
राष्ट्रीय प्रेस दिवस भारतीय लोकतांत्रिक चेतना के उस उजले क्षण की याद दिलाता है, जब शब्दों को स्वतंत्रता मिली और समाज को अपनी आवाज़। इस दिन का अर्थ केवल किसी तिथि का स्मरण नहीं बल्कि उस जिम्मेदारी की पुनर्स्मृति है, जिसका वहन पत्रकारिता सदियों से करती आई है। आज जब हम इस दिन को मनाते हैं तो यह हमारे भीतर उस प्रकाश को भी जगाता है, जिसके सहारे सत्य अपनी राह खोजता है और समाज अपनी दिशा।
पत्रकारिता हमेशा से किसी सभ्यता की आँख रही है—वह देखती है, परखती है और फिर कहती है लेकिन उसकी दृष्टि सिर्फ सूचना का संकलन नहीं होती; वह संवेदना, न्याय और विवेक का विस्तार होती है। भारत जैसे विशाल, विविध और बहुभाषी देश में प्रेस का स्वर अनेक रंगों, अनेक सुरों और अनेक लयों में गूँजता है। यह बहुलता ही उसकी शक्ति है लेकिन इस शक्ति के साथ जो उत्तरदायित्व आया है, वह भी उतना ही गंभीर है—क्योंकि शब्द जैसे ही सार्वजनिक होते हैं, वे किसी की नियति, किसी की गरिमा और किसी की सच्चाई को प्रभावित करने लगते हैं।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस इसीलिए केवल उत्सव नहीं बल्कि आत्मपरीक्षण का भी अवसर है। यह वह क्षण है जब पत्रकारिता स्वयं से पूछती है—क्या वह अपने मूल स्वभाव के प्रति ईमानदार रही? क्या उसने सत्ता से दूरी बनाए रखकर सत्य के करीब रहने का साहस किया? क्या उसने समाज के उन वर्गों तक आवाज़ पहुँचाई, जिन्हें इतिहास और व्यवस्था ने अक्सर हाशिये पर धकेल दिया? ये प्रश्न केवल पेशेवर दायित्व नहीं बल्कि नैतिक प्रतिबद्धता हैं और इसी प्रतिबद्धता के कारण प्रेस लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में जाना गया है।
पत्रकार का काम केवल खबर देना नहीं होता; वह दृश्य से अदृश्य को पहचानने का कर्तव्य निभाता है। चुप्पियों की आवाज़ सुनना, भीड़ के पीछे छिपे एक अकेले व्यक्ति की पीड़ा तक पहुँचना और उन संस्थाओं पर रोशनी डालना जिन्हें अंधेरा अपने हित में बनाए रखना चाहता है—इन्हीं कामों में प्रेस की असली शुचिता दिखाई देती है। जब किसी छोटे गाँव की घटना, किसी गरीब की समस्या, किसी पीड़ित की चीख पत्रकारिता के माध्यम से विस्तार पाती है, तभी प्रेस अपने धर्म का निर्वाह करती है। यहाँ उसकी शक्ति किसी सत्ता से नहीं आती—उसकी शक्ति लोगों के भरोसे से आती है।
कई बार इतिहास में ऐसा हुआ है कि जब सत्ता ने अपने कदमों के नीचे सत्य को दबाना चाहा, तब प्रेस ने ही उसे उजागर किया। शब्दों की एक सच्ची पंक्ति भी कभी-कभी तलवार की धार से अधिक असर रखती है। यह वही शक्ति है जिसे प्रेस दिवस पर याद किया जाता है—वे पत्रकार, जिन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर सच को देखा, सुना और समाज तक पहुँचाया। कभी जंगलों में नक्सल हिंसा के बीच, कभी सीमा के युद्धक्षेत्रों में, कभी दंगों की आग के बीच और कभी भ्रष्टाचार के ठंडे कक्षों में—पत्रकारिता ने हमेशा जोखिम उठाए हैं। इस जोखिम का उद्देश्य निजी महत्वाकांक्षा नहीं बल्कि समाज की चेतना को जीवित रखना था।
लेकिन प्रेस केवल संघर्ष का प्रतीक नहीं। वह संस्कृति और विचार का भी वाहक है। वह वर्तमान को इतिहास से, और भविष्य को वर्तमान से जोड़ने का माध्यम है। एक अखबार की स्याही में न केवल खबरें छपती हैं, बल्कि एक समय का मनोविज्ञान, उसकी आकांक्षाएँ, उसकी चिंताएँ और उसकी भाषा भी अंकित होती है। हर समाचारपत्र अपने समय का आईना होता है; वह दिखाता है कि समाज क्या सोच रहा था, किससे डर रहा था, किस पर भरोसा कर रहा था और किस दिशा में बढ़ रहा था। इसीलिए प्रेस का मूल्य सिर्फ सूचना तक सीमित नहीं—it becomes a cultural archive.
राष्ट्रीय प्रेस दिवस हमें यह भी याद दिलाता है कि पत्रकारिता का कर्म चाहे जितना कठिन क्यों न हो, वह कभी अकेला नहीं होता। उसके साथ पाठकों का विवेक, नागरिकों की सजगता और समाज की नैतिक चेतना खड़ी रहती है। यही वह संबंध है जो प्रेस को जीवंत रखता है—पत्रकार लिखता है लेकिन उसकी शक्ति पाठकों की आँखों में बसती है। जब पाठक सत्य की माँग करता है, प्रेस मजबूत होती है। जब समाज प्रश्न करता है, पत्रकारिता स्वतंत्र होती है। इस पारस्परिकता के बिना स्वतंत्र प्रेस संभव नहीं।
आज के समय में यह संबंध और भी जटिल हो गया है। डिजिटल माध्यमों की गति ने पत्रकारिता के सामने नए अवसर भी रखे हैं और नई चुनौतियाँ भी। अब खबर पल भर में दुनिया के किसी भी कोने से किसी भी कोने तक फैल सकती है लेकिन इस तेजी में कभी-कभी सत्य की प्रामाणिकता खतरे में पड़ जाती है। अफवाहें भी खबर की तरह दिखने लगती हैं और शोर सत्य की आवाज़ को ढँक लेता है। ऐसे समय में प्रेस दिवस एक चेतावनी की तरह भी आता है—कि पत्रकारिता की मूल पहचान शोर में नहीं, उसकी शांत और स्थिर नैतिक दृष्टि में है। प्रेस का मूल्य उसकी गति में नहीं, उसकी सत्यनिष्ठा में है।
इस नए परिदृश्य में पत्रकार को सिर्फ सूचना-संग्रहकर्ता नहीं बल्कि सूचना-शोधकर्ता बनना पड़ेगा। उसे स्रोतों की जाँच करनी होगी, तथ्यों की पुष्टि करनी होगी और सत्य को तुरंत लिखने की हड़बड़ी से बचना होगा। पत्रकारिता की गरिमा उसी में है कि वह जल्दबाज़ी का शिकार नहीं होती—बल्कि वह हर सूचना को कई कोणों से देखकर ही समाज के सामने रखती है। यही अभ्यास प्रेस को विश्वसनीय बनाता है।
आज का प्रेस दिवस इसलिए एक नए संकल्प का दिन भी है—कि शब्दों को फिर से पवित्र बनाया जाए, कि खबरों को फिर से जिम्मेदार बनाया जाए, कि संवाद को फिर से सभ्य बनाया जाए और कि सत्य को फिर से सर्वोच्च स्थान दिया जाए। प्रेस तभी स्वतंत्र है जब वह निर्भीक हो; वह तभी निर्भीक है जब उसका कर्तव्य-बोध मजबूत हो; और उसका कर्तव्य-बोध तभी मजबूत होता है जब समाज उसे अपना नैतिक सहयोग देता है।
राजनीतिक दबाव, कॉर्पोरेट प्रभाव, विचारधाराओं की आंधियाँ—इन सबके बीच भी पत्रकारिता को अपने केंद्रीय मूल्य पर अडिग रहना है। वह मूल्य है—सत्य की खोज। यह खोज कभी आसान नहीं होती, लेकिन यही खोज उसे विशिष्ट बनाती है। पत्रकारिता का नायक वह नहीं जो सबसे तेज़ खबर दे; पत्रकारिता का नायक वह है जो सबसे सच्ची खबर दे, और सत्य के साथ खड़ा रहे, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन हों।
आज, राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर, यह याद रखना आवश्यक है कि प्रेस लोकतंत्र का प्रहरी तभी है जब वह स्वयं जागृत हो, स्वयं स्वतंत्र हो, और स्वयं नैतिक हो। प्रेस को सजग रखने के लिए समाज को भी सजग होना होगा—क्योंकि एक स्वतंत्र प्रेस केवल कानूनों से नहीं, नागरिकों के विवेक से सुरक्षित रहती है।
यही वह भावना है जो इस दिन को विशिष्ट बनाती है—कि शब्दों का मूल्य केवल कागज पर नहीं, मनुष्यों की चेतना में है। प्रेस का दायित्व केवल समाचार देना नहीं, बल्कि समाज को वह दृष्टि देना है जिससे वह खुद को पहचान सके। यह दृष्टि ही लोकतंत्र की रोशनी है।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस हमें इसी रोशनी की ओर लौटने का निमंत्रण देता है—एक ऐसी रोशनी, जो शब्दों से जगती है, सच्चाई से चमकती है, और विवेक से विस्तृत होती चली जाती है।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस की यह उजली सुबह जैसे अपने भीतर एक धीमी-सी प्रतिध्वनि लिए आती है—किसी दूरस्थ प्रैस-मशीन की घूमती चाक की, किसी पत्रकार की अनिद्र रातों की, किसी सत्य की जो बार-बार दबी रहती है, फिर भी हर भोर अपनी नयी साँस के साथ लौट आती है। यह दिवस किसी औपचारिकता का पर्व नहीं, शब्दों की उस लंबी यात्रा का स्मरण है, जिसमें स्याही का हर कतरा मानो नागरिक की स्वतंत्रता का प्रमाण बनकर उभरता रहा है।
प्रेस दिवस जैसे हमें थामकर पूछता है—क्या सचमुच हम उन शब्दों की कद्र करते हैं, जो अनगिनत जोखिमों के बीच लिखे जाते हैं? वह एक पुरानी परंपरा की ओर संकेत करता है, जिसमें कलम हथियार नहीं थी, पर उससे निकलने वाली सत्य की लौ किसी भी हथियार से अधिक प्रखर थी। लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ दरअसल हमारे समय की नैतिकता को परखने वाली कसौटी है—जहाँ हर समाचार यह बताता है कि हम कितने स्वतंत्र हैं और कितने बंधे हुए।
पत्रकार किसी राज्य का नागरिक भर नहीं होता; वह जैसे एक पारदर्शी दर्पण होता है, जिसके भीतर से समय अपनी सभी परतों में दिखाई देता है। वह राजनीतिक गलियारों की धूप-छाँह को भी दर्ज करता है और किसी आम नागरिक की आकांक्षा की दरारों को भी। उसकी आँख लगातार खुली रहती है—चाहे दुनिया सो रही हो या जाग रही हो। वह युद्ध के मोर्चों पर भी खड़ा होता है और सूखती हुई नदियों के किनारे भी। कभी किसी किसान की टूटी उम्मीद उसके शब्दों में उतरती है, कभी किसी स्त्री की चुप्पी जो वर्षों से अपने भीतर एक दबे विस्फोट की तरह पल रही होती है।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस यह भी रेखांकित करता है कि पत्रकारिता कोई तटस्थ धरा नहीं। यह एक कठिन पथ है—जहाँ सत्य तक पहुँचने की इच्छा हर क्षण किसी शक्ति, किसी हित, किसी भय से टकराती रहती है। लेकिन फिर भी जो पत्रकार अपने भीतर की लौ को बचाए रखते हैं, वे जैसे देश की स्मृति को भी बचाए रखते हैं। उनकी लिखी हुई पंक्तियाँ आने वाली पीढ़ियों के लिए इतिहास की साक्षी बनती हैं—बिना किसी गवर्नर की मुहर, बिना किसी न्यायालय की मुहर, केवल मानवीय ईमानदारी की मुहर के साथ।
इस दिन यह भी याद आता है कि शब्दों की स्वतंत्रता तब तक ही स्वतंत्र है, जब तक वह सत्ता को असुविधाजनक लगने का साहस रखती है। जब पत्रकारिता केवल समारोहों और विज्ञापनों की भाषा बोलने लगे, तब लोकतंत्र की नसों में बहने वाला रक्त धीमा पड़ने लगता है लेकिन जहाँ कोई युवा पत्रकार अपने पहले ही असाइनमेंट में किसी गाँव की अनसुनी कहानी को उठाता है, वहाँ प्रेस की आत्मा पुनः जाग उठती है।
प्रेस दिवस जैसे उन सभी चेहरों को एक साथ सामने ला देता है—वह रिपोर्टर जो बाढ़ में डूबे गाँव तक नाव से पहुँचता है; वह फोटोग्राफर जो आँसू की एक बूँद में भी सत्य खोज लेता है; वह संपादक जिसकी रात किसी एक वाक्य की शुद्धता के लिए गुजर जाती है; वह संवाददाता जो किसी भ्रष्टाचार के दस्तावेज़ों के साथ महीनों तक संघर्ष करता है। वे किसी मंच पर दृश्यमान न हों, पर हर समाचार की धड़कन उन्हीं से आती है।
और फिर प्रेस अपने भीतर एक सांस्कृतिक भूमिका भी निभाता है—वह भाषा के तापमान को संवेदनशील बनाता है, समाज की स्मृति को सुरक्षित रखता है, किसी छोटे कस्बे की उजाड़ गली से लेकर अंतरराष्ट्रीय संसदों तक—हर जगह एक मानवीय दृष्टि स्थापित करता है। समाचार कागज़ पर उतरे शब्द मात्र नहीं, हमारे समय के चल रहे संवाद हैं। हर सुबह जब कोई अख़बार खुलता है, वह दरअसल दुनिया को पढ़ने की एक नई खिड़की खोलता है।
इस अवसर पर सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रेस केवल पत्रकारों का क्षेत्र नहीं—यह हर नागरिक की जिम्मेदारी का प्रतिबिंब है। क्योंकि एक जागरूक समाज ही जागरूक पत्रकारिता को जन्म देता है। यदि पाठक प्रश्न पूछना बंद कर दे, तो संपादक भी जोखिम उठाना बंद कर देगा। यदि समाज अन्याय को सामान्य मान ले, तो प्रेस भी सामान्य बातों तक सीमित हो जाएगा।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस हमें यह भी याद दिलाता है कि आज के डिजिटल युग में जब सूचनाएँ बाढ़ की तरह बह रही हैं, तब असली चुनौती सत्य तक पहुँचना है। तेज़ी ने गहराई की जगह ले ली है। लेकिन यही वह समय है जब पत्रकारिता का सौंदर्य—उसकी सरलता, उसकी पारदर्शिता, उसकी धीमी और प्रामाणिक खोज—और अधिक आवश्यक हो उठती है।
इस दिन का आत्मा-सरीखा सार शायद यही है कि प्रेस एक निरंतर जागरण है। यह वह दीया है जिसे हर युग का तूफ़ान बुझाना चाहता है, पर हर युग का कोई न कोई साधारण-सा मनुष्य उसे फिर से जलाने आ ही जाता है।
प्रेस दिवस एक उत्सव नहीं बल्कि एक स्मरण है:
कि शब्दों की गरिमा देश की गरिमा है।
कि सत्य किसी सत्ता का उपहार नहीं, नागरिक का अधिकार है।
और कि एक पत्रकार का साहस ही लोकतंत्र की सबसे चमकीली लौ है—जो कभी-कभी मद्धिम होती है, पर बुझती कभी नहीं।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस का अर्थ केवल एक स्मरण-तिथि भर नहीं; यह वह क्षण है जब पूरा देश अपनी आंतरिक रोशनी को परखता है—वह रोशनी जो किसी अख़बार के पन्ने पर, किसी रिपोर्टर की आँखों में, किसी फोटोग्राफ़र की उंगलियों के कम्पन में, किसी संपादक की रातों की बेचैनी में लगातार जलती रहती है। यह दिन हमें बताता है कि शब्द भी कभी-कभी दीपक होते हैं—धीमे, विनम्र, पर अपनी लौ में अंधकार को चुनौती देते हुए।
पत्रकारिता का चरित्र हमेशा सीधा नहीं रहा। स्याही का रास्ता कभी सरल नहीं होता—वह धूप से गुजरता है, धूल से गुजरता है, कभी-कभी रक्त से भी। पर सच्ची पत्रकारिता की देह पर जितने घाव होते हैं, उतनी ही उसकी आभा फैलती है। वह अपनी पीड़ा को पूरब के क्षितिज की तरह शांत रखती है और अपनी चमक को किसी हथौड़े की आवाज़ की तरह तीक्ष्ण। राष्ट्रीय प्रेस दिवस इसी अदृश्य तप की पहचान है—उन सबसे अनकहे क्षणों का उत्सव, जिन्हें पत्रकारों ने अपने भीतर सँजोकर रखा, पर दुनिया को केवल सत्य का साफ-सुथरा चित्र दिखाया।
प्रेस की यात्रा इतिहास नहीं—एक लगातार चलती हुई नदी है। हर दिन उसका स्वर बदलता है, हर युग उसकी गति बदलता है। कभी वह क्रांति की लहर बनकर उठती है, कभी वह लोकमानस का दर्पण बनकर शांत बहती है, कभी वह शासन की आँखों में काँटा बनती है, तो कभी समाज के हृदय में मरहम का काम करती है। उसकी असली सुंदरता इसी बदलाव में है। वह स्थिर होती, तो शायद मर जाती; वह चलती है, इसलिए जीवित है।
आज के समय में पत्रकारिता का आकाश बहुत विस्तृत हो गया है—डिजिटल गलियाँ हैं, सोशल मीडिया का शोर है, तेज़ी से बदलता जनमत है, और सूचना का उफनता सैलाब है। इस सैलाब में खड़े होकर किसी पत्रकार का सच बचाए रखना आसान नहीं। पर जो खड़ा रहता है, वही समय की आँखों में अमर हो जाता है। उसका लिखा हुआ मात्र खबर नहीं; वह एक मानवीय प्रतिरोध है, वह अंधेरे में उठाया गया दीपक है।
प्रेस का अर्थ है—सुनना भी और सुनाना भी। समाज के सबसे कमज़ोर व्यक्ति की आवाज़ लेना और उसे सबसे मजबूत स्थान तक पहुँचाना। किसान का दुःख, स्त्री की चीख, मज़दूर की थकान, आदिवासी का विस्थापन, बच्चे का भय—प्रेस इन सभी की आवाज़ का पुल है। यह पुल जितना मजबूत सत्य से बनता है, उतना ही कमजोर सत्ता के दबाव या बाज़ार की तरंगों से टूटता है। और राष्ट्रीय प्रेस दिवस इस देह को छूकर पूछता है—”क्या तुम आज भी उतने ही सच्चे हो, जितने बनने का वादा तुमने किया था?”
पत्रकार का काम अक्सर दिखाई नहीं देता। वह एक शहर की रात में एक छोर से दूसरे छोर तक अकेला जाता है, ताकि सुबह किसी अखबार में सच की ओस चमक सके। वह किसी अदालत के बाहर देर रात तक खड़ा रहता है, ताकि किसी फैसले की घड़ियों को दर्ज कर सके। वह किसी गाँव की धूल में चलकर एक अनाम परिवार की त्रासदी को दुनिया तक ला सके। उसके पैर सबसे अधिक थकते हैं, पर उसकी कलम कभी नहीं थकती—क्योंकि वह जानता है कि दुनिया को सच की ज़रूरत हमेशा उससे ज़्यादा होती है।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस हमें यह भी याद दिलाता है कि पत्रकार सीमा पर खड़े सैनिक जैसा होता है—फर्क सिर्फ इतना है कि उसका मोर्चा शब्दों का है। वह हिंसा से नहीं लड़ता, वह असत्य से लड़ता है। वह हथियार नहीं उठाता, वह तर्क उठाता है। वह दुश्मन को मारता नहीं, पर उसकी असत्यता को नंगा कर देता है। इसलिए कह सकते हैं कि प्रेस लोकतंत्र की पहली और अंतिम साँस है—अगर वह कमजोर पड़ जाए तो पूरी व्यवस्था बिखरने लगती है।
इस दिन हम केवल पत्रकारों को सम्मान नहीं देते—हम शब्दों को सम्मान देते हैं। क्योंकि शब्द ही वह माध्यम हैं जिनके भरोसे मनुष्य अपनी दुनिया को समझ पाता है। जब शब्द सच्चे होते हैं तो दुनिया सरल हो जाती है, जब शब्द झूठे होते हैं तो दुनिया डरावनी हो जाती है। इसी लिए सच्चे शब्दों की रक्षा करना किसी भी लोकतंत्र का सबसे बड़ा धर्म है।
हम इस दिन उन सब आवाज़ों को स्मरण करते हैं जो सच कहने के कारण दबा दी गईं। उन रिपोर्टरों को याद करते हैं जिन्हें धमकियाँ मिलीं, जेलें मिलीं, या जिनके घर उजाड़े गए। उनके लिए यह दिन केवल उत्सव नहीं, बल्कि एक शोकगीत भी है—एक मौन श्रद्धांजलि, जिसमें कोई वाद्य नहीं, पर संवेदना की आवाज़ चमकती है।
और फिर भी—इसके बीच सबसे उजली बात यह है कि पत्रकारिता आज भी जिंदा है। उसकी साँसें चाहे थकी हों, उसकी आँखें चाहे लाल हों, उसकी जेबें चाहे खाली हों—पर उसका हृदय आज भी उतना ही सच बोलना चाहता है, जितना हमेशा से बोलता आया है। अगर समाज अभी भी सच को सुन पा रहा है, तो यह उन्हीं के कारण संभव है, जो लगातार शब्दों की मशाल उठाए खड़े हैं।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस हमें सहज से एक कठिन प्रश्न भी पूछता है—क्या हम अपने समय के पत्रकारों के साथ न्याय कर रहे हैं? क्या हम उनके श्रम, उनके साहस, उनके जोखिम को समझते हैं? या हम केवल खबर को उपभोग की वस्तु की तरह देखते हैं? जब हम इस प्रश्न का उत्तर ईमानदारी से देते हैं, तभी हम इस दिवस को सच्चा सम्मान देते हैं।
प्रेस केवल एक पेशा नहीं, एक नैतिक धड़कन है। यह वह रौशनी है जो समय के अंधकार को चीरकर आगे बढ़ती रहती है। वह प्रकाश कभी बुझता नहीं—कभी-कभी धुँधला ज़रूर पड़ जाता है लेकिन उसके भीतर सत्य की चिंगारी हमेशा शेष रहती है। राष्ट्रीय प्रेस दिवस उस चिंगारी को देखते हुए कहता है—“लौ को बचाए रखना, बाकी दुनिया अपने-आप सँवर जाएगी।”
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