9 नवम्बर 1908 की बात है जब गांधीजी बोल्कस्ट्रस्ट (Volksrust) जेल, ट्रांसवाल दक्षिण अफ्रीका में थे। फ़ीनिक्स फार्म से जुड़े सहयोगी अल्बर्ट वेस्ट ने गांधीजी को तार/ पत्र भेजा कि कस्तूरबा की तबियत बहुत गंभीर है, आप जेल का जुर्माना भर कर या क्षमा याचना लिखकर अपनी पत्नी से मिलने आ जाइए। शायद वे बीमारी से बच न पाएं।
गांधीजी ने वह चिट्ठी पढ़ी और उन्होंने अल्बर्ट वेस्ट को नहीं, बल्कि सीधे अपनी धर्मपत्नी कस्तूरबा को एक पत्र लिखा। यह पत्र पब्लिक डोमेन में Letter to Mrs. Kasturba Gandhi के नाम से दर्ज है ।
प्रिय कस्तूर,
आज मुझे मि. वेस्ट का तुम्हारी बीमारी के विषय में तार मिला। इस समाचार ने मेरे हृदय को चीर दिया है। मैं बहुत दुखी हूँ, परंतु मैं इस स्थिति में नहीं हूँ कि वहाँ आकर तुम्हारी सेवा कर सकूँ। मैंने अपना पूरा जीवन सत्याग्रह के संघर्ष के लिए अर्पित कर दिया है। मेरा तुम्हारे पास आना संभव नहीं है। मैं तभी जेल से बाहर आ सकता हूँ यदि मैं जुर्माना भर दूँ —पर वह मैं कर नहीं सकता।
तुम साहस बनाए रखो और आवश्यक आहार लेती रहो, तो तुम ठीक हो जाओगी। परंतु यदि मेरे दुर्भाग्य से ऐसा हो कि तुम इस बीमारी से चल बसो, तो भी मेरे लिए हमेशा जीवित रहोगी। यदि बीमारी में तुम्हारी मृत्यु भी हो जाती है, तो वह भी सत्याग्रह के उद्देश्य के लिए एक बलिदान होगा। मुझे आशा है कि तुम भी यही सोचोगी और दुःखी नहीं होगी। मैं तुमसे यही चाहता हूँ।
तुम्हारा,
मोहनदास
गांधीजी के इस पत्र ने पूरा इतिहास ही बदल दिया।
गांधी के लिये सत्याग्रह सिर्फ़ व्यक्तिगत साहस नहीं था; वह नैतिक अनुशासन और उस पर सार्वजनिक उदाहरण भी था — यदि नायक ही अपने कृत्य की जिम्मेदारी से भागकर माफी या दया माँग ले, तो आंदोलन का तर्क ही मिट जाता है। इसलिए जेल से बचने के लिए ‘क्षमा’ माँगना सत्याग्रह के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ माना जाता है। गांधी ने बार-बार कहा था कि जेल जाना भी सत्याग्रह है,जेल के नियमों का पालन करना भी सत्याग्रह है और हिम्मत से खड़ा रहना भी सत्याग्रह है।
गांधीजी का यह पत्र और घटना गांधीजी की सैद्धान्तिक दृढ़ता के प्रसिद्ध उदाहरणों में गिनी जाती है। पत्र में गांधी का दर्द स्पष्ट है । वे व्यक्त रूप से कस्तूरबा के बीमार होने से स्तब्ध और टूटे हुए थे, पर उन्होंने लिखा कि व्यक्तिगत चाहतों के कारण वे बड़े सिद्धांत का त्याग नहीं कर सकते। यह उनके निजी बलिदान का एक प्रमाण है। जिस इंसान की रीड की हड्डी सिद्धांतों से बनी हो उसे कोई झुका नहीं सकता।
कस्तूरबा की तबियत उस समय गंभीर थी, पर वे बच गयीं क्योंकि उन्हें देश के लिए बहुत बड़ा काम करना था। गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर भारत की मुक्ति के लिए संघर्ष करना था। कस्तूरबा कहती थीं कि भगवान मुझे गांधीजी से पहले उठा ले। वे भारत छोड़ो आंदोलन के बाद गांधीजी के साथ आगा खां जेल में बंद थीं। 22 फरवरी 1944 को आगा खां पैलेस पूना में महाशिवरात्रि के दिन जब शाम को मंदिरों के घंटे घनघना रहे थे, भगवान ने कस्तूरबा को हमेशा के लिए उठा लिया।
सोचिए एक पति, अपनी प्रिय पत्नी की बीमारी के कठिन समय में भी अपने सत्य और अपनी आस्था से समझौता नहीं करता। यह केवल गांधी की कहानी नहीं, यह मानवता की सबसे बड़ी परीक्षा का क्षण था —जहाँ भावना और सिद्धांत आमने-सामने थे, और बापू ने अपने सिद्धांत को चुना।
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.
















