— ओमा The अक्© —
“अंग्रेजी के महान कवि “वर्ड्सवर्थ” की कल्पनाओं में जन्मी थी “लूसी ग्रे”… एक छोटी सी लड़की जो लड़की न हो कर कुदरत का आईना थी… उसके भीतर कहीं उड़ते बादल थे… कहीं नाचते पंछी… कहीं मटकती नदी… कहीं थिरकती बारिश… कहीं गुनगुनाते पत्ते…. ओह! कितनी सुंदर थी वो…!
उन दिनों जब दूरदर्शन नया नया रंगीन हो कर देश में आया था… तब भी हमारे यहां वो “श्वेत श्याम” ही था… पर उस पर रंग का मज़ा लेने के लिए एक तिरंगा प्लास्टिक ग्लास कवर पापा लगा देते थे… जिसमें ऊपर नीला, मध्य में सिंदूरी और नीचे हरी पट्टी होती थी… जिससे “ब्लैक एंड व्हाइट टीवी” पर आने वाले दृश्य भी कुछ कुछ रंगीन होने का आभास देते थे… और ऐसे ही तिरंगे टीवी स्क्रीन पर मैने पहली बार एक लड़कानुमा लड़की को कबूतर की शैली में नाचते हुए देखा… नाचते नाचते जब उस गीत के एक टुकड़े पर जहां जलतरंग बड़ी सुंदरता से बजता है वहां उस नर्तकी के कंधों की थिरकन ने मुझे तब तक चैन की सांस न लेने दिया जब तक मेरे कंधे भी वैसे ही न थिरक पड़े! हां! वो गीत था “पंख होते तो उड़ आती रे,रसिया ओ ज़ालिमा/ तुझे दिल का दाग़ दिखलाती रे”….और इस गीत को पर्दे पर थिरक थिरक कर अदा करने वाली महान अदाकारा का नाम था -“संध्या”.. जो ना तो वैजयंती माला और हेलन की भांति शास्त्रीय नृत्यों में पारंगत थीं… ना ही मीना कुमारी और मधुबाला की तरह आकर्षक भाव भंगिमा की मालकिन.. और ना ही वहीदा रहमान और साधना के जैसे अदाओं की रानी…. पर वो तब भी भारतीय सिनेमा की सबसे प्रभावशाली नर्तकी अभिनेत्री का खिताब पाने में कामयाब रहीं..।
मै बनारस का हूं… उसी बनारस का जहां थे महान शहनाई वादक भारतरत्न “बिस्मिल्लाह खां”… और थे अद्भुत संगीतज्ञ स्वर्गीय रामलाल जी… जो बहुत बड़े शहनाई वादक तो थे ही (फिल्म गूंज उठी शहनाई में अधिकतर शहनाई उन्हीं की बजाई है न कि बिस्मिल्लाह की) साथ ही साथ एक अनूठे संगीतकार भी जिन्होंने केवल दो ही फ़िल्मों में अपने संगीत से पूरे देश को चमत्कृत कर दिया और वो दोनों ही फ़िल्में महान सिने मार्तण्ड व्ही• शांताराम की थीं… जिनमें एक थी “सेहरा”… जिसका की उपरोक्त गीत था..!
इसे संयोग कहिए या मेरे भ्रम किन्तु मैं अपने जीवन में दो बार संध्या नामक स्त्रीयों को मिला हूं और वह दोनों ही महान फिल्म अभिनेत्री संध्या की सूरत से मिलती थीं… उनमें एक तो मेरे बहुत बचपन में मेरे पड़ोसी “मुनीम जी” की बेटी थी “संध्या दीदी” जो बहुत सालों तक हम लोगों को मिलने आती थीं… और बिल्कुल अभिनेत्री संध्या सी लगती थीं और दूसरी हैं जानी मानी कवयित्री “अनामिका” की प्रिय सहेली “संध्या” जिन्हें मै कुछ साल पहले दिल्ली में अनामिका जी के घर में मिला था… और वो भी अभिनेत्री संध्या से हू ब हू मिलती हैं… परन्तु असली अभिनेत्री संध्या शांताराम से मिलने की इच्छा तो अधूरी की अधूरी ही रह गई मेरी..!
२२ सितम्बर १९३२… कोच्चि में जन्मी महाराष्ट्रीयन लड़की संध्या जब केवल १८ वर्ष की थी तभी उन पर महान फिल्मकार व्ही शांताराम की दृष्टि पड़ गई और उन्होंने संध्या को अपनी मराठी फिल्म “अमर भोपाली” में एक गायिका अभिनेत्री के रूप में चुन लिया… यह साल था १९५२ का… फिर इसके एक वर्ष बाद शांताराम ने “टेलीफोन क्रांति” को ले कर एक लाजवाब फिल्म बनाई “तीन बत्ती चार रास्ता”(१९५३) और इस बार इसकी मुख्य भूमिका एक काली कलूटी पर बहुत सुरीली गायिका की थी जिसे संध्या ने बेहद शानदार तरीके से पर्दे पर जिया और शांताराम की चाहती अभिनेत्री और उनकी दूसरी पत्नी भी बन गईं..!
१९५५ में व्ही शांताराम की एक अतुलनीय फिल्म “झनक झनक पायल बाजे” प्रदर्शित हुई… जिसने श्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार और चार फिल्म फेयर पुरस्कार जीत कर तहलका मचा दिया… सिल्वर जुबली हुई इस फिल्म में पहली बार बनारसी कथक का जादू अपनी पूरी आन बान के साथ महान कथक नर्तक “पंडित गोपीकृष्ण” के रूप में रुपहले पर्दे पर जगमगाया.. जिसके साथ थीं “नृत्य प्रतिमा संध्या”… यह वही फिल्म थी जिसके लिए पूरे एक बरस संध्या ने गोपीकृष्ण से कथक की शिक्षा ली थी..।
“नैन सो नैन नाही मिलाओ”… हेमन्त कुमार और लता मंगेशकर की आवाज़ में गाया यह कालजयी रूमानी गीत जिस पर “मैसूर गार्डन के रंगीन फव्वारों” के सामने कामदेव और रति के समान सुंदर लगे गोपीकृष्ण और संध्या ने उन्हीं फव्वारों का अनुशरण करते हुए जो नृत्य किया वह बेमिसाल है… यद्यपि उस फिल्म में अनेक कथक आधारित नृत्य हैं किन्तु फिल्म का अंतिम नृत्य शिव तांडव तो भारतीय सिने इतिहास का सबसे प्रभावशाली नृत्य कहा जा सकता है… उसमें मास्टर गोपीकृष्ण की अदभुत ऊर्जा से भरे तांडव में संध्या का लास्य नृत्य अतुलनीय बन जाता है..और अतुलनीय बन जाती है यह भारतीय नृत्य को समर्पित एक लाजवाल फिल्म।
यदि आप किसी भी गहरे सिने समालोचक से पूछेंगे कि उसकी पसंद की दस भारतीय फिल्में बताओं तो उसकी सूची में एक नाम अवश्य मिलेगा और वो है १९५८ में आई कल्ट फिल्म “दो आँखें बारह हाथ”… एक गहरे दार्शनिक विचार(दण्ड सही या पुरस्कार) को बहुत ही मार्मिक और जज़्बाती ढंग से दर्शाती यह शुद्ध शांताराम फिल्म में संध्या ने अपनी पिछली फिल्मों से अलग हट कर कुछ नया सा चरित्र “चम्पा” निभाया… जो एक अल्हड़,अक्खड़ किन्तु बहुत ही ज़िम्मेदार किस्म की लड़की है जो खिलौने बेच कर जीवनयापन करती है और इसी दरम्यान वो एक कैदी के दो बच्चों को संभालने लगती है। इस चरित्र को जिस सुंदरता और नाटकीय ढंग से संध्या ने निभाया है वो अविस्मरणीय है… इस फिल्म के दो गीत ही ऐसे थे जिस पर इस नर्तकी को थिरकने का मौका मिलता उनमें एक था – “सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला”… और दूसरा – “ताका ताका घुम घुम”… जिसमें उनकी आंखों की लुभावनी अदाएं देखते बनती हैं।
दो आँखें बारह हाथ बनाते हुए व्ही शांताराम की आंखें एक दुर्घटना के कारण लगभग आधे बरस तक अंधी हो गईं… और जब रौशनी लौटी तो पहली बार शांताराम को रौशनी और उस रौशनी में छलकते रंगों की क़ीमत का सही अंदाजा लगा… जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने रंगों के प्रति अपनी कृतज्ञता को एक रंगीन फिल्म के रूप में पर्दे पर उतारा… यह फिल्म उनके जीवन की सबसे सफल फिल्म थी…और इस फिल्म में उनके नौ रंगों को जिस एक अभिनेत्री ने पहना था वो थी उनकी मोहिनी यानी संध्या… और फिल्म थी “नवरंग”!
“नवरंग” मात्र सिनेमा नहीं एक “कलात्मक आंदोलन” भी है… यदि आप नवरंग को लगातार कई बार देख लें तो आपका सौंदर्यबोध कई गुना बढ़ जाएगा…रूप, श्रींगार,कविता, गायन और सबसे बढ़ कर नृत्य की इतनी छवियां शायद ही किसी दूसरी भारतीय फिल्म में इतनी तन्मयता और सफलता के साथ उभारी गई हो… फिल्म का एक एक दृश्य अपने आप में रविवर्मा की पेंटिंग सा उभरता है…और उतनी सुंदर फिल्म में संध्या के अनूठे रूप आपको चकित कर देते हैं फिर चाहे वो “काली काली काली अंधियारी थी रात” गीत में एक अजीब सी लयात्मक चाल वाला नृत्य का टुकड़ा(कामिनिया चले हौले) या “श्यामल श्यामल बदन” गीत पर रसोई घर को वस्तुओं से एक कथात्मक नृत्य अथवा “सैंया तुम तो गुलाब के फूल ” गीत में घोड़े की पूंछ को आधार बना कर नाचना या “तू छुपी हे कहां” में विशाल सेट पर गुड़िया सा थिरकते हुए लुभाना… परन्तु उस फिल्म के दो गीत तो आज ऐतिहासिक नृत्य कहे जाते हैं जिन्होंने लगभग हर नाचने वाले को कभी कभी गहरे तक प्रेरित किया होगा … जिनमें एक गीत है – “आधा है चंद्रमा रात आधी” इस नृत्य में संध्या ने सर पर सात मटके रख कर नृत्य का अभिनय किया है (यद्यपि मटके जुड़े थे तब भी उसका संतुलन करना कमाल था वह भी खासतौर पर कमल के फूल को लेट कर उठाने की भंगिमा में)इस गीत में उनके आलता लगे सुंदर हाथों की सुंदर भंगिमा ने इक्कीसवीं सदी में छाए हुए MTV को भी अपना लोगो बनाने को प्रेरित किया था। और फिर उस फ़िल्म का होली गीत जो सी•रामचंद्र के “जीनियस” का सबूत होने के साथ साथ संध्या के अद्भुत नृत्य कौशल का भी सुबूत है…एक ही समय में स्त्री और पुरुष दोनों किरदारों को निभाते हुए उनका झूम कर “चल जा रे हट नटखट” गाते हुए नाचना दर्शक को पागल कर देता है… इस गीत का एक अंश “तेरी झकझोरी से, बाज आई होरी से,चोर तेरी चोरी निराली रे, मुझे समझो न तुम भोली भाली रे” तो अतुलनीय है। कुल मिला कर यह फ़िल्म संध्या शांताराम की नृत्य कला का उत्स है।
साठ के दशक में संध्या की छवि भारत में एक ऐसी अभिनेत्री की हो चली थी जिसकी हर फ़िल्म में उसका एक नया रूप दिखाई देगा… इतने प्रयोग करियर के लिहाज से किसी भी व्यवसायिक अभिनेत्री ने नहीं किए हैं(कला फिल्मों में काम करने वालों को छोड़ दें)… आश्चर्यजनक रूप से संध्या ने अपने २५ साल के “फ़िल्म करियर” में मात्र १२ फ़िल्मों में काम किया… और उन सबमें न केवल उनके क़िरदार एकदम भिन्न रूप वाले रहे अपितु नृत्य की शैलियां भी भिन्न रहीं… एक रहा कुछ तो रहे फिल्मकार व्ही• शांताराम(संध्या ने उनके अलावा किसी के साथ काम नहीं किया)… इस प्रकार उनका “कैरक्टर वैरिएशन” के मामले में “एवरेज” १००% का रहा जिसे एक अनूठा इतिहास ही कहा जाना चाहिए… और इसी अनूठेपन की मिसाल है फ़िल्म “सेहरा” जिसमें संध्या ने एक राजस्थानी “टॉमबॉय” सरीखा क़िरदार बड़े शानदार तरीके से निभाया… इस दुखांत प्रेम कहानी वाली फ़िल्म का एक गीत “पंख होते तो उड़ आती रे” अपनी मिसाल आप है।
महाकवि कालिदास की अमर कृति “अभिज्ञान शाकुन्तलम” पर आधारित एक अत्यंत सुंदर और सुरीली फिल्म थी शांताराम की “स्त्री”… पौराणिक महाकाव्य की पृष्ठभूमि में आधुनिक स्त्री विमर्श के सबसे सुंदर प्रयोग में शामिल यह फिल्म हमेशा व्ही• शांताराम और संध्या के गहरे रूमानी दृश्यों और चित्ताकर्षक फिल्मांकन के लिए याद रखा जाएगा… इस फिल्म का एक गीत तो आज भी प्रेमी हृदय की महत्वाकांक्षा सा गूंजता है -“आज मधु वातास डोले,मधुरिमा में स्नान कर लो”।
१९६६ में उनकी प्रसिद्ध फ़िल्म (मराठी/हिन्दी) “लड़की सह्याद्री की” आई…. और उसके बाद संध्या लगभग पांच साल बाद एक ऐसे सिनेमा के साथ पर्दे पर लौटीं जो केवल उनके ही लिए बनी थी – “जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली” – १९७१ में भारत की पहली “स्टीरियोफोनिक साउंड” में रिकॉर्ड गानों के साथ बनी यह कमाल की फिल्म राजेश खन्ना की “रूमानी सुनामी” में भी अपनी पदछाप छोड़ने में सफल रही तो यह केवल और केवल व्ही शांताराम और संध्या के कलाप्रेम का ही परिणाम था। इस फिल्म में संध्या केवल नाम बदलती हैं (अलकनंदा) अन्यथा पूरी फिल्म में वो केवल संध्या हैं.. एक ऐसी नर्तकी जिसने कोई भी नृत्य शिक्षा नहीं ली है… वो तो नाचती है कुदरत को देख कर…कभी मछली बन कर(ऐसे तड़पुं की जैसे जल बिन मछली).. कभी नागिन बन कर(कजरा लगा के,बिंदिया सजा के)…कभी धरती बन कर(जो मै चली फिर ना मिलूंगी)… कभी बैसाखी पर नाचती दीवानी बन कर(ओ मितवा ओ मितवा)….बस नाच नाच और नाच… उसमें भी उनके नागिन नृत्य तो इतना कमाल का है कि उसकी सानी हिंदुस्तानी सिनेमा में दूसरी कोई नहीं…इस फ़िल्म को देखते हुए आप संध्या के कायल हुए बिना नहीं रह सकते।
मेरी दृष्टि में संध्या अपने की महान अभिनेत्री थीं… यद्यपि उनके अभिनय पर “नाटकीय” होने के आरोप लगते रहे… परन्तु मेरे हिसाब से वह एक और मुश्किल विधा थी जिसे व्ही शांताराम ने पूरे जीवन बना कर रखा… और वहीं अनुसरण किया संध्या ने… मुझे विश्वास है कि यही संध्या यदि विमल राय और गुरुदत्त के साथ काम करती तो तथाकथित नैसर्गिक अभिनय में अपना लोहा आसानी से मनवा देतीं… जिसका सफल प्रमाण है उनके सिने जीवन की लगभग अंतिम फिल्म “पिंजरा”!
सन १९७२…राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन के टकराव का साल… बॉबी जैसी फिल्म का तूफ़ान और व्यवसायिक सिनेमा के अंतहीन दौर की शुरुआत… बिल्कुल इसी साल में व्ही शांताराम ने अपनी राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त करने वाली फिल्म “पिंजरा” का पहले मराठी और फिर हिन्दी में निर्माण किया.. इस फिल्म में संध्या ने श्रेष्ठ अभिनय (मराठी)का फिल्म फेयर अवॉर्ड जीता… जो उनके दो अवार्ड्स (दूसरा १९७५ में उनको उनकी अंतिम फिल्म “चंदाची चोली” के लिए मिला) में पहला था… यह फिल्म लेखक “हेनरिच” के उपन्यास “प्रोफेसर गार्बेज” के हिंदुस्तानी रूपांतर जिसे मराठी लेखक “शंकर बाबाजी पाटिल” ने लिखा था उस पर आधारित थी…महाराष्ट्र में खेले जाने वाले “तमाशा” की पृष्ठभूमि पर आधारित यह कहानी उस समय के “गांधी आदर्शवाद” और “व्यवसायिक क्रांति” के संघर्ष को, “वासना और संयम” के संघर्ष को एक जुगुप्सा भाव से भरी प्रेमकथा के तौर पर दर्शाती है… फिल्म में संध्या के मुकाबले जीवंत अभिनय डॉ श्रीराम लागू थे… किन्तु संध्या ने कोई कसर न छोड़ते हुए ऐसा कमाल का अभिनय किया कि लोगों ने दांतों तले उंगलियां दबा लीं। फ़िल्म “पिंजरा” में संध्या ने “अश्लील नौटंकी नृत्यों” को जिस बेबाकी से प्रस्तुत किया उसके मुकाबले थोड़ा बहुत फिल्म “तीसरी कसम” में वहीदा रहमान का “पान खाए सैया हमारो”..का नृत्य ही आ सकता है… पर संध्या का नृत्य हर लिहाज से बेहतर माना जाएगा…खासतौर पर “हिचकी” गीत पर किया उनका नृत्य… जिसे लता मंगेशकर ने अद्भुत कलाकारी से गाया है…फिर “मै पटने की हूं नार,सुनो जी मैं पटने वाली हूं”… और “कजरवा लगाती तो क्या होता”… जैसे गीतों में संध्या ने कमाल कर दिया… पर सबसे बड़ा कमाल तो था उस फिल्म संध्या का “गुरु जी” संबोधन को खास देहाती तरीके से एक व्यंग्यात्मक उच्चारण में “गुर्रू जी” बुलाना… फ़िल्म के अंत में चंद्रकला के पश्चाताप को जिस सच्चाई के साथ संध्या ने निभाया है वो रोंगटे खड़े कर देता है।
१९७५ के बाद संध्या न केवल सिनेमा बल्कि सार्वजनिक जीवन से भी पूर्णतः अदृश्य हो गईं… लोगों को लगने लगा कि वो इस दुनिया में नहीं रहीं… फिर व्ही शांताराम की जन्मशती के अवसर पर होने वाले कार्यक्रम में संध्या का अंतिम दीदार हुआ तो लोगों को पता लगा वो परिवार में चुपचाप अपना जीवन ईश्वर ध्यान में बिता रही हैं… इसमें कोई दोराय नहीं की संध्या को उनकी प्रतिभा और कार्य के अनुरूप भारत या महाराष्ट्र सरकार ने कभी सम्मान नहीं दिया…वो केवल संध्या शांताराम ही बन कर रह गईं जो मेरी दृष्टि में एक महान कलाकार का अपमान भी है।
विलियम वर्ड्सवर्थ की वो प्यारी सी लड़की लूसी ग्रे… जिसने प्रकृति को ही अपना शिक्षक बना रखा था…एक ठंडी बर्फीली वादी में कहीं खो जाती है… बर्फ़ पर अपने नन्हे पैरों के निशान छोड़ कर… आज जब मेरी और सभी नृत्य प्रेमियों की प्यारी संध्या की मृत्यु हो चुकी है… तो मैं भी सिनेमा के रुपहले परदे पर उनके नन्हें लेकिन गहरे कदमों के निशान चुन चुन कर देख रहा हूं… और उदास हो रहा आंसू बह रहा हूं कि काश हिन्दी सिनेमा की इस “लूसी ग्रे” यानि मासूम सी संध्या से मैं कभी मिल पाता… और संध्या हैं कि दूर सांवले क्षितिज पर अपने घने बालों का जुड़ा बनाए अपनी ही फिल्म का एक गीत गुनगुनाते हुए मुझे सांत्वना दे रही हैं – “धरती की काया सोई/
अम्बर की माया सोई/
झिलमिल तारों के नीचे/
सपनों की छाया सोई/
मैं ढूंढूं रे तू खोजा/
मैं जागूं रे तू सोजा/
मैं गाउं तू चुप हो जा…।।”
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.

















