महात्मा गांधी की सबसे बड़ी लड़ाई अंग्रेज़ी सत्ता से नहीं, बल्कि देश के भीतर जमी मानसिक गुलामी से भी थी। उनका मानना था कि जब तक मनुष्य अपने भीतर की दासता नहीं छोड़ता, तब तक राजनीतिक आज़ादी भी अधूरी रहती है। इस मानसिक गुलामी के विरुद्ध गांधी का संघर्ष छोटे-छोटे, लेकिन गहरे प्रतीकों में दिखाई देता है। ऐसा ही एक प्रसंग महादेव देसाई और ब्रिटिश नौकरशाह सिरिल रैडक्लिफ से जुड़ा है।
सिरिल रैडक्लिफ उस समय एक चर्चित और प्रभावशाली ब्रिटिश अधिकारी थे। चर्चा थी कि वे भविष्य में भारत के वाइसराय बनकर आ सकते हैं। उन्होंने एक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी थी, जिसका महादेव देसाई गुजराती में अनुवाद करना चाहते थे। महादेव देसाई ने अनुमति के लिए उन्हें एक पत्र लिखा, जिसकी भाषा इस प्रकार थी—
His Excellency,
Kindly permit me your kind permission to publish your book in Gujarati and I want to publish it. Please give me your kind permission.
Your’s Faithfully
Mahadev Haribhai Desai
इसके साथ उन्होंने भावार्थ में लिखा—
“महामहिम, मैं आपकी इस अमूल्य और अद्भुत पुस्तक का अंग्रेज़ी से गुजराती में अनुवाद करना चाहता हूँ और मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि कृपया इसे छापने की अनुमति दें।”
महादेव ने जब यह पत्र गांधीजी को दिखाया तो उन्होंने तुरंत कहा—“रुको, इसे तुरंत बदलो।” गांधीजी ने महादेव देसाई से कहा कि ‘His Excellency’ और ‘Yours Faithfully’ जैसे शब्द मानसिक गुलामी के चिन्ह हैं। उन्होंने नया पत्र इस तरह लिखवाया—
Mr. Cyril Redcliffe,
I want to inform you that I translated your book in Gujarati and I want to publish it. Please give me your permission.
Your’s affectionately
Mahadev Haribhai Desai
गांधीजी ने समझाया—“जिस भाषा में विशेषण बहुत हों और अर्थ बहुत कम, वह भाषा स्वतंत्र मनुष्य की नहीं होती। लेखक और अनुवादक का रिश्ता बराबरी का होता है। अनुवादक कोई नौकर नहीं, बल्कि एक रचनात्मक व्यक्ति होता है। जो काम लेखक स्वयं नहीं कर सकता, वही काम अनुवादक करता है—वह विचार को दूसरी भाषा और दूसरी संस्कृति में जीवित करता है।”
महादेव देसाई ने बाद में लिखा कि उसी क्षण उन्हें समझ आया कि भारत में गुलामी सत्ता से अधिक भाषा, संबोधन और व्यवहार में छिपी हुई है। गांधीजी ने इसी कारण रोटी, कपड़ा और मकान के साथ एक चौथा अनिवार्य तत्व जोड़ा—स्वाभिमान। उनके लिए स्वाभिमान कोई भावनात्मक शब्द नहीं था, बल्कि स्वतंत्र जीवन की बुनियादी शर्त था।
यह छोटा सा प्रसंग एक गुलाम रागदरबारी मानसिकता को स्वतंत्र और चिंतनशील बनाने की प्रक्रिया है। गांधीजी ने महादेव देसाई को केवल भाषा नहीं बदलाई, उन्होंने आत्मा को सीधा खड़ा होना सिखाया। गांधीजी ने भारत को सिखाया कि अगर शब्द झुके हुए हों तो आत्मा भी झुक जाती है। His Excellency से Mr. तक की यह यात्रा हमारे भीतर छिपी दासता से मुक्ति की यात्रा है। आज गांधीजी होते तो यही कहते कि अपनी रीड की हड्डी सीधी रखो, सिर तान के रखो और स्वाभिमान की जिंदगी जियो।
गांधी केवल अतीत नहीं, भविष्य की ज़रूरत हैं।
नोट – इस प्रसंग का उल्लेख गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत ने अपने भाषण में किया है।
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