संसद में ‘ मैया खौकी, बेटा खौकी’ की तर्ज पर बहस चल रही है। सांसदों ने संसद को धींगामुश्ती की जगह बना दी है। सत्ता पक्ष से सवाल कुछ किए जाते हैं और जवाब कुछ और आता है। चुनाव से जुड़े तीन सवाल प्रमुख थे। पहला – चुनाव आयुक्त को चुनने वाली समिति से मुख्य न्यायाधीश क्यों हटाया गया? दूसरा- चुनाव आयुक्तों के लिए संसद में ऐसा कानून क्यों पास किया गया कि किसी भी हालत में उन पर मुकदमा नहीं चलाया जायेगा? तीसरा – सीसीटीवी फुटेज क्यों पैंतालीस दिनों में नष्ट क्यों किया जायेगा? सवाल विपक्ष के नेता ने किया, जवाब देने धनकुबेर सांसद निशिकांत दुबे खड़े हुए। उन्हें तू तड़ाक करने के सिवा आता क्या है? कांग्रेस ने यह किया, कांग्रेस ने वह किया। लोकतंत्र की रक्षा के लिए तीनों प्रश्नों का हल जरुरी है। चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में पहले प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश होते थे। नरेंद्र मोदी जी की सरकार ने मुख्य न्यायाधीश को हटा कर अपने मंत्रिमंडल के अमित शाह को सदस्य बना दिया।
आखिर मुख्य न्यायाधीश को हटाने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या यह संकेत नहीं देता है कि सरकार को निष्पक्ष चुनाव आयुक्त नहीं, सरकारी चुनाव आयुक्त चाहिए? सरकार की मंशा चुनाव आयोग पर कब्जा करने का था, जिसमें वह सफल हुईं। दूसरी बात तो अचंभे में डाल देती है। चुनाव आयुक्त कुछ भी करेंगे और उन पर कोई मुकदमा फ्रेम नहीं हो सकता , यह आखिर कैसा कानून है? वह चुनाव को तहस नहस कर दे और लोकतंत्र की नींव हिला दे और उस पर कोई कार्रवाई नहीं होगी। मोदी सरकार ने यह कानून बना कर अपना पालतू चुनाव आयोग का गठन किया। उनकी मंशा साफ है कि चुनाव को अपने तरीके से संचालित किया जाएगा और उन्होंने किया भी। चार – चार महीने तक चुनाव होते रहे, सरकार ने जैसे चाहा चुनाव की तिथि तय करवाती रही। सांप्रदायिक आधार पर बयानबाजी होती रही। आचार संहिता दुखियारे नेताओं पर लागू होती रही। बिहार चुनाव में तो निर्लज्जतापूर्वक सरकारी खजाने से आचार संहिता लागू होने के करोड़ों करोड़ रुपए बांटे गए। मतदाता सूची की विश्वसनीयता को नष्ट कर दिया गया।तीसरा काम इसलिए किया गया कि वोट चोरी कर लें तो उसके सभी प्रमाण मिटा दें। तीनों व्यवहार ऐसे हैं जो भारतीय लोकतंत्र को जड़ मूल से ख़त्म कर रहे हैं। सत्ता पक्ष को जवाब देना नहीं है, न इसमें सुधार करना है।
कितना दुर्भाग्य है देश की संसद का कि अध्यक्ष ओम बिड़ला विपक्ष के नेता राहुल गांधी को न केवल टोका टोकी करते हैं, बल्कि हिदायत देते हैं। संसद में दो नेता सबसे ज्यादा प्रमुख होते हैं – पहले प्रधानमंत्री और दूसरे विपक्ष के नेता। ओम बिड़ला प्रधानमंत्री के सामने हाथ जोड़े रहते हैं और विपक्ष के नेता पर फब्तियां कसते रहते हैं। प्रधानमंत्री कुछ भी बोलें। इतिहास की ऐसी तैसी कर दें। अध्यक्ष ओम बिड़ला को सांप सूंघ जाता है और विपक्ष के नेता पर वे अपना फण काढ़े रहते हैं। राहुल गांधी ने अपनी बात जबर्दस्त ढंग से रखी और लोकतंत्र पर मंडराते खतरे से देश को आगाह किया। सत्ता पक्ष के पास बकथोथरी के और कुछ नहीं है। ग्यारह वर्षों से बातों में उलझा कर ही वह लोकतंत्र की गर्दन पर कट्टा रख कर ठहाके मार रहा है। देश को समझ में आने लगा है कि हर चमकदार चीज सोना नहीं होती। वंदे मातरम् जैसे पवित्र राष्ट्र गान को भी प्रधानमंत्री ने कीचड़ में लपेटा। यह अलग बात है कि उन्हें मुंह की खानी पड़ी। बेहतर होता कि वंदे मातरम् की ऐतिहासिक भूमिका पर दोनों पक्ष चर्चा करते, लेकिन यहां तो बुद्धि का टोंटा है। जब आर एस एस और महानुभावों पर सवालों की झड़ी लगी तो उनके चेहरे देखने लायक थे।
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