अधूरेपन की गरिमा : मुक्तिबोध का अंतःसत्य – परिचय दास

0
मुक्तिबोध

Parichay Das
मुक्तिबोध अपने भीतर के शत्रु से भी प्रेम करते थे। यह एक विरल, लगभग अलौकिक गुण था। वे उन शक्तियों से भी संवाद करते थे जो उन्हें तोड़ रही थीं। वे अपने भीतर छिपे भय, लालच, असुरक्षा और आत्म-संशय को दबाते नहीं थे; उन्हें पहचानते थे, उनसे बहस करते थे और कभी-कभी उन्हें कविताओं में बोलने देते थे। ऐसा करने वाला कवि केवल बुद्धिमान नहीं होता, वह नैतिक रूप से साहसी होता है।

उनकी कविता में सबसे बड़ा नायक “स्वयं से जूझता मनुष्य” है—एक ऐसा मनुष्य जो अपने ही भीतर छिपे अंधकार को देखकर भी उससे विमुख नहीं होता। वे भीतर की गंदगी को भी ‘अपना’ मानते हैं। यह स्वीकृति कोई आत्मविनाश नहीं, बल्कि आत्म-मुक्ति का आरंभ है। यही उनका सात्विक विरोधाभास है—वे भीतर की असत्यताओं से भी ईमानदारी रखते हैं।

मुक्तिबोध ने अपने जीवन के सबसे अंधकारपूर्ण दौर में अपनी सर्वाधिक प्रकाशमान रचनाएँ लिखीं। जिस समय उनके पास न स्थिर आय थी, न स्वास्थ्य, न सामाजिक सम्मान—उसी समय उन्होंने “अंधेरे में” जैसी कविता रची। उनके लिए जीवन का अर्थ सुविधा नहीं, विवेक था।

वे पहले ऐसे कवि थे जिन्होंने बौद्धिकता को पवित्रता का पर्याय बनाया—पर उस बौद्धिकता को उन्होंने किसी विश्वविद्यालय या संस्थान से नहीं, अपनी आत्मा की तपश्चर्या से अर्जित किया। मुक्तिबोध की मेज़ पर रखा कलम कोई औज़ार नहीं था; वह एक आत्मिक औषध थी—जिससे वे अपनी आत्मा के घाव धोते थे।

वे ‘सिद्ध’ नहीं होना चाहते थे। वे ‘अधूरा’ रह जाने की गरिमा में विश्वास रखते थे। उनके लिए अधूरापन ही सच्ची रचनात्मकता थी—क्योंकि पूर्णता ठहराव लाती है, और अधूरापन खोज की आग बनाए रखता है। इसीलिए उनकी हर रचना में एक असमाप्त आह है, एक अधूरी प्रतीक्षा।

वे पहले कवि थे जिन्होंने यह दिखाया कि “सत्य” कोई बाहरी आदर्श नहीं बल्कि भीतर का द्वंद्व है। उन्होंने कविता को उपदेश से मुक्त करके आत्मचिंतन की यात्रा बना दिया। उनकी यही ईमानदार बेचैनी—अपने ही विवेक की जाँच करने की ललक—उन्हें हिंदी कविता का सबसे सात्विक और साहसी विद्रोही बनाती है।

उनकी अद्वितीयता इस बात में नहीं कि उन्होंने समाज की आलोचना की बल्कि इस बात में है कि उन्होंने स्वयं को भी उसी कठघरे में खड़ा किया जहाँ वे दूसरों को खड़ा करते थे। यह बौद्धिक नहीं, आत्मिक न्याय है—जो बहुत कम कवियों में होता है।

मुक्तिबोध का नाम केवल एक कवि का नहीं, एक आत्मिक प्रयोगशाला का नाम है—जहाँ मनुष्य अपने ही अंतःकरण की परीक्षा देता है। यही उनकी सबसे अनोखी, सबसे मानवीय और सबसे सात्विक बात है।

मुक्तिबोध की कविता कोई स्थूल चमक नहीं है। वह साधारण जीवन के भीतर से उठती हुई, एक मौन दीप्ति की तरह फैलती है। वह व्यक्ति के बाहरी आडंबरों या परिष्कृत आचरण में नहीं, बल्कि उस क्षण में है जब कोई मनुष्य अपनी ही असफलता के सामने नतमस्तक होकर भी सत्य के साथ खड़ा रह जाता है। मुक्तिबोध अपने हर शब्द में इस सात्विक साहस का परिचय देते हैं। उनके लिए विचार कोई आभूषण नहीं था, बल्कि आत्मा का संघर्ष था। वे सोचते हुए जीते हैं और जीते हुए सोचते हैं—और यही विचारशील जीवन उनके भीतर सात्विकता की जड़ें गहराई तक रोप देता है।

उनकी कविता में ‘संवेदना’ का केन्द्रीय स्थान है। वे संसार को एक शोषित मनुष्य की दृष्टि से देखते हैं, लेकिन उस शोषित में भी एक गहरी मानवीय गरिमा खोज लेते हैं। उनकी कविताओं में मजदूर, रिक्शावाला, छोटा क्लर्क—सभी अपने-अपने संघर्ष में किसी गुप्त नैतिक ऊँचाई को जी रहे होते हैं। यह नैतिक ऊँचाई कोई उपदेश नहीं देती; यह केवल दिखाती है कि मनुष्य में अभी भी रोशनी बाकी है। मुक्तिबोध इसी विश्वास के कवि हैं—विश्वास की उस सात्विक रेखा के, जो टूटते हुए भी निराशा में नहीं बदलती।

उनका आत्मविरोध सात्विक है। जब वे स्वयं को कटघरे में खड़ा करते हैं तो वह आत्म-उपहास नहीं, आत्म-शोधन है। वे समाज के पाखंडों की आलोचना करते हैं, लेकिन स्वयं को उन पाखंडों से अलग नहीं मानते। इस आत्म-समावेश में ही उनकी सबसे बड़ी पवित्रता है। वे अपने ही वर्ग, अपने ही समय, अपने ही भीतर की गंदगी को देखने का साहस रखते हैं। यही साहस सात्विकता की सबसे कठिन परीक्षा है—जहाँ व्यक्ति अपने ही भीतर का अपराध देखता है, और फिर भी मनुष्य बने रहने की जिद रखता है।

मुक्तिबोध की कविता कर्म से जुड़ी है, केवल विचार से नहीं। वे जीवन के किसी भी क्षेत्र में निष्क्रियता को पाप मानते हैं। उनके लिए सोचना भी एक नैतिक कर्म है। वे बार-बार चेताते हैं कि बौद्धिक होना पर्याप्त नहीं है; बौद्धिक को ईमानदार भी होना चाहिए। यही ईमानदारी सात्विकता की आत्मा है। वे कहते हैं—“कवि को अपने युग की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।” यह जिम्मेदारी किसी दबाव से नहीं, बल्कि अपने भीतर की आवाज़ से उपजती है—वह आवाज़ जो मुक्तिबोध के भीतर हमेशा सक्रिय रही।

उनकी कविता निराशा में भी आशा को ढूँढ़ती है। वे जीवन को कभी एकतरफा नहीं देखते। ‘अंधेरे में’ भी उनके भीतर रोशनी की ललक है। वह ललक ही उनका सात्विक भाव है। वे मानते हैं कि मनुष्य का उद्धार किसी ईश्वर या व्यवस्था से नहीं होगा, बल्कि उसके भीतर के नैतिक विवेक से होगा। यह विवेक उनका निजी धर्म है—न पूजा, न संप्रदाय, केवल एक तीक्ष्ण नैतिक चेतना।

मुक्तिबोध का व्यक्तित्व भी उतना ही सात्विक था जितना उनका लेखन। उन्होंने सुविधा का जीवन नहीं चुना। छोटी-सी नौकरी, सीमित साधन, बीमारी, सामाजिक उपेक्षा—इन सबके बावजूद वे अपनी वैचारिक गरिमा से कभी समझौता नहीं करते। वे जानते थे कि सत्य बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है, और उन्होंने वह कीमत चुकाई। उनकी सात्विकता इस त्याग में नहीं, बल्कि इस अडिगता में है। वे झुके नहीं। वे थके, टूटे, पर अपनी मानवीय ईमानदारी को कलंकित नहीं होने दिया। यही सात्विकता का चरम रूप है—जहाँ मनुष्य बिना किसी दिखावे के, अपने विवेक के प्रति निष्ठावान बना रहता है।

उनकी कविता में एक गहरी काव्यात्मक गरिमा है। उनके शब्द केवल विचार नहीं हैं, वे जीवन की भाप हैं—उस गर्म सांस की तरह जो भीतर की आग से उठती है। उनकी कविताएँ जब मनुष्य के संकट पर बोलती हैं, तो वह केवल सामाजिक नहीं, आत्मिक संकट होता है। वे कहते हैं—“मनुष्य की मुक्ति, मनुष्य के भीतर से ही होगी।” यही वाक्य उनके समूचे साहित्य की नैतिक आत्मा है। इस ‘मुक्ति’ का अर्थ सांसारिकता नहीं बल्कि आंतरिकता है।

मुक्तिबोध की कविता एक साधना है—जीवन के प्रति गहरी निष्ठा की साधना। यह न तो सरल है, न शीघ्र फलदायी। यह उस अंतःप्रकाश की साधना है जो हर बार गिरकर उठने की प्रेरणा देता है। वे उस कवि~ परंपरा के उत्तराधिकारी हैं जहाँ सात्विकता कर्म के साथ जुड़ती है—जहाँ शब्द केवल शिल्प नहीं, एक नैतिक प्रतिज्ञा बन जाते हैं।

जब हम उनके शब्दों से बाहर निकलते हैं तो महसूस होता है कि मुक्तिबोध की सात्विकता किसी व्यक्ति विशेष की नहीं, एक समूची संवेदनशील परंपरा की है—जो मनुष्य में सत्य, विवेक और करुणा को बचाए रखती है। यह सात्विकता आज भी हमारे समय के अंधकार में एक दीया बनकर जलती है—मंद, पर अविरल। मुक्तिबोध की स्मृति में वही दीया है जो विचार से नहीं, आत्मा से जलता है—और जो हमें यह याद दिलाता है कि अंधकार कभी भी अंतिम नहीं होता।

मुक्तिबोध की कविता किसी उपदेश या नैतिक आग्रह की सात्विकता नहीं है। वह उनकी आत्मा की अंतःप्रज्ञा में निहित वह उजास है जो अंधेरे को देखकर भी उसके भीतर अर्थ खोजने का साहस रखती है। उनकी कविता और गद्य, दोनों में यह सात्विकता एक आंतरिक तड़प की तरह उपस्थित है—कुछ ऐसा जो किसी बाहरी धर्म या नैतिकता से नहीं बल्कि भीतर के विवेक, भीतर के द्वंद्व से जन्म लेता है। वह कविता, जो आत्मसंघर्ष में तपकर आई है , जो अपनी ही आग में झुलसकर निर्मल हुई है।

मुक्तिबोध का ‘मैं’ कभी स्थिर नहीं है। वह हमेशा अपने भीतर से अपने विरोध में उठता है, स्वयं को प्रश्न करता है, और अपनी आत्मा को खंगालता है। यही प्रश्नाकुलता उनकी सात्विकता का मूल है। वे कभी संतुष्ट नहीं होते—न शब्द से, न विचार से, न जीवन से। जैसे जीवन एक निरंतर जाँच है, एक नैतिक प्रयोगशाला। वह जो भीतर से टूटता है, वह बाहर से सात्विक दिखाई देता है। मुक्तिबोध के यहां यह टूटन एक रचनात्मक नैतिकता का रूप लेती है—जहाँ व्यक्ति अपनी ही अपूर्णताओं से लड़ते हुए समाज की विडंबनाओं को उजागर करता है।

उनकी कविता में एक तपस्वी का संयम है पर यह संयम मौन नहीं है। यह संयम एक ऐसे मनुष्य का है जो भीतर से जलता हुआ भी अपने शब्दों में करुणा बनाए रखता है। वह करुणा किसी दीन भाव से नहीं बल्कि एक गहरी आत्म-समझ से उपजती है। “अंधेरे में” लिखने वाला कवि जब समाज, राजनीति और बुद्धिजीवियों पर प्रहार करता है तब भी उसके भीतर से घृणा नहीं फूटती—फूटती है पीड़ा। यही पीड़ा उसकी सात्विकता का सबसे उजला पक्ष है।

मुक्तिबोध के लिए नैतिकता किसी बाहरी अनुशासन की चीज नहीं थी। वह चेतना का ताप थी। वे मनुष्य को उसके भीतर के अंधेरे से टकराने की प्रेरणा देते हैं। सात्विकता उनके यहां कर्म की शुद्धता नहीं, बल्कि चेतना की सजगता है। इसीलिए उनके पात्र और कविताएँ बार-बार आत्मसंवाद में लौटती हैं—“कौन था वह?”—यह प्रश्न किसी और से नहीं, अपने ही अंतरतम से है। इस प्रश्न में उनके आत्मबोध की सच्ची पवित्रता है।

अपनी कविता में वे अन्याय और शोषण के विरुद्ध खड़े होकर भी क्रोध के नहीं, विवेक के कवि हैं। वे जानते हैं कि समाज की बुराइयाँ केवल बाहर नहीं हैं, वे स्वयं के भीतर भी हैं। इसीलिए उनका विरोध कभी एकांगी नहीं होता। वे पूंजीपति का विरोध करते हैं पर साथ ही उस छोटे मध्यमवर्गीय बौद्धिक का भी, जो भीतर से समझौता कर चुका है। इस ईमानदारी में सात्विकता है—क्योंकि वह किसी को बचाती नहीं, खुद को भी नहीं।

उनकी कविता में एक गंध है—धूल और पसीने की गंध, जो जीवन से आती है। वह बौद्धिक नहीं, मानवीय सात्विकता है। उनकी भाषा में तर्क नहीं, ताप है। जब वे कहते हैं कि “ओ मेरी आदर्शवादी नितांत व्यक्तिगत कविताएं,” तो उनके स्वर में कोई दंभ नहीं, बल्कि एक करुण स्वीकार है कि आदर्श और यथार्थ के बीच पुल बनाना कठिन है पर असंभव नहीं। यही असंभव को संभव करने की कोशिश उनका सात्विक संकल्प है।

मुक्तिबोध का कवि स्वयं को बचाने के लिए नहीं लिखता बल्कि स्वयं को उजागर करने के लिए लिखता है। इस उजागर होने में ही सात्विकता का सबसे बड़ा जोखिम है। वह अपनी कमज़ोरियों, अपनी हताशा, अपने डर, अपने विश्वासघात तक को भाषा में उतार देते हैं। यह जो निडर आत्मस्वीकार है, वह एक गहरी अंतःशुचिता का प्रमाण है। जो मनुष्य अपनी पराजयों से भी नहीं डरता, वह सात्विक होता है।

उनकी कविता में उपदेशक नहीं बैठा। वहाँ एक बेचैन, थका हुआ, संघर्षरत मनुष्य बैठा है, जो लगातार अपने भीतर से पूछ रहा है—“मैं क्यों जिया?” इस प्रश्न में आत्मग्लानि नहीं, आत्मबोध है। यही आत्मबोध उन्हें अपने समय के अन्य कवियों से अलग बनाता है। वे नैतिकता को नैतिक उपदेश में नहीं, आत्मसंघर्ष में खोजते हैं।

जब हम मुक्तिबोध को पढ़ते हैं तो हम किसी पवित्र ग्रंथ की तरह उन्हें नहीं पढ़ते; हम उन्हें एक मनुष्य के दस्तावेज़ की तरह पढ़ते हैं, जिसने अपने भीतर के अंधकार से यह रोशनी हासिल की। उनके शब्दों में सात्विकता की लौ निरंतर जलती रहती है—धीमी, पर अखंड। यह लौ कोई दीपक नहीं, एक तपता हुआ मन है जो खुद को जलाकर दूसरों के भीतर सोच की रोशनी भर देना चाहता है।

मुक्तिबोध अपने अंधकार को स्वीकार करते हैं और स्वीकार करके ही उसे पार करते हैं। वे जानते हैं कि सात्विक होना किसी पूजा या अनुष्ठान से नहीं आता, वह भीतर की सच्चाई से आता है। उनका संपूर्ण लेखन इसी सच्चाई का साक्ष्य है—एक मनुष्य जो छल नहीं करता जो झूठ नहीं बोलता, जो अपनी विफलता में भी अपने विवेक की मशाल जलाए रखता है। यही उनका सात्विक तेज है—अंतःकरण की उस अग्नि का, जो कभी बुझती नहीं।

मुक्तिबोध की कविता में कोई स्थूल चमक नहीं है। वह साधारण जीवन के भीतर से उठती हुई, एक मौन दीप्ति की तरह फैलती है। वह व्यक्ति के बाहरी आडंबरों या परिष्कृत आचरण में नहीं बल्कि उस क्षण में है जब कोई मनुष्य अपनी ही असफलता के सामने नतमस्तक होकर भी सत्य के साथ खड़ा रह जाता है। मुक्तिबोध अपने हर शब्द में इस सात्विक साहस का परिचय देते हैं। उनके लिए विचार कोई आभूषण नहीं था, बल्कि आत्मा का संघर्ष था। वे सोचते हुए जीते हैं और जीते हुए सोचते हैं—और यही विचारशील जीवन उनके भीतर सात्विकता की जड़ें गहराई तक रोप देता है।

उनकी कविता में ‘संवेदना’ का केन्द्रीय स्थान है। वे संसार को एक शोषित मनुष्य की दृष्टि से देखते हैं लेकिन उस शोषित में भी एक गहरी मानवीय गरिमा खोज लेते हैं। उनकी कविताओं में मजदूर, रिक्शावाला, छोटा क्लर्क—सभी अपने-अपने संघर्ष में किसी गुप्त नैतिक ऊँचाई को जी रहे होते हैं। यह नैतिक ऊँचाई कोई उपदेश नहीं देती; यह केवल दिखाती है कि मनुष्य में अभी भी रोशनी बाकी है। मुक्तिबोध इसी विश्वास के कवि हैं—विश्वास की उस सात्विक रेखा के, जो टूटते हुए भी निराशा में नहीं बदलती।

उनका आत्मविरोध सात्विक है। जब वे स्वयं को कटघरे में खड़ा करते हैं, तो वह आत्म-उपहास नहीं, आत्म-शोधन है। वे समाज के पाखंडों की आलोचना करते हैं, लेकिन स्वयं को उन पाखंडों से अलग नहीं मानते। इस आत्म-समावेश में ही उनकी सबसे बड़ी पवित्रता है। वे अपने ही वर्ग, अपने ही समय, अपने ही भीतर की गंदगी को देखने का साहस रखते हैं। यही साहस सात्विकता की सबसे कठिन परीक्षा है—जहाँ व्यक्ति अपने ही भीतर का अपराध देखता है, और फिर भी मनुष्य बने रहने की जिद रखता है।

मुक्तिबोध की कविता कर्म से जुड़ी है, केवल विचार से नहीं। वे जीवन के किसी भी क्षेत्र में निष्क्रियता को पाप मानते हैं। उनके लिए सोचना भी एक नैतिक कर्म है। वे बार-बार चेताते हैं कि बौद्धिक होना पर्याप्त नहीं है; बौद्धिक को ईमानदार भी होना चाहिए। यही ईमानदारी सात्विकता की आत्मा है। वे कहते हैं—“कवि को अपने युग की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।” यह जिम्मेदारी किसी दबाव से नहीं, बल्कि अपने भीतर की आवाज़ से उपजती है—वह आवाज़ जो मुक्तिबोध के भीतर हमेशा सक्रिय रही।

उनकी कविता निराशा में भी आशा को ढूँढ़ती है। वे जीवन को कभी एकतरफा नहीं देखते। ‘अंधेरे में’ भी उनके भीतर रोशनी की ललक है। वह ललक ही उनका सात्विक भाव है। वे मानते हैं कि मनुष्य का उद्धार किसी ईश्वर या व्यवस्था से नहीं होगा बल्कि उसके भीतर के नैतिक विवेक से होगा। यह विवेक उनका निजी धर्म है—न पूजा, न संप्रदाय, केवल एक तीक्ष्ण नैतिक चेतना।

मुक्तिबोध का व्यक्तित्व भी उतना ही सात्विक था जितना उनका लेखन। उन्होंने सुविधा का जीवन नहीं चुना। छोटी-सी नौकरी, सीमित साधन, बीमारी, सामाजिक उपेक्षा—इन सबके बावजूद वे अपनी वैचारिक गरिमा से कभी समझौता नहीं करते। वे जानते थे कि सत्य बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है, और उन्होंने वह कीमत चुकाई। उनकी विशेषता इस त्याग में नहीं बल्कि इस अडिगता में है। वे झुके नहीं। वे थके, टूटे पर अपनी मानवीय ईमानदारी को कलंकित नहीं होने दिया। यही सात्विकता का चरम रूप है—जहाँ मनुष्य बिना किसी दिखावे के, अपने विवेक के प्रति निष्ठावान बना रहता है।

उन में एक गहरी काव्यात्मक गरिमा भी है। उनके शब्द केवल विचार नहीं हैं, वे जीवन की भाप हैं—उस गर्म सांस की तरह जो भीतर की आग से उठती है। उनकी कविताएँ जब मनुष्य के संकट पर बोलती हैं, तो वह केवल सामाजिक नहीं, आत्मिक संकट होता है। वे कहते हैं—“मनुष्य की मुक्ति, मनुष्य के भीतर से ही होगी।” यही वाक्य उनके समूचे साहित्य की नैतिक आत्मा है। इस ‘मुक्ति’ का अर्थ सांसारिक नहीं, बल्कि आंतरिक सात्विकता से है।

मुक्तिबोध की कविता एक साधना है—जीवन के प्रति गहरी निष्ठा की साधना। यह न तो सरल है, न शीघ्र फलदायी। यह उस अंतःप्रकाश की साधना है, जो हर बार गिरकर उठने की प्रेरणा देता है। वे उस कवि परंपरा के उत्तराधिकारी हैं जहाँ सात्विकता कर्म के साथ जुड़ती है—जहाँ शब्द केवल शिल्प नहीं, एक नैतिक प्रतिज्ञा बन जाते हैं।

जब हम उनके शब्दों से बाहर निकलते हैं तो महसूस होता है कि मुक्तिबोध की काव्य~ सात्विकता व्यक्ति विशेष की नहीं, एक समूची संवेदनशील परंपरा की है—जो मनुष्य में सत्य, विवेक और करुणा को बचाए रखती है। यह सात्विकता आज भी हमारे समय के अंधकार में एक दीया बनकर जलती है—मंद पर अविरल। मुक्तिबोध की स्मृति में वही दीया है जो विचार से नहीं, आत्मा से जलता है—और जो हमें यह याद दिलाता है कि अंधकार कभी भी अंतिम नहीं होता।


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment