आज कोई प्रश्नकर्ता नहीं है! – डॉ राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी

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वंदे मातरम्

श्री बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की चर्चा चल रही है, उनके गीत “वंदे मातरम्” की चर्चा चल रही है। बंकिम चट्टोपाध्याय का संदेश क्या था? क्या उनका संदेश दुर्गा की स्तुति है? वंदे मातरम् की व्याख्या इस प्रकार से की जा रही है कि जैसे वह दुर्गा की कोई अद्वितीय स्तुति है और वंदे मातरम् गाने वाले वे लोग आजादी के दीवाने न होकर देवी की जात देनेवाली भक्तमंडली थी ।

दुर्गा की स्तुति संबंधी साहित्य तो भरा पड़ा है। आदिशंकराचार्य की आनंदलहरी है, सप्तशती है, देवीभागवत है और भी हजारों हजारों ही स्तोत्र हैं। वंदेमातरम् का संदेश दुर्गा की स्तुति नहीं है,वंदेमातरम् का संदेश प्रतिरोध है, वंदेमातरम् का संदेश अन्याय के विरुद्ध विद्रोह की आवाज है।

परतंत्रता की गैरत के संबंध में स्वयं बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने कहा था कि” हमें विदेशी सरकार ने इतना लुंज-पुंज बना दिया है कि हम दुर्दांत दस्युओं का प्रतिरोध नहीं कर सकते। ”

स्पष्ट है कि बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का संदेश प्रतिरोध है। उनके गीत वंदे मातरम् का संदेश प्रतिरोध है। बगावत है। वंदे मातरम् समष्टि को आन्दोलित करता है , प्रेरित करता है , उत्तेजित करता है ! लोकभावों का संचार करता है !  वंदे मातरम्‌ बंगाल के लोकमानस का स्वर है ! लेकिन मातृ-उपासना की प्राचीन-परंपरा ने इस गीत के रूप में मानो नया अवतार धारण कर लिया था और स्वतंत्रता का अपना ध्येय प्राप्त भी किया।

भारतमाता की जय और वंदे मातरम् का घोष हुआ, जैसे लोकमानस में बिजली दौड़ गयी ! भारतमाता की जय ! वन्दे मातरम् कोटि-कोटि जन की एकता मन्त्रघोष है ! यह तो भावों का विस्फोट है ! बगावत है । क्रान्ति है ! वंदे मातरम्! यह सामूहिकता का भावसूत्र है । सामूहिक-स्वीकृति का कोई विकल्प नहीं होता |यह लोकतन्त्र की शक्ति है ।अन्याय-अत्याचार-विषमता के विरुद्ध बगावत का इतना प्राणवान स्वर दूसरा और कौन सा है ? इस मन्त्रघोष ने जनता को जगाया उसमें प्राणों का संचार किया ! आजादी के आन्दोलन में जब वंदे मातरम् का नारा गूंजता तो अंग्रेजसरकार कांप जाती थी । वंदे मातरम् कहने से वे इतने घबराते थे कि इस आवाज को बन्द करने के लिये कोडे लगाते थे , किन्तु बगावत की चिनगारी सुलग चुकी थी , लोग कोडे खाते किन्तु वंदे मातरम् बोलते जाते थे ।

वंदे मातरम् गीत का वह संदेश क्या है और वंदे मातरम् का वह परिवेश क्या था और आज का परिवेश क्या है?  यह समझने के लिए आज पं. विद्यानिवास मिश्र का एक लेख प्रस्तुत है, ताकि उस अंतर को समझा जा सके।
पंडित विद्यानिवास मिश्र कह रहे हैं कि ”

आज असहाय बनानेवाले (अंग्रेज) नहीं हैं, पर सामान्य नागरिक असहाय है। देश असहाय है आतंकवाद के आगे, नागरिक असहाय है घरेलू आतंक के आगे। इस असहायता को एक बार चीरकर फेंक देने के लिए संकल्प क्यों नहीं जग रहा है। सुरक्षा के वंचना-दुर्गों को तोड़कर असुरक्षा के महासागर में कूद पड़ने का साहस क्यों नहीं हो रहा है। क्या समाधान तरुणों को दूरदर्शन के उत्तेजक चित्रों से मिलेगा ? क्या समाधान अपभोग की आग में घी डालनेवाले नृत्य-गीतों से मिलेगा? क्या समाधान आश्वासनों से मिलेगा ? बड़ी कुशलता से रचे गए विकास के विवरणों से मिलेगा ? आँकड़ों से मिलेगा? ये प्रश्न हैं और ये प्रश्न नहीं हैं, लोहे की तपाई हुई सलाखें हैं, जो जड़ता को भेद सकती हैं। लेशमात्र की सही, पर तोड़ने की शुरुआत कर सकती हैं। पर सबसे बड़ा प्रश्न है वि प्रश्न उठानेवाले तरुण-तरुणी कहाँ हैं? वीरों के देश में प्रश्नकर्ताओं की कमी हो गई है। प्रश्नकर्ता खड़ा हो जाए, गणतंत्र दिवस के उत्स मनने का जब समारंभ हो जाए।”

जनवरी २००७ के साहित्यअमृत में पंडितजी ने लिखा था कि

“”२६ जनवरी को लाहौर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में रावी के तट पर स्वाधीनता की शपथ ली गई थी। उस शपथ में कहीं-न-कहीं फ्रांस की क्रांति की गूँज भी थी। देश जब तक स्वतंत्र नहीं हुआ था ,तब तक २६ जनवरी का जुलूस स्वाधीनता दिवस के रूप में सड़कों पर निकलता था, तरुण तरंगिणी के रूप में उपहता था। उस दिन तिरंगा फहराया जाता था और बंदिशें लगती थीं, तब भी तिरंगा लहरा ही जाता था।

२६ जनवरी, १९४२ को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह होनेवाला था। तिथि पहले से पक्की थी, पर तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर ने कुलपति पं. अमरनाथ झा के पास पत्र लिखा कि इस समारोह में तभी उपस्थित हो सकूँगा, जब उस दिन छात्र संघ के भवन पर छात्र तिरंगा न फहराएँ। झा साहब वैसे तो थे बड़ी ठसक के साहब, पर भीतर से वे देश के लिए स्वाभिमान रखनेवाले व्यक्ति थे। उन्होंने शिष्टतापूर्वक लिख दिया कि विश्वविद्यालय छात्रों का है और वे अगर एक दिन अपनी आकांक्षा का उत्सव करते हैं और शालीनता के साथ, तो उसे मैं रोकूँगा नहीं। आपने पहले तिथि दी थी, दीक्षांत समारोह होगा और दीक्षांत समारोह हुआ। दीक्षांत भाषण महामना पं. मदनमोहन मालवीय ने दिया। उन्हें कुरसी पर उठाकर लाया गया था। उन्होंने बैठे-बैठे अंग्रेजी में भाषण दिया, पर अंत में छात्रों ने जो काम २६ जनवरी को किया, उसे उन्होंने दो पंक्तियों में क्षीण स्वर में, पर दृढ़ पुकार के साथ दोहराकर किया-

सब मिल बोलो एक आवाज

अपने देश में अपना राज।

२६ जनवरी के दिन जहाँ-जहाँ बंदीगृह में स्वाधीनता के सिपाही अवरुद्ध होते थे वहाँ-वहाँ इनकलाब जिंदाबाद जाग उठता था। मुझे
स्वयं अपने हाई स्कूल और इंटर कॉलेज के दिन याद हैं, जब समस्त स्कूलों के लड़के २६ जनवरी को प्रभात फेरी के लिए निकल जाते थे। भय रहित, उल्लसित और भाव से तरंगायित देश स्वतंत्र हुआ। १५ अगस्त, १९४७ को, संविधान सभा बनी, अपना संविधान बना और २६ जनवरी, १९५० को पहला गणतंत्र दिवस समारोह मना। बड़ा जश्न हुआ, नए-नए जश्नों की शुरुआत हुई, हर राज्य से लोकगीत, नृत्य मंडलियाँ आनी शुरू हुईं, हर प्रदेश से गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने के लिए प्रदेश की कला-संस्कृति के कलात्मक मॉडल ट्रकों पर सुसज्जित होकर आने शुरू हुए। मैं स्वयं विंध्य प्रदेश शासन और उत्तर प्रदेश शासन के सूचना विभाग की ओर से इस परेड में शामिल होने के लिए प्रदेश स्तर का आयोजन अधिकारी बना था और उस रूप में कम, पर स्वतंत्र देश के नागरिक के रूप में बड़ी उमंग थी। स्वाधीनता की परिपक्वता के

साथ-साथ आशा तो यही थी कि इस उमंग में प्रतिदिन वृद्धि होगी और अनुदिन नई-नई रचनात्मक संकल्पनाएँ आएँगी। पर उलटे, ये आयोजन और भी अधिक अनुष्ठान होते जा रहे हैं। अनुष्ठान भी विधि से संपन्न होता है और उसमें एक सौष्ठव आता है, पर इन अनुष्ठानों में एक ढर्रेदारी आती जा रही है मानो जैसे-तैसे रस्म अदा कर देनी है। पुराने आयोजनों की पुनरावृत्ति हो रही है। देश की राजधानी के निवासी पहले जितना जुटे थे, अब उतना नहीं जुटते, अधिक-से-अधिक दूरदर्शन के चैनलों पर परेड का नजारा ले लेते हैं। स्वाधीनता-प्राप्ति के पहले का स्वतंत्रता दिवस और उसके बाद के गणतंत्र दिवस- दोनों में कितना अंतर आ गया है। पहले जोखिम उठाकर अभय की छाया में यह दिन जन-उत्सव के रूप में मनाया जाता था, आज सतर्कता और भय की छाया में यह दिन सरकारी ढंग पर मनाया जा रहा है। इसे जन-उत्सव का सैलाब होना चाहिए था और यह अब सरकारी अनुष्ठान के रूप में एक
छोटी सी माइनर नहर रह गया है। बैठे-बैठे में इसका निदान करता हूँ तो लगता है कि स्वतंत्रता की प्यास स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद कहीं और तीव्र होनी चाहिए थी, स्वतंत्रता की जिम्मेदारी के रूप में उसे परिणत होना चाहिए था, यह नहीं हुआ। प्रत्येक वयस्क नागरिक को मतदान का अधिकार मिला, वयस्कता की सीमा भी कुछ नीचे खिसकी, पर नागरिक शास्त्र के पाठ पढ़ाए जाने के बावजूद देश का साधारण आदमी नागरिक नहीं बना, मतदाता बनकर रह गया। वह अपने को उसी रूप में असहाय प्रजा मानता है जिस रूप में १५ अगस्त, १९४७ के पहले मानता था। उसी रूप में सारी जिम्मेदारी सरकार पर छोड़ता है जैसा पहले विदेशी सरकार को माई-बाप मानकर अपने को निरूपाय मानता था। ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ जयघोप गूँजा जरूर, सिंहासन भी कुछ वर्षों के लिए हिला जरूर, पर जनता नकारात्मक मतदान करके थिर हो गई। तरंगें मानव समुद्र की ज्वार में आकर सो गई।

गणतंत्र दिवस ही नहीं, जो पहले के चले आ रहे त्योहार हैं, उनके उत्सव भी फीके होने लगे।

मैंने अभी-अभी राखाल दास वंद्योपाध्याय के ‘करुणा’ उपन्यास का हिंदी अनुवाद पढ़ा। यह १९२१ में नागरी प्रचारिणी सभा से छपा था और इस अनुवाद की भूमिका पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने लिखी थी। यह उपन्यास चार- पाँच वर्ष पहले ही लिखा गया होगा। मेरा अनुमान है, प्रसादजी ने इस मूल उपन्यास को अवश्य पढ़ा होगा। इस उपन्यास में लरजे हुए अवसाद की छाया ‘स्कंद गुप्त’ पर भी दिखती है। इसमें करुणा है, स्कंद गुप्त में देवसेना है। करुणा स्कंद गुप्त की संभावित मृत्यु के समाचार से चिता पर चढ़ जाती है और देवसेना ‘आह वेदना मिली विदाई’ गीत के साथ शून्य में विलीन हो जाती है। दोनों कृतियों में देश के लिए मर मिटने का उत्साह भी है और उस उत्साह की उपेक्षा भी है। साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में रसरंग मचा रहता है और लाखों की संख्या में देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के सैनिक एक गरुड़ध्वज की छाया में हूणों की बाढ़ से टक्कर लेते रहते हैं। एक और रसरंग दूसरी ओर विनाश, विध्वंस, रक्तपात और सबकुछ स्वाहा। उस स्वाहा में भी देश भस्म नहीं होता, केवल व्यक्ति बलिदान की वेदी पर चढ़ते हैं। देश की स्वतंत्रता का आभास कभी-कभी संकट के समय मिलता है, पर वह टिकता नहीं है। टिकता तो उसकी आँच में इतने सारे अनैतिक व्यापार ऊपर से नीचे तक चल रहे हैं, वे चल नहीं पाते। उसके प्रतिरोध के लिए एक बहुत बड़ी नागरिक सेना तैयार होती।

कौन राख के नीचे से चिनगारी संचित करेगा और देश के स्वाभिमान की आग धधकाएगा। कौन आज बोलेगा ‘सेन्द्राय तक्षकाय स्वाहा।’ यदि तक्षक ने इंद्र के सिंहासन में शरण ली है तो इंद्र के साथ तक्षक स्वाहा हो जाए। कौन आज यह आँच सहने को तैयार होगा। कौन आज देश की विलुलित भाग्यलक्ष्मी को स्थिर करेगा। जाति, क्षेत्र, ऊँच-नीच, गाँव-शहर के भेद भूलकर देश के महायज्ञ में शामिल होने के लिए कौन रचेगा निमंत्रण-पत्र। कौन उसे बाँटेगा, कौन उसे पढ़ेगा, कौन उसे गुनेगा। हम स्वतंत्र हैं, यह छोटी बात नहीं है। लेकिन यह अनुभव व्यापक क्यों नहीं हो रहा है? क्यों स्व. वंशीधर शुक्ल का अनुताप घेरे हुए है-

पहिले जे आएन तेऊ चूसिन
आगे जे अइहें तेऊ चुसिहँ
सगरी सरकार बराबर हैं
बोले पर सिर कूंचन जइहैं।

परतंत्रता की गैरत शरच्चंद्र चट्टोपाध्याय ने इस रूप में मानी थी कि हमें विदेशी सरकार ने इतना लुंज-पुंज बना दिया है कि हम दुर्दात दस्युओं का प्रतिरोध नहीं कर सकते।

आज असहाय बनानेवाले नहीं हैं, पर सामान्य नागरिक असहाय है। देश असहाय है आतंकवाद के आगे, नागरिक असहाय है घरेलू आतंक के आगे। इस असहायता को एक बार चीरकर फेंक देने के लिए संकल्प क्यों नहीं जग रहा है। सुरक्षा के वंचना-दुर्गों को तोड़कर असुरक्षा के महासागर में कूद पड़ने का साहस क्यों नहीं हो रहा है। क्या समाधान तरुणों को दूरदर्शन के उत्तेजक चित्रों से मिलेगा ? क्या समाधान अपभोग की आग में घी डालनेवाले नृत्य-गीतों से मिलेगा? क्या समाधान आश्वासनों से मिलेगा ? बड़ी कुशलता से रचे गए विकास के विवरणों से मिलेगा ? आँकड़ों से मिलेगा? ये प्रश्न हैं और ये प्रश्न नहीं हैं, लोहे की तपाई हुई सलाखें हैं, जो जड़ता को भेद सकती हैं। लेशमात्र की सही, पर तोड़ने की शुरुआत कर सकती हैं। पर सबसे बड़ा प्रश्न है वि प्रश्न उठानेवाले तरुण-तरुणी कहाँ हैं? वीरों के रोम बने देश में प्रश्नकर्ताओ की कमी हो गई है। प्रश्नकर्ता खड़ा हो जाए, गणतंत्र दिवस के उत्स मनने का जब समारंभ हो जाए।

साहित्यअमृत
जनवरी २००७


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