशहरा का लालित्य उसी तरह फैलता है जैसे शरद ऋतु की चाँदनी—धीरे-धीरे, शीतलता और आभा से भरकर। यह पर्व केवल धार्मिक आस्था का आवरण नहीं है, बल्कि अपने भीतर सौंदर्य, करुणा, उल्लास और गहन प्रतीकात्मकता का ऐसा संसार समेटे है, जिसमें भारतीय जीवन की आत्मा झिलमिलाती है। दशहरा जब आता है तो हवा बदल जाती है। आकाश में धुला हुआ नीलापन उतर आता है, खेतों में सुनहरी बालियाँ झुक जाती हैं, और गोधूलि की लंबी साँझ में धरती पर मानो किसी अदृश्य उत्सव की परछाइयाँ बिखर जाती हैं। यह दृश्य ही अपने आप में कविता है, और यही उसकी लालित्य-शक्ति है—प्रकृति और जीवन का एक अद्वितीय सामंजस्य।

लालित्य का पहला रूप उस रामलीला में दिखता है, जो गाँव की चौपालों से लेकर नगरों के मैदानों तक सजी होती है। बाँस और कपड़ों से बने मंच पर साधारण वेशभूषा में खड़े कलाकार जब राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान का अभिनय करते हैं, तब उनकी आवाज़ों और मुद्राओं में कोई कृत्रिमता नहीं रहती। वहाँ जीवन की सहजता, मासूमियत और श्रद्धा होती है। दर्शक दीर्घा में बैठे बच्चे, स्त्रियाँ और बुज़ुर्ग उन संवादों को सुनते हैं जिन्हें वे पहले भी अनगिनत बार सुन चुके हैं, पर हर बार वही कथा नई लगती है। यह पुनरावृत्ति का नयापन ही लालित्य है—कथा की अनंत शक्ति, जो हर युग में ताज़गी से भर देती है।

दूसरा लालित्य उस क्षण में है जब रावण का पुतला खड़ा होता है। उसकी ऊँचाई, उसके दस सिर, उसकी सजावट—सबमें एक भय और आकर्षण दोनों की आभा होती है। वह रावण हमारे भीतर के लोभ, मोह और अहंकार का रूपक बनकर सामने आता है। जब भीड़ में बैठे लोग उसकी ओर देखते हैं तो उनके मन में छिपी दुर्बलताएँ जैसे आकार ले लेती हैं। यह कला का उच्चतम लालित्य है—जब बाहर का दृश्य भीतर की चेतना को दर्पण की तरह प्रतिबिंबित कर दे।

फिर आता है वह क्षण जब रावण धधक उठता है। आकाश में उठती चिंगारियाँ, धुएँ की गंध, आतिशबाज़ियों की आवाज़ और बच्चों की हँसी एक साथ मिलकर मानो एक संगीतमय राग बना देती हैं। यह दृश्य केवल नाश का दृश्य नहीं, बल्कि सौंदर्य का चरम क्षण है। ज्वाला में जलता हुआ पुतला एक अमिट प्रतीक बन जाता है—बुराई का अंत, असत्य का विनाश। यह सौंदर्य हमें करुणा और आशा दोनों से भर देता है। यही दशहरा का लालित्य है कि विनाश के बीच भी वह सृजन की आभा जगा देता है।

लालित्य केवल बाहरी अनुष्ठानों में ही नहीं बल्कि भावनाओं की गहराई में भी है। दशहरा के दिन जब स्त्रियाँ गीत गाती हैं, तो उनमें केवल उत्सव का उल्लास नहीं, बल्कि परिवार की सुख-समृद्धि और समाज की भलाई की कामना भी छिपी रहती है। बच्चों की हँसी में भविष्य की आशा गूँजती है। वृद्धों की आँखों में स्मृति का आलोक होता है—वे पिछले दशहरों को याद करते हैं, अपने बचपन को देखते हैं, और समय के प्रवाह में इस पर्व की अनंतता को अनुभव करते हैं। यही लालित्य है—जीवन की स्मृति, वर्तमान और भविष्य का एक साथ संलयन।

दशहरा का लालित्य इस बात में भी है कि यह पर्व केवल धर्म का नहीं, बल्कि प्रकृति और समाज का भी उत्सव है। शरद ऋतु की ताजगी, गोधूलि की चाँदनी, खेतों की सुनहरी आभा—सब मिलकर इस पर्व को एक काव्यात्मक पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं। इस समय धरती मानो स्वयं सजती है, जैसे वह इस विजय पर्व का स्वागत कर रही हो। हवा की शीतलता और आकाश की निर्मलता हमारे मन को भी निर्मल कर देती है। यही तो सौंदर्य है—बाहरी जगत और भीतरी जगत का एकाकार।

दशहरा का लालित्य उसकी प्रतीकात्मकता में है। राम और रावण की कथा केवल पौराणिक आख्यान नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर के संघर्ष का रूपक है। एक ओर संयम, प्रेम, करुणा और सत्य; दूसरी ओर अहंकार, वासना, लोभ और क्रोध। यह संघर्ष हर युग में चलता रहा है और चलता रहेगा। दशहरा इस संघर्ष का स्मरण है और विजय की संभावना का आश्वासन। इस रूपक की व्यापकता ही उसका सौंदर्य है। यही कारण है कि यह पर्व सदियों से बदलते समाज में भी अप्रचलित नहीं हुआ, बल्कि और भी जीवंत होता गया।

लालित्य यह भी है कि दशहरा हर व्यक्ति को उसकी स्थिति और दृष्टिकोण से कुछ अलग देता है। बच्चे इसे खेल और हँसी का पर्व मानते हैं, स्त्रियाँ इसे मंगलकामना का अवसर समझती हैं, किसान इसे अपने श्रम के प्रतिफल की आशा से जोड़ते हैं, और साधक इसे आत्मविजय की साधना का प्रतीक मानते हैं। यह विविधता ही उसकी सौंदर्य-समृद्धि है—एक ही पर्व अनगिनत अर्थों से भरा हुआ।

यदि गहराई से देखें तो दशहरा का लालित्य यही है कि यह केवल उत्सव नहीं, बल्कि कविता की तरह बहता हुआ एक अनुभव है। यह मनुष्य को सामूहिकता की गरिमा का भी बोध कराता है और व्यक्तिगत साधना का भी। यह हमें प्रकृति की सुंदरता से जोड़ता है और हमारे भीतर की दुर्बलताओं से भी परिचित कराता है। यह हमें उत्सव के उल्लास में डुबोता है और आत्मदर्शन के मौन में भी ले जाता है। इस दोहरी गत्यात्मकता में ही उसका सच्चा सौंदर्य है।

दशहरा का लालित्य उसकी अनंतता में है। हर वर्ष वही दृश्य दोहराया जाता है, फिर भी हर बार नया लगता है। यही शाश्वतता का सौंदर्य है। यह पर्व हमें यह अनुभव कराता है कि समय चाहे कितना भी बदल जाए, कुछ सत्य ऐसे होते हैं जो कभी नहीं बदलते। बुराई का अंत निश्चित है, अच्छाई की विजय अनिवार्य है, और जीवन का सौंदर्य इसी निरंतरता में है।

यही है दशहरा का लालित्य—प्रकृति की चाँदनी, समाज का सामूहिक उत्सव, भीतर-बाहर का संघर्ष, और शाश्वत सत्य की आभा। यह पर्व हमें सौंदर्य का अनुभव कराता है, जीवन को कविता बना देता है और मनुष्य को उसकी सबसे ऊँची आकांक्षा से जोड़ देता है। यही उसका शाश्वत रूप है, और यही उसका अमर लालित्य।

दशहरा के आख्यान के उपसंहार में पहुँचते हुए यह अनुभव होता है कि यह पर्व केवल कैलेंडर की तारीख़ पर अंकित एक दिन भर का उत्सव नहीं है बल्कि यह जीवन के शाश्वत लय का हिस्सा है। यह ऋतुओं की गति की तरह, सूर्योदय और सूर्यास्त की भाँति, जीवन और मृत्यु की शाश्वत यात्रा की तरह हर वर्ष हमारे पास लौटकर आता है। उसका लौटना हमें हमारी विस्मृतियों से टकराकर जगाता है, जैसे कोई अनसुनी ध्वनि अचानक कानों में भरकर चौंका दे।

दशहरा का उपसंहार दरअसल आरंभ का संकेत है। जब रावण के पुतले अग्नि में धधकते हुए धराशायी हो जाते हैं, तब केवल एक पुरानी कथा की पुनरावृत्ति नहीं होती, बल्कि हर व्यक्ति के भीतर कहीं गहरे छिपे अंधकार को जलाने की प्रेरणा दी जाती है। हममें से कोई भी निष्कलंक नहीं; हम सबके भीतर वासना का एक मुख, अहंकार का दूसरा मुख, ईर्ष्या का तीसरा मुख, मोह का चौथा मुख और लोभ के अनगिनत मुख मौजूद हैं। दशहरा इन मुखों की पहचान कराता है और हमें सिखाता है कि राम का बाण केवल बाहर के पुतले पर नहीं, भीतर के राक्षस पर भी चलना चाहिए।

दशहरा का लालित्य यह है कि मनुष्य का उत्सव- भाव समाप्त नहीं होता बल्कि गहराई से आरंभ होता है। जब लोग भीड़ से लौटते हैं, बच्चे नींद में झूमते हुए घर आते हैं, महिलाएँ दीप की थाली समेटती हैं और आकाश में धुएँ की अंतिम परत तैरती है—तभी दशहरे की सच्ची गूँज शुरू होती है। यह गूँज हमारी आत्मा में उतरती है और कहती है कि प्रकाश केवल आकाश में नहीं, भीतर भी जलना चाहिए।

राम और रावण की कथा न केवल ऐतिहासिक या पौराणिक स्मृति है, बल्कि यह मनुष्य के आदिम संघर्ष की व्याख्या है। हर मनुष्य राम भी है और रावण भी। हर हृदय में अयोध्या का उज्ज्वल कोना है, तो लंका का अंधकार भी। दशहरा का उपसंहार यही है कि मनुष्य बार-बार राम को चुन सके, अपने भीतर की अयोध्या को सजाए, और भीतर के रावण को राख कर सके। यही उसकी वास्तविक विजयादशमी है।

दशहरे में सांस्कृतिक अर्थ छिपा है। जब गाँवों की चौपालों पर रामलीलाओं के मंच खाली हो जाते हैं, जब कलाकार अपनी साधारण पोशाकों में लौट जाते हैं और पर्दे गिर जाते हैं, तब भी उस अभिनय की स्मृति लोगों के भीतर जीवित रहती है। यह स्मृति समाज को बाँधती है, उसे एक संस्कृति का हिस्सा बनाती है। यह बताती है कि भव्यता केवल विशाल मंचों में नहीं, बल्कि छोटे से गाँव के मिट्टी के रंगमंच पर भी जीवित है, क्योंकि वहाँ से भी वही संदेश प्रसारित होता है—सत्य ही अंतिम है।

यदि दशहरा केवल पुतले जलाने तक सीमित रह जाए तो उसका कोई स्थायी अर्थ नहीं होगा। असली चुनौती है उस क्षण को जीवन की निरंतर साधना में बदल देना। जिस तरह राम ने वर्षों के संघर्ष के बाद रावण पर विजय पाई, उसी तरह मनुष्य को भी जीवनभर अपनी दुर्बलताओं से संघर्ष करते रहना पड़ता है। विजय कोई एक क्षण की उपलब्धि नहीं, यह निरंतर युद्ध है, और दशहरा उसी युद्ध की याद दिलाता है।

यह पर्व आस्था और आशा दोनों का संगम है। यह हमें यह भरोसा देता है कि चाहे बुराई कितनी भी प्रबल हो जाए, अंततः उसका पतन सुनिश्चित है। असत्य क्षणभंगुर है, सत्य शाश्वत है। अहंकार की चिता स्वयं उसी की आग से धधक उठती है। यह अनुभव न केवल सांस्कृतिक और धार्मिक अर्थों में बल्कि मानवीय जीवन के व्यावहारिक अर्थों में भी हमें स्थिरता देता है।

जब हम इन सब विचारों को आत्मसात करते हैं तो उपसंहार का अर्थ और भी विस्तृत हो जाता है। दशहरा केवल एक दिन का त्योहार नहीं बल्कि जीवन-दर्शन का प्रतीक है। यह बताता है कि उत्सव केवल सामूहिक आनंद का अवसर नहीं, बल्कि आत्मपरीक्षण का भी समय है। यह हमें चेताता है कि यदि हम भीतर के अंधकार को न जलाएँ तो बाहर का उजाला व्यर्थ है।

उपसंहार में यही लालित्य है—एक लौ, जो बाहर से भीतर तक फैलती है; एक कथा, जो काल से परे जाकर भी प्रासंगिक रहती है; एक उत्सव जो समाप्त होते-होते नई शुरुआत कर देता है। दशहरा हमें यही याद दिलाता है कि जीवन की सबसे बड़ी विजय वह है, जिसमें हम स्वयं पर विजय प्राप्त करें।

दशहरे का उपसंहार किसी कथा का अंत नहीं बल्कि जीवन के सत्य का उद् घोष है। जब आकाश धुएँ से धुँधलाता है और धरती पर राख की परत जम जाती है तभी यह उद् घोष गूँजता है कि हर बार अंधकार लौटेगा और हर बार हमें उसे जलाना होगा। विजयादशमी इसी अनंत संघर्ष का उज्ज्वल पर्व है जो हर वर्ष हमें भीतर और बाहर दोनों का दीपक बनकर लौट आता है।


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