
इलाहाबाद से छपने वाले साप्ताहिक पत्र ‘भविष्य’ में 16 अप्रैल 1931 को यह दुर्लभ तस्वीर छपी थी, जिसमें हिंदुस्तान के दो महान क्रांतिकारियों के परिवारों की महिलाएँ एक साथ हैं। इसमें भगत सिंह की बहन अमर कौर है और शिवराम राजगुरु की बहन गोदावरी बाई और उनकी मां पार्वती बाई है। तब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी हुए एक महीने भी नहीं बीते थे, जब यह तस्वीर भविष्य ने आवरण पृष्ठ पर छपी थी।
‘भविष्य’ में छपी यह तस्वीर कब और किसने ली थी, यह ठीक-ठीक मालूम नहीं चलता, शायद जब मुकदमा चल रहा था तब की हो। तस्वीर में भगत सिंह की बहन अमर कौर के हाथों में उनका बच्चा (जोगेंद्र) है यानी भगत सिंह का भांजा। शायद बच्चे की हंसी या किसी हरकत की वजह से उनके चेहरे पर खिलखिलाहट भरी हंसी उभर आई है। एक निश्छल हंसी।
मगर राजगुरु की मां और बहनों के चेहरे पर गहरी उदासी छाई हुई है। राजगुरु की मां, जिन्होंने बरसों पहले अपने पति को खो दिया था और अब बेटे को मृत्युदंड की सजा होने को थी। माँ की वे आंखें मानो ग़म से पथरा गई है, बरसों तक दिल में घुटते हुए दर्द की मद्धिम आग से आंखों का पानी मानो कब का सूख गया है। उन सूनी उदास आँखों को देखकर ऐसा लगता है जैसे पीड़ा का समूचा पर्वत उन आँखों में जज़्ब है। मोटे चादर में लिपटी हुई मां, जिन पर कहीं कोने से छनकर आती हुई धूप पड़ रही है। लेकिन धूप का छोटा-सा कतरा, उस उदासी के अंधेरे को मिटा पाने में असमर्थ-सा है, जो बेटे के गम में घुलती हुई, गलती हुई मां पार्वती को घेरे हुए है।
क्रांतिकारियों की शहादत को उनके परिवार की महिलाओं ने, उनकी मां, बहनों और पत्नियों ने कैसे झेला था, इसके विषय में कम ही लिखा गया है। हाल ही में क्रांतिकारी आंदोलन के अप्रतिम अध्येता सुधीर विद्यार्थी ने क्रांतिकारियों की माँओं के जीवन पर ‘विदाई दे मां’ शीर्षक से किताब लिखी है, जिसे ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए।
इतिहासकार अपर्णा वैदिक ने भी अपनी किताब ‘वेटिंग फॉर स्वराज’ में उत्तर भारत में क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल रही महिलाओं की चर्चा की है। जिसमें दुर्गा देवी, लज्जावती, प्रकाशवती, सुशीला मोहन आदि शामिल हैं। महिलाओं को लेकर क्रांतिकारी आंदोलन, विशेषकर एचएसआरए की सीमाओं को भी अपर्णा ने लक्षित किया है। जिसमें महिलाओं की मुक्ति का सवाल, क्रांतिकारी आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी का सवाल, महिलाओं के प्रति क्रांतिकारियों के रवैये जैसे मुद्दे भी शामिल है।
मुझे इतिहासकार शुक्ला सान्याल की किताब ‘रिवोल्यूशनरी पैंफलेट्स’ की याद आती है, जो बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन के बारे में है। क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़े साहित्य, पैंफलेट आदि की चर्चा के क्रम में उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन में महिलाओं की उपस्थिति और जेंडर के सवाल को लेकर क्रांतिकारी आंदोलन के रवैया के बारे में लिखा है।
बंगाल की क्रांतिकारी महिलाओं, जिसमें बीना दास, कल्पना दत्त आदि प्रमुखता से शामिल है, ने संस्मरण लिखे हैं। उत्तर भारत के संदर्भ में प्रकाशवती पाल का संस्मरण ‘लाहौर से लखनऊ तक’ एक अपवाद है, जिसमें क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय किसी महिला ने ख़ुद आंदोलन के बारे में अपने विचार दर्ज़ किए हैं।
क्रांतिकारियों के परिवार की महिलाओं और क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय महिलाओं दोनों पर ही विस्तार से काम करने की ज़रूरत है।
















