
सन 2025 का संयोग अजीब है। इस साल सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी का पितृसंगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है। जबकि सौ साल पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई थी। संयोग से सौ साल पहले यानी 1925 में भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास को नया मोड़ देने वाली प्रसिद्ध घटना काकोरी ट्रेन डकैती भी हुई थी और क्रांतिकारियों ने जनता से जबरदस्ती वसूले जा रहे राजस्व के खजाने से 8000 रुपए लूट लिए थे। इस धन से उन्होंने हथियार खरीदे और अपने संगठन को मजबूत किया। दक्षिणपंथ की दुंदुभी बजने के कारण बाकी ऐतिहासिक वर्षों को लगभग भुला सा दिया गया है। जबकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शताब्दी वर्ष के समारोहों में शासक वर्ग पूरे धन वैभव के साथ शामिल है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जिस प्रकार भारतीय इतिहास की व्यापकता और समन्वय की भावना को संकुचित करने और सब कुछ अपने नाम दर्ज करने में लगा है उसमें बहुत आवश्यक है की देश की युवा पीढ़ी जिसे जेन-जी कहते हैं उसके सामने इतिहास की विभिन्न धाराओं और राष्ट्रीय आंदोलन पर पड़ने वाले उसके प्रभावों को विस्तार से रखा जाए ताकि वह अपने इतिहास को घृणा की दृष्टि से देखने के बजाय आत्मविश्वास के साथ देखे और सत्य और असत्य का अंतर समझ सके।
विडंबना देखिए कि राज्य सरकार की ओर से इस एलान के बाद कि काकोरी कांड के शताब्दी वर्ष को पूरे जोरशोर से मनाया जाएगा शासकों ने वह संकल्प पूरा नहीं किया। दूसरी ओर फैजाबाद के सूर्यकांत पांडेय इसे अपने सीमित संसाधनों के बावजूद पूरे उत्साह से मना रहे हैं। वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हैं और पिछले कई वर्षों से शहीद अशफाक उल्ला का नियमित स्मरण करते हैं। वे फैजाबाद जेल में उस जगह पर कार्यक्रम करते हैं जहां अशफाक उल्ला को फांसी दी गई थी। उन्होंने 22 अक्तूबर को काकोरी कांड के प्रमुख शहीद अशफाक उल्ला की जयंती को मनाया। दो नवंबर को किस्सागोई कराई और 19 दिसंबर यानी उनके शहादत दिवस पर माटी रतन पुरस्कार आयोजन से लेकर जेल में दस्तावेजों की प्रदर्शनी सहित कार्यक्रमों की योजना बना रखी है। वास्तव में मौजूदा सरकारों को उस विरासत से कोई कोई लेना देना नहीं है जो साझी हैं और जिसमें हिंदू और मुसलमान एक साथ शामिल हुए और उन्होंने एकजुट होकर अपना बलिदान दिया। काकोरी हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की ओर से की गई ऐसी क्रांतिकारी कार्रवाई थी जिसने अंग्रेज सरकार को भीतर तक हिला दिया था। इस योजना में नौ क्रांतिकारी शामिल थे और उनमें पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी, अशफाकउल्ला और रोशन सिंह नामक चार क्रांतिकारियों को मौत की सजा दी गई थी। बाकी लोगों को कालापानी और दूसरी सजाएं हुई थीं। इसी कार्रवाई में मन्मथनाथ गुप्त के हाथ से निर्दोष यात्री की हत्या भी हो गई थी जिस पर क्रांतिकारियों को बड़ा अफसोस था। यह डकैती 9 अगस्त 1925 की रात शाहजहांपुर से लखनऊ आ रही 8 डाउन ट्रेन में लखनऊ से 8 किलोमीटर पहले काकोरी गांव में हुई थी। इस कार्रवाई के प्रमुख कमांडर चंद्रशेखर आजाद पकड़े नहीं जा सके और बाद में वे भूमिगत रहकर अपनी क्रांतिकारी गतिविधियां छह साल तक चलाते रहे।
दरअसल मौजूदा सरकार की कोशिश भारत की उस विरासत को स्मरण करने की नहीं होती जिसमें कहीं से साझी विरासत प्रदर्शित होती है। बल्कि वह किसी भी घटना को इस तरह से मनाती और स्मरण करती है जिससे हिंदू और मुस्लिम विभाजन जितना है उससे अधिक तीखा हो। रोचक तथ्य यह है कि सरकार ने कुछ साल पहले विभाजन विभीषिका दिवस मनाने का निर्णय किया ताकि इन दोनों समुदायों के बीच की खाई कायम ही न रहे बल्कि और बढ़ाई जा सके। उसी कड़ी में वह अब 7 नवंबर को वंदेमातरम दिवस के रूप में मना रही है क्योंकि इसी साल वंदे मातरम गायन के 150 साल हो रहे हैं। इस दौरान वह वंदे मातरम को पूरा गाना चाहती है ताकि एक ओर पश्चिम बंगाल के अगले साल के चुनावों को लक्ष्य करके हिंदू मुस्लिम विवाद पैदा करके और अभी चल रहे बिहार के चुनाव में भी लाभ लिया जा सके। यह गीत 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में पूरा गाया गया था और इसको रवींद्रनाथ टैगोर ने संगीतबद्ध किया था। भाजपा और उसकी सरकार का मससद यह भी है कि कांग्रेस को बदनाम किया जाए और उस विवाद को उभारा जाए जो वंदे मातरम गीत के कुछ अंशों को लेकर उत्पन्न हुआ था।
ध्यान रखने की बात है कि इस गीत का एक इतिहास जो कांग्रेस पार्टी से जुड़ा हुआ है उसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ विवादास्पद तरीके से हथियाने की कोशिश कर रहा है जबकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपनी शाखा में वंदे मातरम गाने के बजाय ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि’ गाता रहा है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने एक संगठन के रूप में कभी वंदे मातरम गाते हुए आजादी की लड़ाई में कूदने और फांसी के फंदे पर चढ़ने का साहस नहीं दिखाया। बंकिमचंद्र चटर्जी का उपन्यास ‘आनंदमठ’ 1763 से 1800 तक चले संन्यासी विद्रोह का इतिहास गलत तरीके से प्रस्तुत करता है। वह इसे हिंदू और मुस्लिम संघर्ष के तौर पर प्रस्तुत करता है जबकि वास्तविक संघर्ष में हिंदू संन्यासियों के साथ फकीरों और मुसलमानों का भी नेतृत्व था और वह ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध था। अगर संन्यासी विद्रोह के नेतृत्व में एक ओर द्विर्जनारायण, देवु चौधरानी और भवानी पाठक जैसे लोग थे तो दूसरी ओर मंजर शाह, मूसा शाह और चिराग अली जैसे मुस्लिम समुदाय के लोग भी उनके थे।
सबसे बड़ी बात है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जो सावरकर के खंडित नायकत्व पर चर्चा करते हुए नहीं अघाता वह सावरकर के उस काम को भूल जाता है जो उन्होंने 1907 में 1857 के विद्रोह के पचास साल होने पर किया था। स्वयं सावरकर जो बाद के जीवन में अंग्रेजों से आजादी का संघर्ष लड़ने के बजाय उनसे इशारे पर हिंदुत्व का विचार प्रस्तुत करके हिंदू राष्ट्र का स्वप्न देखने लगे उन्होंने भी 1857 के संघर्ष में हिंदू मुस्लिम एकता से प्रेरित होकर उसे आजादी का प्रथम संग्राम कहा था। गौर करने लायक बात है कि सावरकर की उस पुस्तक ने भगत सिंह जैसे लोगों को भी प्रेरणा दी और क्रांतिकारी आंदोलन के तमाम लोग उसे पढ़ पढ़कर संघर्ष में उतरे।
वास्तव में भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिंदू मुस्लिम एकता की जो विरासत 1857 ने स्थापित की उसे खंडित करने की योजना अंग्रेज सरकार सदैव बनाती रही और आखिरकार वह 90 साल बाद सफल हो गई। लेकिन इस बीच क्रांतिकारियों से लेकर सत्याग्रहियों तक के मन मानस से वह साझी विरासत कभी ओझल नहीं हुई। स्वयं भगत सिंह ने उसे ‘10 मई का वह शुभ दिन’ कह कर संबोधित किया था। दरअसल भारत के इतिहास में क्रांतिकारियों और सत्याग्रहियों में बुनियादी अंतर यही रहा है कि जहां क्रांतिकारी सत्तावन की तरह से हथियारबंद लड़ाई से आजाद होना चाहते थे वहीं गांधी के नेतृत्व में सत्याग्रही यह सोचते थे कि कहीं सत्तावन की तरह हम फिर हार गए तो क्या होगा। आजादी दोनों चाहते थे और हिंदू मुस्लिम एकता दोनों चाहते थे। भारत के क्रांतिकारी आंदोलन की बड़ी विरासत हिंदू मुस्लिम एकता है।
काकोरी कार्रवाई के शताब्दी वर्ष में हमें रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्लाह की साझी शहादत को याद करना चाहिए। हमें याद करना चाहिए कि सत्तावन में मेरठ में जिन 85 सैनिकों को दस साल की सजा देकर हथकड़ियां पहना कर घुमाया गया था उनमें लगभग आधे मुसलमान थे। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जो आजाद हिंद फौज बनाई उसमें भी एक तिहाई से अधिक संख्या में मुसलमान थे। बल्कि सुभाष बाबू की आजाद हिंद फौज के बारे में टिप्पणी करते हुए गांधी जी ने कहा था कि दरअसल नेताजी भी वही भारत बनाना चाहते हैं जो मैं बनाना चाहता हूं। क्योंकि सुभाष बाबू की सेना में बहादुर शाह जफर, लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे और गांधी जवाहर के नाम से ब्रिगेड थी। शाहनवाज उनके कमांडर थे और उसमें सभी धर्मों और जातियों के लोग थे। काकोरी कार्रवाई के शताब्दी वर्ष में यह इस देश के लोकतांत्रिक मूल्यों और सद्भाव के विचार में यकीन करने वालों का कर्तव्य है कि वे इस घटना के बारे में लोगों को जागरूक करें और जागरूक करें क्रांतिकारियों के उन सपनों को उन्होंने भारत माता की बलिबेदी पर बलिदान होने से पहले देखे थे। इसी सपने को देखते हुए राम प्रसाद बिस्मिल ने कहा थाः—
मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे,
बाकी न मैं रहूं न मेरी आरजू रहे।
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे
तेरा हो जिक्र या तेरी जुस्तजू रहे।
अशफाक उल्ला ने अपने संघर्ष में कृष्ण के गीता के उपदेश का स्मरण करते हुए कहा थाः—
मौत और जिंदगी है दुनिया का सब तमाशा,
फरमान कृष्ण का था, अर्जुन को बीच रन में।
अफसोस, क्यों नहीं है वह रूह इस वतन में,
जिसने हिला दिया था दुनिया को एक पल में।
उसी अशफाकउल्ला ने फांसी का फंदा चूमने से पहले कहा था किः—
तंग आकर हम भी उनके जुल्म के बेदाद से,
चल दिए सूए-अदम जिन्दाने फैजाबाद से।
















