जब गांधी खुद से अहिंसा, भ्रम और मानवता का अंतिम संघर्ष लड़े

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mahatma gandhi ji

गांधी जी ने 1947 की विभीषिका के दौरान स्वीकार किया कि यदि मैं भ्रम में न रहता तो सम्भवतः देश आज़ाद न होता — यह वाक्य केवल एक आत्म-विश्वास की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि एक गहरी मानवीय पीड़ा थी।

सुधीर चन्द्रा अपनी पुस्तक “गांधी: एक असंभव संभावना” में बताते हैं कि एक समय ऐसा था जब लोग गांधीजी पर इसलिए भरोसा करते थे क्योंकि वे उन्हें अंग्रेजों का सामना करने का रास्ता दिखाते थे। उस दौर में अहिंसा एक कामयाब तरीका लगती थी, इसलिए लोग उनके पीछे खड़े रहे। गांधीजी व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि अगर उस समय हमें परमाणु बम बनाने का ज्ञान होता, तो शायद कोई यह सोच भी सकता था कि अंग्रेजों को उसी से मिटा दिया जाए। ऐसे किसी विकल्प के न होने के कारण ही अहिंसा को स्वीकार किया गया और उनकी बात चल सकी।

यह बेचैनी और असुरक्षा सबसे गहरी तरह 1946–47 के नोआखाली में दिखाई देती है। वहाँ गांधी किसी नेता की मुद्रा में नहीं पहुँचे थे, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति की तरह जो लोगों के दर्द, डर और टूटन को अपने भीतर महसूस कर रहा था। यह वह समय था जब हिंसा इतनी व्यापक थी कि मनुष्य की करुणा और सहानुभूति मानो परतों के नीचे दब गई थी। लोग एक-दूसरे पर भरोसा खो चुके थे; रिश्ते भय और संदेह में बदल गए थे।

सुधीर चन्द्रा बताते हैं कि इस काल में गांधी एक ऐसे इंसान थे जो मानो चारों ओर फैले घने अंधेरे से घिरे हुए थे। 1946 में वे निर्मल कुमार बोस से स्वीकार करते हैं कि उनका शरीर साथ नहीं दे रहा और मन पर पहले कभी न देखी गई थकावट छा गई है। वे मानसिक रूप से उलझे हुए, थकान से भरे और बेहद कमज़ोर महसूस कर रहे थे।

फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। वे इसलिए आगे बढ़ते रहे क्योंकि उनका विश्वास उन्हें आगे बढ़ने के लिए मजबूर करता था — न कि इसलिए कि उन्हें यकीन था कि लोग उनकी बात मानेंगे। बाद में कलकत्ता और दिल्ली में हुए उनके अंतिम उपवासों का जो असर हुआ, वह स्वयं गांधी के लिए भी अप्रत्याशित था।

गांधीजी ने नोआखली में अपने साथियों से कई बार कहा कि उन्हें हवा में घुली इस नफरत को महसूस करना होगा, ताकि वे समझ सकें कि मनुष्य को मनुष्य से दूर करने वाली ताकतें कितनी भयावह हो सकती हैं। नोआखाली की तंग गलियों, उजड़े घरों और टूटे दिलों के बीच गांधी अकेले चलते थे। रास्तों पर काँच के टुकड़े बिखरे होते, कभी उनके सामने अपशब्द फेंके जाते, जगह-जगह मल फैला दिया जाता। पर गांधी ने यही कहा “यदि रास्ता नफरत से भरा है, तो मुझे उसी पर चलना चाहिए।”

उनके चेहरे पर वही चिंता दिखाई देती थी जो आज भी हर संवेदनशील व्यक्ति महसूस करता है—क्या मनुष्य अपने भीतर इतनी करुणा बचा पाएगा कि अपने से भिन्न व्यक्ति को इत्मीनान दे सके? गांधी हिंदुओं से कहते—“तुम्हारे घर जले हैं, तुम्हारा दर्द मैं समझता हूँ। लेकिन अपनी मिट्टी मत छोड़ो। नोआखाली तुम्हारा घर है।” गांधी मुसलमानों से कहते हैं “नोआखाली तुम्हारे लिए एक हकीकत है और “पाकिस्तान एक ख्याली पुलाब है। इस सच्चाई को छोड़ना मानवता को छोड़ना होगा।”

गांधीजी की यह केवल राजनीतिक सलाह नहीं थी—यह मानवता का अंतिम आह्वान था। गांधी जानते थे कि उनका संदेश सबको पसंद नहीं आएगा, पर उनसे बड़ा सच उनके पास था ही क्या? यही वह समय था जब उन्होंने स्वीकार किया कि शायद वे भ्रम में थे। उन्होंने कहा था “हाँ, मैं भ्रम में था। लेकिन यदि मैं भ्रम में न रहता, तो शायद देश आज़ाद न हो पाता।”

गांधी का यह स्वीकार करना यह साबित करता है कि ईमानदार मनुष्य कभी भी अपने सिद्धांतों को कठोर दीवार की तरह नहीं, बल्कि एक जीवित यात्रा की तरह देखता है। और एक यात्रा में भ्रम होना कमजोरी नहीं—मनुष्यत्व का प्रमाण है।

अमेरिका लौटने से पहले प्रोफेसर स्टुअर्ट नेल्सन भी गांधीजी से मिलने आए। वे पहले भी श्रीरामपुर में गांधीजी से मिल चुके थे। उन्होंने सीधा सवाल किया “जब भारत ने आज़ादी अहिंसा के रास्ते से हासिल की है, तो आज यही देश भीतर की हिंसा को अहिंसा से काबू क्यों नहीं कर पा रहा?”

गांधीजी ने गंभीर स्वर में जवाब दिया “अब मुझे साफ़ दिख रहा है कि जिसे हम सत्याग्रह समझते रहे, वह असल में केवल ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ था — और निष्क्रिय प्रतिरोध कमजोरों का सहारा बन जाता है। हमारे भीतर अंग्रेज़ों के प्रति दबा हुआ गुस्सा था। ऊपर से हम शांत दिखते थे, भीतर हमें चोट लगी हुई थी।हम अहिंसा इसलिए नहीं अपनाए हुए थे कि हम विरोधी के भीतर की मानवता जगाना चाहते थे, बल्कि इसलिए कि उस समय हिंसक प्रतिक्रिया देना हमारे बस में नहीं था।”

उन्होंने आगे कहा “जैसे ही अंग्रेज़ बिना लड़ाई के देश से जा रहे हैं, हमारी वह सतही अहिंसा टूट गई है। हमारे भीतर छिपी हिंसा बाहर निकल आई है।सत्ता बाँटने का समय आया, और वही हिंसा हमारे अपने समाज को चीरने लगी — हम एक-दूसरे को ही निशाना बनाने लगे।”

गांधीजी ने अंत में आशा व्यक्त की “यदि भारत इस फैली हुई हिंसा को किसी रचनात्मक दिशा में मोड़ पाए,और सत्याग्रह की किसी नई पद्धति से मतभेदों को शांतिपूर्वक सुलझाने का रास्ता खोज ले, तो वह दिन हमारे इतिहास का सबसे उजला दिन होगा।”

आज जब समाज फिर से असुरक्षा,हिंसा, पहचानों और कटु शब्दों के तूफान में खड़ा है, गांधीजी की चिंतित आँखें हमें वही प्रश्न दोहराती हैं “क्या हम अपने भीतर प्रेम की वह जगह बचा पाएँगे जो मानवता को एक साथ बाँध सकती है?” शायद आज हमें गांधी को पढ़ने की नहीं—गांधी की उस चिंता को समझने की जरूरत है, जो उन्हें भी रातों की नींद छीन लेती थी।


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