— नरेन्द्र कुमार मौर्य —
कथन को उलट दो तो बनता है न थक। यही वाक्य कथन के काम का आईना बन जाता है। कथन के नये अंक के संपादकीय की पहली लाइन यही है। शीर्षक है ‘हम परवरिश ए लौह ओ कलम करते रहेंगे’, यह कथन का महत्त्वपूर्ण विशेषांक है जो कथन के संस्थापक, कथाकार रमेश उपाध्याय पर केंद्रित है। इसका संपादन किया है उनकी बेटी संज्ञा उपाध्याय ने। वैसे अपने जीते जी उन्होंने कथन का संपादन संज्ञा को सौंप दिया था। हम सब जानते हैं संज्ञा ने भी इस दायित्व का निर्वहन उसी तरह किया जैसा रमेशजी करते थे। इस अंक में तो जैसे उनके संपादन का हुनर अपने उत्कृष्ट रूप में मौजूद है। 314 पृष्ठों में फैली सामग्री के संयोजन और संपादन में कितना समय और श्रम लगा होगा इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
बात संपादकीय से शुरू करते हैं। संज्ञा उपाध्याय ने अपने पिता से जुड़ाव और उनकी तमाम ख़ूबियों को बहुत गहराई से सामने रखा है। इसमें कथन पत्रिका का कामकाज माध्यम बना है। संज्ञा कहती हैं ‘मैंने उनसे योजना पूछी, तो उन्होंने जवाब देने के बजाय सवाल के रूप में कहा-ऐसा-ऐसा कर लें? यह उनका हमेशा का तरीका रहा। इस तरीके में सबके लिए अपने विचार रखने के रास्ते खुल जाते। वे आदेशात्मक स्वर में कभी नहीं कहते थे कि यह करो। कथन के काम में ही नहीं, किसी भी काम में। अपने घर में मैंने यह अभ्यास बचपन से देखा। जो भी काम करना हो सब मिल-बैठकर तय करते। अपने परिवार में यह जनतंत्र हमने हमेशा पाया। यही जनतांत्रिक व्यवस्था कथन के संपादन-प्रकाशन में भी रही।’
संज्ञा ने इस जनतांत्रिक प्रक्रिया को आगे कथन के विभिन्न कामों के हवाले से उदाहरणों के साथ बहुत अच्छे से समझाया है। इसमें रमेशजी की शख्सियत के कई रंग सामने आते हैं। लोगों को सोचने के लिए प्रेरित करना, सवाल उठाना और फिर नये विचार लेकर मौजूदा हालात को समझने की कोशिश करना। इससे पता चलता है कि चीजों को समझने का उनका नजरिया कितना स्पष्ट था। आखिर में बीमार पिता के बिस्तर पर कागज, कलम और पैड पड़ा है। जिसमें नए उपन्यास के डेढ़ पृष्ठ लिखे हुए हैं। साथ में एक कागज और, जिसमें उपन्यास की पूरी रूपरेखा दर्ज थी। हाशिये पर लिखा था ‘वह देश दुनिया के नक्शे में कहीं नहीं था, लेकिन दुनिया भर के लोगों के मन में था।’ यह प्रसंग भावुक कर देता है। रमेशजी के मन में अभी बहुत कुछ था जिसे सामने आना था लेकिन कोरोना और सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की क्रूरता ने उन्हें हमसे छीन लिया।
रमेश उपाध्याय के हिन्दी साहित्य के फलक पर छा जाने की यात्रा जितनी संघर्षपूर्ण है, उतनी ही रोचक भी है। कथाकार, नाटककार, आलोचक, अनुवादक और उतने ही अच्छे संपादक। उनके लेखन के इतने पहलू हैं कि आप कहीं से भी एक सिरा पकड़कर उन तक पहुँच सकते हैं। उनकी सक्रियता आपको हैरत में डाल सकती है। लेखन उनके लिए एक मुहिम था। समाज की आए दिन की उथल-पुथल के बीच एक रास्ता तलाशने का। एक ऐसा रास्ता जहाँ हालात को समझने की कोशिश है और एक नयी दुनिया गढ़ने का सपना भी।
कथाकार, पत्रकार प्रियदर्शन लिखते हैं ‘रमेश उपाध्याय असंदिग्ध तौर पर मानते थे कि साहित्य का काम बेहतर मनुष्य की रचना करना है। 2020 में आयी उनकी किताब ‘साहित्य की नयी नैतिकता’ का पहला ही लेख है- बेहतर मनुष्य और बेहतर दुनिया के लिए। साहित्य की इस भूमिका पर उनका भरोसा साहित्य के किसी उदात्त कर्म होने के वायवीय आदर्शवाद से नहीं, बल्कि इस ठोस समझ से पैदा हुआ था कि साहित्य ही व्यक्ति और समाज को समझने की कुंजी है और उसे रास्ता दिखानेवाली रौशनी भी।’
उनके मित्र मोहन श्रोत्रिय कहते हैं ‘रमेश उपाध्याय आश्चर्यजनक रूप से बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी साहित्यकार थे। 1960 के दशक के मध्य से इस साल के अप्रैल महीने तक वे निरंतर सृजनरत रहे- कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, पत्रिका संपादन, अनुवाद, आत्मकथा, साक्षात्कार, और न जाने क्या-क्या। साक्षात्कार विधा को उन्होंने एक अनूठी ऊँचाई तक पहुँचा दिया।’
कथन के इस 85-86वें अंक में रमेशजी की शख़्सियत का पूरी शिद्दत से आकलन किया गया है। यादनामा में उनके 18 निजी मित्रों ने उन्हें याद किया है तो परिवार के सदस्यों ने भी उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं को सामने रखा है। मैंने जब पढ़़ना शुरू किया तो सबसे पहले उनकी पत्नी सुधाजी का संस्मरण ही पढ़ा। उनके जीवन के शुरुआती संघर्ष लेकर उनकी शादी की दास्तान तक उन्होंने बहुत अच्छे से बयान की है। परिवार बनाने और उसे सँवारने के किस्से मन को छू लेते हैं और इस सब के बीच लेखन और समाज को लेकर उनकी प्रतिबद्धता हैरत में डाल देती है।
सुधाजी ने कितने ही क़िस्सों का जिक्र किया है। वे कहती हैं ‘जब कथन का नया अंक आता था, उसको डिस्पैच करने के लिए भी कई बार मुझे इनके साथ डाकखाने जाना पड़ता था। उस समय बड़ा अजीब दृश्य होता था, जब रिक्शे में कथन की प्रतियों के साथ मैं बैठ जाती और रिक्शे के पीछे-पीछे ये पैदल आ रहे होते।’ इसके अलावा बस स्टॉप पर बैठे-बैठे ‘जुलूस’ कहानी का लिखा जाना या घर-परिवार, सभा-गोष्ठी, काम और लेखन को लेकर रमेशजी की व्यस्तता के क़िस्से।
सुधाजी लिखती हैं- ‘मैं देखती थी कि यह आदमी अठारह-अठारह घंटे काम करता है, दुनिया भर की भाग-दौड़ करता है, लेकिन मुझसे और बच्चों से प्यार करने का, हमें घुमाने-फिराने का, सिनेमा और नाटक दिखाने का, बच्चों के साथ खेलने का, उन्हें कहानियाँ सुनाने का और मेरे कामों में कुछ न कुछ हाथ बँटाने का समय कहीं न कहीं से निकाल ही लेता है।’
इस अंक को पढ़ते हुए कई बार मैं चकित रह जाता कि इतनी ऊर्जा यह आदमी लाता कहाँ से होगा। कितने लोगों ने उनके बारे में कितनी ही बातें लिखी हैं। उनके लेखन और व्यक्तित्व के कई पहलुओं को छुआ है। और यह कोई कपोल कल्पना की बातें नहीं हैं वरन् बरसों के साथ, बहस-मुबाहिसे और आँखों देखे सच की दास्तान है। कहीं ख़ुद रमेशजी ने कहा भी है कि अगर अपनी रुचि के काम करने की आजादी हो तो आदमी में अपने आप ऊर्जा आ जाती है और थकान भी नहीं होती।
इस अंक में उनके बारे में इतनी बातें हैं कि यहाँ सबको समेट पाना संभव ही नहीं, लेकिन इससे इतना तो पता चलता ही है कि वे कोई साधारण लेखक नहीं थे। उनका जनवाद नारों या सभा-जुलूसों तक सीमित नहीं था। इससे आगे इस विचार को वे आम आदमी की जिंदगी से जोड़ना चाहते थे इसलिए एक तरफ उन्होंने कहानी की विधा को अपनाया और दूसरी तरफ वैचारिक लेखन से मौजूदा दौर के कई सवालों से भी मुठभेड़ की। उनकी कहानियों में आम आदमी के संघर्ष के विविध रूप देखने को मिलते हैं, लेकिन एक नये सपने के साथ।
शंभुनाथ ने उनके बारे में बढ़िया बात कही है- ‘आमतौर पर हिंदी के मार्क्सवादी लेखकों से अपेक्षा की जाती है कि वे बहुत कुछ ‘सोचे जा चुके’ के ढर्रे पर ही लिखें और उसे ही पुष्ट करते रहें। इसके विपरीत रमेश उपाध्याय बहुत कुछ स्वतंत्र रूप से सोचते थे, जो दुनिया को बदलने का काम करनेवाले कुछ व्यक्तियों को कानून तोड़ने जैसा लगता था। रमेश उपाध्याय महसूस करते थे कि वे किसी रेवड़ में नहीं हैं, इसलिए वे खुद भी सोचते थे और ‘क्रिएटिव सफरिंग’ से गुजरते थे।’
अनंत भटनागर ने रमेशजी के अजमेर अध्याय के बारे में बहुत खूबसूरत संस्मरण लिखा है। रमेशजी ने अजमेर में काम किया। वहाँ से एमए किया और वहीं ‘लहर’ की संपादक मनमोहिनी के एकतरफा प्रेम में भी पड़े। उन्हें प्रेम-पत्र लिखा। मनमोहिनी ने उनके पत्र की भाषा की तारीफ की और उन्हें सृजनात्मक लेखन करने की सलाह दी। इसके बाद रमेशजी कहानी लेखन से जुड़े और उनकी पहली कहानी लहर में छपी। यह प्रसंग बहुत रोचक है। यहाँ प्रकाश जैन और मनमोहिनी जी की तारीफ करने का मन होता है कि उन्होंने एक नौजवान की भावनाओं को अन्यथा नहीं लिया और उनके अंदर छिपे लेखक को पहचान लिया।
इस अंक में रमेशजी की कहानियों पर लिखा है महेश दर्पण ने, ‘प्रेम के एकांगी स्वरूप के विरुद्ध’ लेख में। तरसेम गुजराल ने ‘अपनी भाषा को समृद्ध करनेवाला रचनाकार’ में उनके अनुवादक रूप की पड़ताल की है। अवधेश प्रीत ने ‘कला के बाजार में बिकने की कला के विरुद्ध’ में उनके उपन्यास ‘हरे फूल की खुशबू’ पर लिखा है। उनकी बेटी प्रज्ञा ने उनके नाटककार रूप की पड़ताल की है, ‘तुम्हारा मुक्तिदाता तुम्हारे बीच खड़ा था’ लेख में। रमेशजी की पुस्तक ‘भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि’ पर हितेंद्र पटेल ने विचार किया है। आगे कहानीकार शंकर ने रमेशजी से लंबा साक्षात्कार किया है।
अंक में रमेशजी की सात कहानियाँ, एक नाटक गिरगिट और एक रेडियो नाटक भी शामिल है। रमेशजी का लेख ‘हमारे समय के स्वप्न’ भी इसमें है। आखिर में नामवर सिंह, राजेश जोशी, कुमार अंबुज और राकेश कुमार ने रमेशजी की किताबों की समीक्षा की है।
इस भरेपूरे अंक के लिए संपादक संज्ञा उपाध्याय को बधाई। हर पृष्ठ पर उनकी मेहनत दिखाई देती है। लेख के अंत में छूटी हुई जगह का उन्होंने बहुत सुंदर इस्तेमाल किया है। वहाँ रमेशजी की डायरी के उद्धरण दिए गए हैं। डायरी के ये छोटे-बड़े अंश आपको और समृद्ध करते हैं। इसके अलावा रमेशजी के कई फोटाग्राफ भी इसमें हैं, परिवार और दोस्तों के साथ। उनके बेटे अंकित उपाध्याय का रेखाचित्र बहुत खूब है।
मुझे लगता है इस अंक को पढ़ने से पहले मैं रमेशजी के बारे में बहुत कम जानता था और अब पढ़ने के बाद उन्हें और जानने की जिज्ञासा बढ़ गयी है जो अब उनकी रचनाओं को पढ़ कर ही पूरी हो सकती है।
इस अंक को पढ़ते हुए मुझे अपना दोस्त सुनील बहुत याद आया। उसके काम और लेखन को मैंने करीब से देखा है, लेकिन उसे लेकर हम ऐसा अंक नहीं निकाल पाये, क्योंकि हमारे पास संज्ञा उपाध्याय नहीं थीं। काश, हम सुनील पर केंद्रित सामयिक वार्ता का ऐसा अंक निकाल पाते।