एक ऐसा इंसान, जिसके पास दुनियावी अर्थ में अपना कुछ भी नहीं था, शहर के कोलाहल से दूर गांव के जर्जर मकान के एक कमरे में बिना किसी एयर कंडीशन, फ्रिज, टीवी के, पुरानी दो कुर्सियों, किताबों, रिसालों, पुराने अखबारों से अटे-पटे, खद्दर के दो जोड़ी कुर्ते-पजामे, लूंगी-गंझी के साजोसामान के साथ हिंदी–अंग्रेजी में कालजयी रचनाओं को कलमबंद करने में निमग्न था। पटना, मुंबई, कोलकाता, दिल्ली जैसे महानगरों में रहने के दौरान नई पीढ़ी के नौजवानों को मार्क्सवाद बनाम समाजवाद, धर्म, जाति, आर्थिक–सामाजिक–वैचारिक दर्शन की जटिलताओं को छोटी-छोटी गोष्ठियों व बैठकों में समझाता रहा।
हालांकि उसका अपना कोई घर-परिवार, बीवी-बच्चे तो नहीं थे, परंतु सैकड़ों की तादाद में मुल्क भर के नौजवानों को उसने अपने परिवार का स्थायी मेंबर बना लिया, जो उसके अनुयायी–प्रशंसक कहने में फख्र महसूस करते हैं। उसी सोशलिस्ट विचारक सच्चिदानंद सिन्हा की याद में आज एक यादगार सभा का आयोजन दिल्ली के राजेंद्र भवन में हुआ।
यूं तो दिल्ली में तकरीबन हर रोज किसी न किसी शोकसभा का आयोजन होता रहता है, परंतु यह अलग तरह का ही जमावड़ा था। सच्चिदा जी की शख्सियत के मुताबिक ही इस सभा में उनके व्यक्तित्व के मुख्तलिफ़ पहलुओं पर गहन व गंभीर चर्चा हुई। और यह केवल वाणी-विलास तक ही महदूद नहीं थी।
चर्चा की शुरुआत हिंदुस्तान के मशहूर पत्रकार–लेखक अरविंद मोहन ने की, जिन्होंने सच्चिदानंद जी द्वारा लिखित पुस्तकों, लेखों, भाषणों, टिप्पणियों, ख़त-ओ-किताबत के विपुल साहित्य को बड़ी मेहनत-मशक्कत से इकट्ठा कर रचनावली के रूप में संपादित एवं प्रकाशित करने का दुरूह कार्य संपन्न किया था। उन्होंने विमर्श के आरंभ में सच्चिदा जी के साहित्य के विभिन्न पहलुओं की जटिलताओं पर सारगर्भित विवेचना बड़े ही सहज ढंग से प्रस्तुत की।
बिहार से आई हुई विदुषी शेफाली, जो निरंतर सच्चिदा जी के संपर्क में थीं, पिता तुल्य उनकी सेहत के लिए फिक्रमंद रहने के साथ-साथ उनकी आत्मकथा को लिखवाने के लिए मुसलसल आग्रह कर रही थीं। सच्चिदा जी हालांकि शुरुआत में इस कार्य के लिए बहुत उत्सुक नहीं थे, परंतु प्रशंसकों के आग्रह और दबाव में वे तैयार हो पाए, तथा शेफाली ने उसका 80% भाग पूरा भी कर दिया। उन्होंने इस मार्मिक यात्रा की अनेक नज़ीरें देते हुए वातावरण को गंभीर बना दिया।
अरविंद और शेफाली को सुनने के बाद सच्चिदानंद जी की ज्ञान-परंपरा की गहराइयों को समझने का अवसर उपस्थित सुधीजनों को मिला।
सभा में मौजूद योगेंद्र यादव ने अपने निजी संस्मरणों के साथ यह संकल्प भी दोहराया कि हमें उनकी हर पुस्तक और लेखन पर अलग-अलग गोष्ठियां कर विचार-विमर्श करना होगा तथा आज के परिप्रेक्ष्य में उसकी सार्थकता को केंद्र-बिंदु बनाकर उनके विचार-दर्शन को आगे बढ़ाना होगा।
ग्वालियर से आए हुए आईटीएम यूनिवर्सिटी के संस्थापक एवं समाजवादी विचार-परंपरा में आस्थावान रमाशंकर सिंह ने सुझाव दिया कि हमें सच्चिदा जी के नाम से किसी विश्वविद्यालय में पीठ स्थापित करनी होगी, तथा उन्होंने संकेत दिया कि इस दिशा के हर प्रयास में वे शामिल रहेंगे।
वरिष्ठ समाजवादी तथा नागरिक अधिकारों के आंदोलन के अगुआ विजय प्रताप ने हिंसा बनाम अहिंसा पर सच्चिदा जी द्वारा लिखे गए ड्राफ्ट की चर्चा करते हुए उस पर विमर्श करने का सुझाव दिया।
मध्य प्रदेश से आए गोपाल राठी ने बताया कि जब मैं 18 वर्ष का था तभी उनकी एक पुस्तिका पढ़कर उनका दीवाना बन गया और आज भी समाजवादी आंदोलन से जुड़ा हुआ हूं। सभा में मौजूद कई युवक–युवतियों, खास तौर से प्याली तथा इक़बाल अभिमन्यु ने इस विचार-परंपरा को आगे बढ़ाने का अपना दृढ़ संकल्प जतलाया।
कवि–लेखक गिरधर राठी के अस्वस्थ होने के कारण उनकी नुमाइंदगी करते हुए उनके सुपुत्र विशाख राठी ने भी अपने सुझाव दिए।
आज की सभा में अनेक पत्रकारों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनी-अपनी तरह से सच्चिदा जी को याद किया। हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार रहे, दिल्ली के वरिष्ठतम समाजवादी मदनलाल हिंद ने किशन पटनायक तथा सच्चिदा जी के साथ गुजारे कई किस्सों से श्रोताओं को अवगत कराया। ‘जनसत्ता’ अखबार के वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र राजन ने जनसत्ता में उनके द्वारा लिखे गए लेखों को उद्धृत किया।
राजवीर पंवार, जिनका घर सोशलिस्टों की विचार-गोष्ठियों का केंद्र रहा है, उन्होंने भी अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किए। दिल्ली से बाहर से आए साथियों ने भी अपने-अपने संस्मरण सुनाते हुए सच्चिदा जी के ज्ञान, त्याग, संघर्ष, सादगी को रेखांकित किया।
आज की इस यादगार सभा की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि इसमें किसी तरह की व्यक्तिवादी भावुकता या अतिशयोक्ति नहीं थी, बल्कि वैचारिक पक्ष को कैसे आगे बढ़ाया जाए, इस पर कार्य-योजना बनाने पर जोर था।
दिल्ली विश्वविद्यालय के कई प्रोफेसर—अजीत झा, प्रेम सिंह, शशि शेखर सिंह इत्यादि ने भी अपने-अपने सुझाव प्रस्तुत किए। सभा का संचालन प्रोफेसर अनिल मिश्रा द्वारा किया गया। इस आयोजन के मुख्य कर्ताधर्ता साथी हरिमोहन थे, जो आदतन पर्दे के पीछे ही रहते हैं।
संगीत-रसिक सच्चिदा जी को फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ग़ज़ल, जिसे फरीदा ख़ानम ने आवाज दी थी—”आज जाने की ज़िद न करो”—सुनना बेहद पसंद था। उसी को प्रोफेसर मधुलिका बनर्जी ने तरन्नुम में गाकर अपनी ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश कर माहौल को संजीदा बना दिया।
मेरी उम्रदराज़ी का खयाल रखते हुए शुरुआत में चित्र पर माल्यार्पण तथा अंत में मेरे द्वारा कहे गए कुछ शब्दों के साथ समापन हुआ।
हिंदी और अंग्रेज़ी में सच्चिदानंद जी की महत्वपूर्ण कृतियाँ निम्नलिखित हैं :
हिंदी पुस्तकों में प्रमुख:
समाजवाद के बढ़ते चरण
जिन्दगी सभ्यता के हाशिये पर
संस्कृति और समाजवाद
भारतीय राष्ट्रीयता और साम्प्रदायिकता
मानव सभ्यता और राष्ट्र-राज्य
पूंजीवाद का पतझड़
वर्तमान विकास की सीमाएँ
आजादी के अपूर्व अनुभव
लोकतंत्र की चुनौतियां
अंग्रेज़ी में महत्वपूर्ण कृतियाँ:
Caste System: Myths, Reality, Challenge
Socialism and Power
The Internal Colony (आंतरिक उपनिवेश)
Chaos and Creation
Emergency in Perspective
Socialism: A Manifesto for Survival (समाजवाद: अस्तित्व का घोषणापत्र)
Coalition in Politics
अन्य उल्लेखनीय पुस्तकें:
Iqbal: The Poet and His Message (इक़बाल : द पोएट एंड हिज मैसेज)
Some Eminent Indians Contemporaries (सम एमिनेंट इंडियन कंटेम्पोररीज़)
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