सामाजिक न्याय और जातिवाद – डॉ योगेन्द्र

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Social Justice and Racism

बिहार चुनाव -25 ने बहुतों की कलइ खोली है। सरकार और चुनाव आयोग तो चौराहे पर नंगा खड़ा ही है, साथ ही सामाजिक न्याय की खोल में छुपे जातिवादी लोगों के कपड़े भी तार -तार हुए हैं। फेसबुक और अन्य सोशल माध्यमों पर जो सामाजिक न्याय के लड़ाके चुनाव के पूर्व सामाजिक न्याय, सामाजिक न्याय कर रहे थे, वे अपने कपड़े उतार कर जाति की दलीलें दे रहे हैं। सामाजिक न्याय और जातिवाद में अंतर क्या है? पहला अंतर है – सामाजिक न्याय दबी- कुचली जातियों की जमात है, जबकि जातिवाद एक जाति की। सामाजिक न्याय समता आधारित सिद्धांत है। वह सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक समता की बात करता है, जबकि जातिवादी सिर्फ जाति का स्वार्थ देखता है। महात्मा बुद्ध, कबीर, महात्मा गांधी, महात्मा फुले, डॉ अम्बेडकर, डॉ लोहिया आदि सामाजिक विचारक और सक्रिय सामाजिक कर्मी सामाजिक न्यायवादी थे। वे जाति के खिलाफ खड़े थे और सामाजिक समता के लिए संघर्षरत थे।

इनकी अधूरी लड़ाई आज भी बहुत कुछ मांग कर रही है। सामाजिक न्याय घृणा और नफरत आधारित सिद्धांत नहीं है। यह मूलतः करुणा, विवेक और तर्कों पर आधारित सिद्धांत है। अनेक स्वार्थी नेताओं ने सामाजिक न्याय के नारे को अपने हित में इस्तेमाल किया, जैसे हिन्दुत्व और मुस्लिमपरस्त नेता धर्म का इस्तेमाल करते हैं। माननीय नरेन्द्र मोदी और ओवैसी में मूलभूत कोई अंतर नहीं है। दोनों एक ही बिंदु पर पहुंचते हैं। सामाजिक न्याय के नारे लगाने वाले भी जाति खत्म करने की लड़ाई अब नहीं लड़ते, वैसे ही धर्म आधारित लड़ाई आधारित लड़ाई अपने अपने धर्मावलंबियों की सामाजिक एकता की बात नहीं करते। धर्म के अंदर की गैर बराबरी को वे कायम रखना चाहते हैं। एक तरह से उनकी खोल में भी जाति छुपी है। दोनों लड़ाई में जाति की सर्वश्रेष्ठता काम कर रही है।

सौ वर्ष का आर एस एस ने सत्ता पर कब्जा जमा लिया है और सामाजिक न्याय का नारा बुलंद करने वाले लोग हतप्रभ हैं। ऐसे लोगों में कईयों ने आर एस एस का हाथ थाम लिया है। यह इसलिए हुआ कि इन लोगों ने जाति तोड़ने की लड़ाई छोड़ कर जाति आधारित राजनीति करने लगे। दोनों में एकता का रहस्य यह है कि दोनों जातिवादी है। दक्षिण भारत की बात करना तो अभी संभव नहीं है, लेकिन उत्तर भारत में नेताओं की सफलता के पीछे जातियां लगी हैं। नीतीश कुमार कुर्मी, चिराग़ पासवान दुसाध, उपेंद्र कुशवाहा कुशवाहा, जीतनराम मांझी मुसहर, तेजस्वी यादव यादव, अखिलेश यादव यादव, मुकेश सहनी मछुआरे आधारित राजनीति कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के पीछे वैश्य है। इसी तरह से राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ आदि जातियों के अपने अपने नेता है। कहा यह भी जाति के वोट के आधार पर कोई नहीं जीत सकता, यह बात सच है। जीत के लिए ये लोग जाति गठबंधन और लोक लुभावन नारे लगाते हैं।

एक हिन्दू राष्ट्र, दूहरा सामाजिक न्याय और तीसरा मुस्लिम उपेक्षा के नारे गढ़ते हैं। आर एस एस का हिंदी है – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। इनके राष्ट्र में मुस्लिम और ईसाई नहीं हैं। इनका एक अपना हिन्दू राष्ट्र है, लेकिन अपना नाम हिन्दू आधारित नहीं है। जो कहते हैं कि नाम में क्या रखा है, उसे इस रहस्य को समझना चाहिए। उनके झांसे बहुत से कार्यकर्ता इसलिए भी आ जाते हैं, क्योंकि उसमें राष्ट्र समाहित है। सामाजिक न्याय वादियों ने टिकट वितरण में अपनी-अपनी जातियों को तरजीह दिया। यहां तक कि बेशर्मी के साथ वे स्वजन पर भी उतर आये, इसलिए देश‌ को तीसरी राह की जरूरत है जिसके केंद्र में राष्ट्र हो, सभी नागरिकों के लिए उसमें स्पेस हो, जाति उच्छेद करने की सच्ची ख्वाहिशें हों और आर्थिक समानता की जिद हो। सामाजिक और सांस्कृतिक एकता की बुलंद आवाज़ हो। वह न अन्याय करे और किसी को अन्याय करने दें।


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