— परिचय दास —
बिरसा मुंडा की स्मृति में कोई भी दिन साधारण नहीं रह सकता। जंगलों की नमी, पत्तों की सरसराहट, पहाड़ों की ढलानों पर बिखरी हुई सुबह की रोशनी—सब मिलकर जैसे एक अदृश्य ढोलक की थाप में बदल जाती हैं, और उस थाप में एक आवाज़ उठती है, जो आज डेढ़ सौ वर्षों बाद भी उतनी ही ताज़ा, उतनी ही बेचैन, उतनी ही ज्वलंत है। यह वही आवाज़ है जिसने इतिहास की चुप्पियों को तोड़ा था, जिसने दबी हुई सांसों को दिशा दी थी, जिसने जंगली घास पर टिके हुए छोटे-से गाँवों को एक नए भरोसे से भर दिया था—वह आवाज़ बिरसा की थी।
जब हम उनकी पन्द्रहवीं दशकगांठ पर ठहरकर सोचते हैं, तो लगता है जैसे कोई एक बालक तलहटी की मिट्टी में पैरों का स्पर्श करते-करते इतना ऊँचा उठ गया कि उसके पीछे पूरी जाति की परछाइयाँ लंबी होती चली गईं। उस पहाड़ की पगडंडियाँ, जिन्हें रोज़ाना चरवाहों के पैरों ने रौंदा, वहीं एक दिन एक किशोर खड़ा हुआ और उसने मौन को एक शस्त्र की तरह पहना। वह शस्त्र लोहे का नहीं था, किसी भाषा के हिंसक नारे का भी नहीं था—वह शस्त्र अपनी ही भूमि की सघन पीड़ा से निर्मित था। बिरसा ने उसे पहना और चलते चले गए, जैसे कोई साधक अपने भीतर की आग से रास्ता बनाता हो।
उनकी आँखों में एक गहरा अंधेरा था, पर उसी अंधेरे में प्रकाश की एक अडिग लकीर भी थी। वह लकीर रास्ता दिखाती थी—उनको भी, और उन सबको भी जो जंगलों में बसते थे, नदी-नालों की आवाज़ में अपने भविष्य की धुन सुनते थे। बिरसा ने पहली बार उस सदी को बताया कि आदिवासी होना कोई अपराध नहीं; बल्कि एक ऐसी वंश-परंपरा होना है, जिसमें प्रकृति की भाषा मनुष्य की भाषा से पहले जन्म लेती है। उन्होंने धरती को माँ नहीं कहा, बल्कि माँ की तरह जिया—यानी उसके दुखों को शरीर पर ओढ़ा, उसके शोषण को अपना अपमान माना, और उसकी रक्षा को अपना धर्म, अपनी यात्रा, अपनी तपस्या बना लिया।
लेकिन बिरसा सिर्फ एक योद्धा नहीं थे; वे अपने समय के सबसे गहरे स्वप्नद्रष्टा थे। उनके स्वप्न में तलवारों की खनक नहीं थी, उसमें वह शांत उजाला था जो किसी पहाड़ी झरने के किनारे बैठे पुरखे की आँखों में चमकता है। वे अपने लोगों से कहते थे—”जागो”, और यह जागृति किसी युद्धघोष की तरह नहीं फूटी; यह भीतर से उठने वाली वह आहट थी, जिसे सुनकर मनुष्य पहले अपने पैरों को पहचानता है, फिर अपनी भूमि को, और अंततः अपना अस्तित्व। बिरसा ने अस्तित्व को आवाज़ दी—एक ऐसी आवाज़ जो आज भी पहाड़ियों पर गूंजती है।
डेढ़ सौ वर्ष बाद यह आवाज़ हमें बताती है कि न्याय कोई किताबों में लिखा हुआ अध्याय नहीं। न्याय हमारे भीतर से उठती हुई विनम्र, लेकिन अडिग आकांक्षा है—कि किसी की मेहनत को छीना न जाए, किसी की जमीन को पड़ी हुई मुहरों की ताकत से उजाड़ा न जाए, किसी के जीवन को पराये शासन की बारीक कलमें न बदल दें। बिरसा ने इसी आकांक्षा को अपने शरीर में धारण किया था। उनका शरीर, उनकी जवानी, उनके दिन और उनकी रातें—सब उसी संघर्ष की कड़ी बन गए।
वे जेल में भी अकेले नहीं थे। उनकी देह पर जो बेड़ियाँ पड़ीं, वे मानो लाखों पैरों से होकर निकलीं और फिर ढह गईं। उनका अंत एक क्षण मात्र में इतिहास का आरंभ बन गया। वह उम्र, जो लड़कपन और युवावस्था के बीच खड़ी थी, अचानक एक दहकती हुई स्मृति में बदल गई। लेकिन बिरसा जाते नहीं—वे केवल रूप बदलते हैं। कभी वन की छाया बनकर, कभी वर्षा की गंध बनकर, कभी किसी माँ की आंखों की चिंता बनकर, कभी किसी बच्चे की हँसी में खोई हुई स्वतंत्रता बनकर।
उनकी 150वीं जयंती इसलिए नहीं कि हम उन्हें श्रद्धांजलि दें—श्रद्धांजलि तो समय हर महान आत्मा को देता ही है—बल्कि इसलिए ज़रूरी है कि हम उस बहादुरी को छू सकें, जो किसी हथियार से नहीं, बल्कि अस्मिता से जन्म लेती है। वह अस्मिता, जो चुप्पियों को तोड़ती है; जो कहती है कि जंगल केवल लकड़ी का भंडार नहीं, बल्कि भावनाओं और पूर्वजों का निवास है; कि पहाड़ सिर्फ पत्थर नहीं, बल्कि स्मृति के स्तम्भ हैं; कि भूमि राजस्व का दस्तावेज़ मात्र नहीं, बल्कि मनुष्य के जीवन का पहला स्वप्न है।
आज जब हम उनके नाम को उच्चारित करते हैं, तो हमारे आसपास का संसार थोड़ा धीमा पड़ जाता है। हवा अपनी गति रोक लेती है, और पत्तियाँ अपनी खड़खड़ाहट में उनकी पदचाप को दुहराती हैं। उनकी कथा हमें यह सिखाती है कि प्रतिरोध केवल संघर्ष का रूप नहीं, बल्कि प्रेम का गहनतम रूप भी है—अपने समुदाय से प्रेम, अपनी संस्कृति से प्रेम, अपनी पहचान से प्रेम। बिरसा का प्रतिरोध इसी प्रेम का विस्तार था।
वे कोई सैनिक नहीं थे, पर उनके हृदय में जो अनुशासन था, वह किसी सेना से कम नहीं था। यह अनुशासन था—अवमानना सहकर भी न झुकने का, खोकर भी न टूटने का, और सबसे महत्वपूर्ण, दर्द को विद्रोह में बदल देने का। उनका प्रत्येक कदम इतिहास के कंधे पर रखा गया एक नया पत्थर था, जिसे उठाकर आज की पीढ़ियाँ अपने घरों की दहलीज रच सकती हैं।
150 वर्षों बाद भी बिरसा मुंडा किसी दूरस्थ गतकाल की वस्तु नहीं हैं। वे वर्तमान के मध्य में खड़े हैं—जंगलों की रक्षा के हर आंदोलन में, विस्थापन के हर आँसू में, किसी आदिवासी बच्चे की आँखों की चमक में, और उस हर सपने में जो कहता है कि मनुष्य का जीवन दूसरों की दया का मोहताज नहीं होना चाहिए। उनके नाम का उच्चारण ही अपने आप में एक संकल्प जैसा लगता है—संकल्प कि हम दुनिया को थोड़ा और न्यायपूर्ण, थोड़ा और संवेदनशील, थोड़ा और स्वाभिमानी बनाना चाहेंगे।
और इस संकल्प में बिरसा मुस्कुराते हैं—जैसे पहाड़ दूर से मुस्कुराते हैं, जैसे जंगल सांझ में अपनी सांस रोककर किसी पुरानी लोरी को याद करता है, जैसे धरती अपने पुत्रों को अपने मौन में सुरक्षित रखती है। उनकी जयंती केवल एक तारीख नहीं; यह उस आग का पुनःदीप्त क्षण है, जिसे उन्होंने कभी बुझने नहीं दिया।
“बिरसा: मिट्टी, स्मृति और मुक्ति का नाम” जैसे अपने भीतर एक पूरा परिदृश्य सँजोए रहता है। किसी दूर बसे हुए पहाड़ी गाँव की सुबह, जब धुआँ धीरे-धीरे उठकर पेड़ों की डालियों में उलझता है और बच्चे नंगे पैरों से ओस को छूते हुए स्कूल की राह पकड़ते हैं—उनके चेहरे पर जो चंचल चमक होती है, वह मानो कहती है कि इस भूमि की स्मृति अभी जिंदा है, और वह स्मृति बिरसा के नाम से ही थिरकती है। बिरसा सिर्फ इतिहास में दर्ज एक क्रांतिकारी नहीं, बल्कि वह भूगंध हैं, जिसे पहचानते ही आदिवासी समुदाय अपनी आत्मा को पहचान लेता है।
उनका नाम लेते ही जैसे किसी अदृश्य नदी की ध्वनि हमारे भीतर बहने लगती है—एक ऐसी नदी जो सिर्फ पानी की नहीं, बल्कि संघर्ष की, स्वप्न की और विश्वास की नदी है। उनके संघर्ष का रूप कठोर था, पर उसकी जड़ें कोमल थीं—कोमल उस अर्थ में कि वे गहराई में मनुष्य की गरिमा को बचाए रखना चाहते थे। वे जानते थे कि मनुष्य की गरिमा जब टूटती है, तब जंगल सूख जाते हैं, पहाड़ मौन हो जाते हैं और चिड़ियों की सुबह की पुकार भी किसी उपेक्षित दुख की तरह सुनाई देने लगती है।
बिरसा के भीतर यह आग कहाँ से आई? शायद उस धरती से, जिसमें उनके पुरखों के कदमों की आकांक्षाएँ अब भी दबी हुई थीं। शायद उस नदी से, जिसके किनारे बैठकर उन्होंने पहली बार यह अनुभव किया होगा कि सत्ता किस तरह मनुष्य की जड़ों को उखाड़ सकती है। या फिर उस हवा से, जो कभी भी किसी फ़रमान से डरी नहीं, जिसने अपने साथ स्वतंत्रता की अनगिनत बूंदें उड़ेल दीं। बिरसा इस हवा के पुत्र थे—और हवा की ही तरह वे रुकने वाले नहीं थे। उनका जीवन उस बेचैनी की मूर्ति था, जो किसी अन्याय को चुपचाप स्वीकार नहीं कर सकती।
उनकी स्मृति में सबसे अधिक भावुक कर देने वाला पक्ष यह है कि वे अपनी लड़ाई में कभी अकेले नहीं थे। वे हमेशा उन हजारों अनाम आत्माओं के साथ थे जिन्हें किसी इतिहास-पुस्तक ने स्थान नहीं दिया, पर जिनकी दिन-रात की पीड़ा ने इस महान विद्रोह को जन्म दिया। बिरसा जानते थे कि किसी भी समुदाय की मुक्ति केवल एक नेता की जीत नहीं होती; वह सामूहिक स्वप्न की जीत होती है। इसलिए उनका हर आह्वान किसी आदेश की तरह नहीं, बल्कि किसी गीत की तरह था—एक ऐसा गीत जो लोगों को बुलाता भी था और उनकी थकी हुई आत्मा को सहलाता भी था।
उनका मुक्ति-संकल्प किसी बाहरी सत्ता को केवल चुनौती देने का प्रयत्न नहीं था; वह अपनी ही संस्कृति की धूल झाड़कर उसके भीतर से स्वाभिमान का नया दीपक जलाने का प्रयास था। बिरसा ने इस दीपक को अपने पसीने से, अपनी तपस्या से, और अंततः अपने बलिदान से जलाए रखा। यह दीपक आज भी जल रहा है—अंधेरे के बीच एक स्थिर ज्योति की तरह, जो किसी हवा के झोंके से नहीं बुझती।
बिरसा का नाम लेते ही मिट्टी हल्की-सी काँपती है, जैसे उसे कोई पुरानी लोरी याद आ गई हो। स्मृति के दर्पण पर उनका चेहरा आज भी उतना ही उजला और उतना ही दृढ़ है। वे किसी बीते हुए आंदोलन के प्रतीक नहीं; वे भविष्य की ओर जाने वाली राह के पहले पत्थर हैं, जिन्हें छूकर आज भी आदिवासी समाज अपने भीतर एक नयी शक्ति महसूस करता है। और यही बिरसा का सबसे बड़ा चमत्कार है—कि वे मरकर भी एक जीवित आवाज़ हैं, एक जीवित प्रतिरोध, एक जीवित स्वप्न।
जब हम उनकी मुक्ति की आकांक्षा को सोचते हैं, तो वह किसी राजनीतिक दावे की तरह दिखाई नहीं पड़ती। वह उस बच्चे की तरह लगती है जो मिट्टी में खेलते-खेलते अचानक ऊपर देखकर कह उठता है—”यह धरती मेरी है।” इस वाक्य के भीतर जो सरल, स्थिर और पूर्ण सत्य है, वही बिरसा की पूरी यात्रा का सार है। उन्होंने अपनी प्रजा को यह सत्य लौटाया था—कि वे केवल जनसंख्या का हिस्सा नहीं, बल्कि अपनी भूमि के मूल स्वामी हैं। यह स्वामित्व कागजों से नहीं, बल्कि जन्म और आस्था की गठरी से आता है।
बिरसा की स्मृति जितनी मिट्टी की है, उतनी ही मुक्त हवा की भी है। और यही कारण है कि उनकी 150वीं जयंती केवल एक ऐतिहासिक अवसर नहीं; यह आत्मा को कृतज्ञता से भर देने वाला एक विराट भाव है। ऐसा लगता है जैसे पहाड़, नदी, जंगल और धरती स्वयं इस दिन थोड़ी देर ठहरकर उन्हें प्रणाम करती हैं। जैसे सृष्टि स्वयं कहती हो—“तुम्हारी ज्वाला बुझी नहीं है, वह हम सबके भीतर एक दिशा बनकर धड़क रही है।”इसी धड़कन में, इसी धुएँ में, इसी मिट्टी में, इसी स्मृति में, बिरसा का नाम आज भी उतनी ही मुक्ति का पर्याय है जितना उस दिन था जब उन्होंने पहली बार कहा था—“जागो।”
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