भारतीय-संस्कृति के महान-अध्येता आनन्द के. कुमारस्वामी – डॉक्टर राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी

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आनन्द के. कुमारस्वामी

Rajendra Ranjan Chaudhary

नन्द के. कुमारस्वामी भारतीय-संस्कृति के महान-अध्येता थे ।भारतीय-संस्कृति के आधारभूत सिद्धान्तों की ओर उनकी दृष्टि गयी थी और उन्होंने उस पर मौलिक-चिन्तन किया था । उन्होंने पुरातत्त्व पर काम किया ,वे अमरीका में ललितकला-संग्रहालय ,बोस्टन के क्यूरेटर थे , भारतीय-कला में अनुसंधान के लिए उनको फेलोशिप दी गई थी ।जीवन के उत्तरार्ध में वे पारंपरिक तत्वमीमांसा और प्रतीकवाद की खोज के लिए समर्पित हो गये थे । इस अवधि का उनका लेखन प्लेटो , प्लोटिनस , क्लेमेंट , फिलो , ऑगस्टीन , एक्विनास , शंकर , एकहार्ट , रूमी और अन्य रहस्यवादियों के संदर्भ से भरा हुआ है। उन्होंने ललितकला-संग्रहालय के लिए कैटलॉग लिखे ,अनुसंधान की तुलनात्मक-पद्धति का विकास किया और 1927 में भारतीय और इंडोनेशियाई कला का इतिहास प्रकाशित किया।

कुमारस्वामी ने भारतीय-प्रतीकों का विश्लेषण किया। पारंपरिक-प्रतीकवाद कुमारस्वामी के सबसे महत्वपूर्ण योगदानों में से एक है।उनकी स्थापना थी कि पारंपरिक -प्रतीकवाद को उन बिंबों के माध्यम से अच्छी तरह से समझा जा सकता है, जो लेखन की परंपरा में पहले से चले आ रहे थे।उन्होंने बतलाया कि यह संवाद की विस्तृत परंपरामें संरक्षित “विचार” थे ।उनका कहना था कि बिंबों के माध्यम से सोचने की कला की उपेक्षा करना वास्तव में तत्वमीमांसा की समर्थ भाषा को खो देने के समान है । कुमारस्वामी ने कुछ प्रतीकों को लोक और शास्त्र दोनों परंपराओं में और अनेक संस्कृतियों और युगों में परिलक्षित किया था , जैसे -प्रलय की गाथा ,चक्र -प्रतीक , ,सूर्य- प्रतीक ,अग्नि-प्रतीक , उलटा पेड़ अथवा वृक्षीय- प्रतीक , ब्रह्मांड का प्रतीक गुंबद ,पक्षी-प्रतीक ,सर्प-प्रतीक ,स्वर्गीय सीढ़ी, त्रिलोक-प्रतीक।कुमारस्वामी ने प्रतीकवाद के पुरापाषाणकालीन -स्रोतों की भी पहचान की।

कुमारस्वामी की स्थापना थी कि “ कला के इतिहास को समझने के लिए धर्मशास्त्र और विश्वबोध का ज्ञान अपरिहार्य है।““ कुमारस्वामी ने पहचान लिया था कि संस्कृति जीवन की निरंतरता से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है , इसीलिए उन्होंने शास्त्र-परंपरा और लोक -परंपरा के अनुसंधान को महत्त्व दिया। “ईसाई और ओरिएंटल कला दर्शन” में रेने गुएनन को उद्धृत करते हुए [ पृ. 139 ]उन्होंने बतलाया कि लोक ने समझ कर भी और बिना समझे भी पुरानी-परंपराओं के अवशेषों को संरक्षित किया है जो हमको सुदूर अतीत में ले जाते हैं और जिन्हें हम केवल “प्रागैतिहासिक” कह सकते हैं।इसी पुस्तक में [पृ. 140.]उन्होंने लिखा कि यदि लोकमान्यताओं को समझा नहीं गया होता, तो हम उनके सूत्रीकरण की सटीकता की व्याख्या नहीं कर सकते ।लोकगीत” के संबंध में उनका विचार था कि लोकगीत में संस्कृति का संपूर्ण और सुसंगत रूप है। मौखिक -रूप से चली आ रही किंवदंतियों, परीकथाओं और गाथागीतों में लोकजीवन की उस परंपरा का सूत्र है , जो किताबों में नहीं मिलेगा और वह ऐतिहासिक-शोध की पहुंच से परे है ।उन्होंने कहा कि परंपरागत खेल- खिलौने, शिल्प, चिकित्सा, कृषि, संस्कार, और सामाजिक -संगठन के वे रूप, जिन्हें हम “आदिवासी” कहते हैं , राष्ट्रीय और यहां तक ​​कि नस्लीय -सीमाओं से मुक्त हैं और पूरे संसार में उनका सांस्कृतिक- परिसर एक समान है।कुमारस्वामी ने अनुसंधान की उस पद्धति की आलोचना की थी जिसमें लिखित सूत्रों को ही प्रमाण माना जाता है , उनका विचार था कि इस निर्भरता के कारण अनक्षर-संस्कृतियों के अध्ययन का रास्ता ही बन्द हो जाता है ।

आनंद केंटिश मुथुकुमारस्वामी तमिल पिता [मुत्तुकुमारस्वामी]और अंग्रेज माता[ऐलिजाबेथ क्ले ] की संतान थे । आनंद कुमारस्वामी का जन्म 22 अगस्त 1877 को हुआ था जब आनंद दो वर्ष के थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई । माँ उनके इंगलैंड ले गयी और वहीं कुमारस्वामी की शिक्षा-दीक्षा हुई । 9 सितम्बर 1947 को उनकी मृत्यु हुई ।
कुमारस्वामी ने पूर्व और पश्चिम के बीच एक सेतु का निर्माण किया था ।उनका जन्म हिंदू-परंपरा में हुआ था, लेकिन उन्हें पश्चिमी-परंपरा का गहरा ज्ञान था और साथ ही उन्होंने ग्रीक- तत्वमीमांसा का भी गहरा अध्ययन किया था ।

कुमारस्वामी ने विभिन्न धर्मों के मौलिक-ग्रन्थों और विश्व के प्राचीनतम गाथा-शास्त्रों का अध्ययन किया और संसार के चिन्तकों में “सनातन” के मूलभूत- सिद्धान्तों की पहचान की । वे इसे Philosophic Perennis कहा करते थे। वासुदेव शरण अग्रवाल को लिखे एक पत्र में उन्होंने इस विश्वज्ञान को ‘सनातन धर्म’ की संज्ञा दी थी ।प्राचीन भारतीय ऋषियों की तरह मनुष्य की इस ज्ञान -निष्ठा को उन्होंने सभी ज्ञान-धाराओं में ही नहीं देखा कला और संस्कृति के उपकरणों में भी इसकी पहचान की ।सनातन के अन्तर्यामी- सूत्र को उन्होंने ईसाई- धर्म, चीनी-दर्शन, इस्लाम और सूफीदर्शन के भीतर स्पष्ट रूप से देखा ।वासुदेवशरण जी के शब्दों में उन्होंने ” वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, दर्शन, भक्ति- सम्प्रदाय, पुराण और संत-मत – इन सब के भीतर पिरोए हुए एक तार को अपनी अन्तर्दृष्टि से ग्रहण कर लिया था। मानवी विचार और धर्मों की इस तात्त्विक-एकता का जो विवेचन भाषा, तर्क और ज्ञान की अपरिमित शक्ति से कुमारस्वामी ने प्रस्तुत किया, उसने अति शीघ्र पूर्व और पश्चिम के दोनों भू-खंडों में, अनेक मनुष्यों का. ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया। उनके लेखों से ऐसा प्रतीत होता है मानों अर्वाचीन समय में एक दूसरे के निकट आते हुए मनुष्य-समाज के लिये वे विचारों को अत्यन्त सरस, सौहार्दपूर्ण और संतुलित स्थिति का निर्माण कर रहे थे ।” कुमारस्वामी ने सनातन-चिन्तन की परंपरा में आत्मा के सिद्धान्त को बहुत महत्त्व दिया था ।सन्‌१९४३ में वासुदेव शरण अग्रवाल ने जब उनसे भारत आने के लिए निवेदन किया था , तब कुमारस्वामी ने लिखा था कि -‘इस समय मैं आत्मा पर एक महाग्रन्थ लिखने में लगा हूँ। उसके पूरा होने पर मेरी इच्छा भारतवर्ष लौटने की है।’

वास्तव में भारतीयसंस्कृति के अध्ययन-अनुसंधान के लिए कुमारस्वामी प्रकाशस्तंभ की भाँति हैं ,सचाई तो यह है कि कुमारस्वामी के संदर्भ के बिना भारतीय-संस्कृति का कोई भी अध्ययन ऐसा लगता है कि जैसे कुछ छूट गया है ।


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