आचार्य नरेंद्र देव और बौद्ध धर्म दर्शन

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आचार्य नरेंद्रदेव (31अक्टूबर 1889 - 19 फरवरी 1956)

ज प्रख्यात समाजवादी विचारक, राजनेता और बौद्ध दर्शन के अधिकारी विद्वान आचार्य नरेंद्र देव (1889-1956) की जयंती है। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े राजनेताओं में वे उस धारा के प्रतिनिधि थे, जिसने आज़ादी की लड़ाई में राजनीति के साथ-साथ इतिहास, समाज, भाषा और संस्कृति के महत्त्व को बख़ूबी समझा था। राजनीति के मैदान में उतरने से पूर्व नरेंद्र देव इतिहास के विद्यार्थी रहे थे। ज्ञान और इतिहास के प्रति उनका आजीवन अनुराग बौद्ध धर्म और दर्शन के उनके विशद अध्ययन में दिखता है।

राजनीति की दुनिया में सक्रियता और ज्ञान-साधना के गहन अनुराग के बीच सतत चलने वाले इस अंतर्द्वंद्व की ओर इशारा करते हुए आचार्य जी ने अपने एक संस्मरणात्मक निबंध में लिखा था कि ‘मेरे जीवन में सदा दो प्रवृत्तियाँ रही है- एक पढ़ने-लिखने की ओर, दूसरी राजनीति की ओर। इन दोनों में संघर्ष रहता है। यदि दोनों की सुविधा एक साथ मिल जाती है तो मुझे बढ़ा परितोष रहता है और यह सुविधा मुझे विद्यापीठ में मिली। इसी कारण वह मेरे जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा है जो विद्यापीठ की सेवा में व्यतीत हुआ और आज भी उसे मैं अपना कुटुंब समझता हूँ।’

इतिहासकार वासुदेवशरण अग्रवाल ने आचार्य जी के बारे में ठीक ही लिखा था कि ‘वे त्यागी और साहसी नेता थे। भारतीय संस्कृति, इतिहास, संस्कृतभाषा, महायान, बौद्धधर्मदर्शन और पालि-साहित्य के उ‌द्भट विद्वान थे। पर जो गुण उनका निजी था, जो उनमें ही अनन्य-सामान्य था, वह उनकी ऐसी मानवता थी, जो एक क्षण के लिए भी उन्हें न भूलती थी।’

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अहमदनगर किले में नज़रबंद रहते हुए आचार्य नरेंद्र देव ने वसुबंधु कृत ‘अभिधर्मकोश’ का फ़्रेंच से भाषानुवाद किया था। उल्लेखनीय है कि फ्रेंच अनुवाद पूसें नामक फ्रांसीसी विद्वान ने किया था। इस ग्रंथ का महत्व बताते हुए आचार्य जी ने लिखा था कि ‘इसका अध्ययन किए बिना बौद्ध दर्शन के क्रमिक विकास का अच्छा ज्ञान नहीं होता। यह वैभाषिक-नय के अनुसार सर्वास्तिवाद का प्रधान ग्रंथ है।’

दुखद है कि ‘अभिधर्मकोश’ का उनके द्वारा किया गया अनुवाद जो हिंदुस्तानी एकेडमी से छपा, वह उनके जीते जी प्रकाशित नहीं हो सका। वह उनकी मृत्यु के दो वर्ष बाद 1958 में छपा।

आचार्य नरेंद्र देव की एक अन्य महत्त्वपूर्ण किताब ‘बौद्ध धर्म दर्शन’ है, जो बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से छपी। इस किताब में भगवान् बुद्ध के जीवनचरित, उनकी शिक्षा, बौद्ध धर्म के विस्तार, विभिन्न निकायों की उत्पत्ति तथा विकास, महायान की उत्पत्ति तथा उसकी साधना, स्थविरवाद का समाधिमार्ग तथा प्रश्नमार्ग, कर्मवाद, निर्वाण, अनात्मवाद, अनीश्वरवाद, क्षणभंगवाद, बौद्ध साहित्य (पालि तथा संस्कृत) के विविध दर्शन- सर्वास्तिवाद, सौत्रान्तिकवाद, विज्ञानवाद तथा माध्यमिक तथा बौद्ध-न्याय का गहराई से वर्णन है।

‘बौद्ध धर्म दर्शन’ की लेखकीय भूमिका उन्होंने 31 दिसंबर 1955 को लिखी थी। यह किताब छप पाती उससे पहले ही फरवरी 1956 में आचार्य जी का निधन हो गया। इस पुस्तक की भूमिका भारतीय संस्कृति और तंत्र साधना के अग्रणी विद्वान गोपीनाथ कविराज ने लिखी थी।

वासुदेवशरण अग्रवाल ने आचार्य नरेंद्र देव को ‘बोधिसत्व की साक्षात प्रतिमा’ बताते हुए इसी पुस्तक में लिखा था कि ‘दुःखियों का दुःख दूर करने के लिए दिन रात दहकने वाली अग्नि उनके भीतर प्रज्वलित रहती थी। निर्बल देह में बहुत सबल मन वे धारण किये हुए थे। ऐसे करुणा विगलित चित्त को ही ‘बोधिचित्त’ यह परिभाषिक नाम दिया जाता है। महाकरुणा, महामैत्री जिनके चित्त में स्वतः अंकुरित होती है और जीवन पर्यन्त पुष्पित और फलित हो कर बढ़ती रहती है, वे ही सचमुच बोधिचित्त के गुणों से धनी होते हैं।’

ऐसे ‘बोधिचित्त’ को सादर नमन!


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